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सोमवार, अप्रैल 30

दो राहा

गहन समस्या सामने है कोई हम को राह बताए
चक्र चलाएँ भूखे रहें हम कोई सच्ची राह बताए

घातक हमले संस्कृति पर
घातक हमले भारत पर
घातक हमले मानवता पर
घातक हमले आजादी पर, हो रहे हैं....कोई सच्ची

नजर के सामने मोहन हैँ दो
नजर के सामने विचार हैँ दो
नजर के सामने युद्ध हैँ दो
नजर के सामने युग पूरे हैँ दो......गहन समस्या

जीया एक पल पल में तो सिद्धांतो में दूजा जीया
कीये एक ने पाप माफ़ सौ ना माना तो चक्र
चलाया
दूजे ने गाल दूजा थप्पड के लिए आगे बढाया
नाम दोनों के समान पर लीला दोनों की जुदा थी.....गहन समस्या

दुश्मन को माफ़ कर के एक ने सारा हिसाब रखा
दूजे की माफी का बर्तन एसा जैसे अक्षय पातर
दिए एक ने अवसर शत्रु को पर मर्यादा में दिए
दूजा अवसर शत्रु को बेहिसाब बस देता रहा.....गहन समस्या

मोहन ने शस्त्र ऊठाए धर्म की खातिर सोगंध तोडी
लाठी गोली गाँधीने चुपचाप सीने मे झेले
एक ने युद्धभूमि को भी जीवन का हिस्सा माना
दूजे ने अहिंसा को शत्रु विजय का मार्ग
समझा....गहन समस्या

मूल कवि > अभण एहमदाबादी-निकेता व्यास
अनुवादक > कुमार एहमदाबादी

बुधवार, अप्रैल 18

मनचाहा अर्थ

मूल लेखिका> स्नेहा पटेल "अक्षि तारक"
अनुवाद> महेश सोनी
हम देखते सुनते आये हैं की हर एक प्रेम कहानी किसी फिल्म या गीत से समानता रखती है। परदे की कहानी के नायक नायिका वास्तविक कहानी के नायक नायिका को देखकर सोचते होंगे की हमारे डायरेक्टर को इन की कहानी से ही आइडिया मिला है। ये तो हुबहू वही घटनाएँ हैं जो हमने परदे पर जीवंत है। वही संवेदनाएं हैं जो केमरे के सामने प्रदर्शित की है।

एक निराला दिन आज भी मेरी यादों के उपवन को महका रहा है। उस दिन की यादें मेरे दिलो-दिमाग को एसे महकाती है। जैसे चन्दन की खुशबु वातावरण को महकाती है। उस दिन मैं मित्र-वृन्द के साथ मूवी देखने गई थी। उस मूवी को शहर के प्रतिष्ठित रेडियो जोकी ने चार सितारे दिए थे। शहर के नए मोल में स्थित मल्टीप्लेक्ष में प्रदर्शित वो मूवी उन दिनों चर्चाओं का केंद्र थी। मोल पहुंचे तो पता चला मोल की सातवीं मंजिल पर है। लिफ्ट में जाना पड़ेगा। औ....र मेरे तिरपन कांपने लगे।

सच पूछो तो कहानी वहीँ से शुरू हुई थी।

मुझे लिफ्ट से बहुत डर लगता है। उस दिन भी यही हुआ। मुज पर डर के काले बादल मंडराने लगे। मैंने अपरोक्ष रूप से एकाध बार दबे स्वर में सरकती सीड़ियों [एस्केलेटर यार] से चलने का प्रस्ताव रखा। हालांकि मैं खुद भी जानती थी मेरा प्रस्ताव कमजोर है। प्रस्ताव रखते वक्त मुझे पता न था। मालिकों के 'बिजली बचाओ' अभियान के कारण एस्केलेटर्स बंद है। वर्ना मैं प्रस्ताव ही न रखती। सीडियां चड़ना पैरों का दम निकालनेवाली प्रक्रिया थी। पर मेरे पास लिफ्ट द्वारा जाने के लिए हाँ कहने के आलावा कोई चारा न था।

मेरे मित्र मेरे मन में चल रहे विचारों से अन्जान थे। लिफ्ट के दरवाजे बंद होते ही मेरे मन में डर का एवरेस्ट बनना शुरू हो जाता है। भय के महासागर में सुनामी उठनी शुरू हो जाती है। लिफ्ट के दरवाजे सक्करपारों की डिजाइनवाले हों तो; बाहर की दुनिया थोड़ी बहुत ही सही पर दिखती है। हवा का आवागमन सरलता से होता है।

नई तरह के दरवाजे बाहर की दुनिया से आँखों का संपर्क 'कम्युनिस्टों' की तरह काट देते है। वे मुझे बहुत डराते हैं। हाँ डर ने एक अच्छा काम किया है। मुझे बंद लिफ्ट के दरवाजे खोलने की कला में माहिर बना दिया है। दरवाजे बंद होने के बाद अगले 'पड़ाव' तक पहुँचने तक लिफ्ट में लगा आईना देखने की आदत मुज में घर कर गई है। उस दिनवाली लिफ्ट में दाईं ओर रुपहले रंग का स्विचबोर्ड था। कोमल बदन जैसा सोफ्ट-टच स्विचबोर्ड। मनचाही मंजिल पाने के लिए पुश बटन दबाइए; मंजिल ओर गति शुरू कीजिये। सरकते कमरे के कार्यान्वित होने के बाद स्विचबोर्ड के ऊपर लगा सुचना पटल [अरे, इंडिकेटर भाई] पर आनेवाली या आ चुकीं मंजिलों को देखना मुझे बहुत बोर भी करता है और परेशान भी। जैसे ही लिफ्ट ने 'यात्रा' शुरू की। मैं मन में हनुमान चालीसा का पाठ करने लगी।

मगर...............अरे रे रे रे रे रे रे ये क्या हुआ? लिफ्ट ऊपर जाने की बजाय नीचे क्यों जाने लगी? ग्रे रंग का यूनीफार्म पहने लिफ्ट-मेन से पूछा तो मालूम हुआ। पार्किंग फ्लोर से भी यात्रियों को लेना था। मैंने एक लम्बी आह भरी। मेरी यात्रा सात से आठ मंजिल की हो गई थी। चंद सेकंडो या मिनिटों की त्रासदी बढ़ गई थी। लिफ्ट-मेन ने पार्किंग फ्लोर से भेड़-बकरियों की तरह यात्रियों को लिफ्ट में ठूँसा। मुझे लगा कहीं वो पागल तो नहीं हो गया है।

सबसे पहले प्रवेश करनेवालों को सब से पीछे धकेल दिया गया था। भीड़ ने मेरे डर को और बढ़ा दिया। यूँ समझिये " गिरते को लात लगी"। लाख कोशिशें कर के भी विचारों को नकारात्मक होने से न रोक सकी। मन पर नकारात्मक विचारों की विजय-यात्रा कूच करने लगी। क्या हो गर बिजली चली जाये? लिफ्ट बिगड़ जाये? दो मंजिलों के बीच अटक जाये? एन वक्त पर सिक्योरिटी एलार्म नाकाम हो जाये? जनरेटर्स सही ढंग से कार्यान्वित होंगे? लिफ्ट बंद होने के बाद बाहर निकलने तक का समय कैसे बितेगा? लिफ्ट में इतने सारे लोग हैं कहीं साँस लेने में तकलीफ हुई तो?

ललाट पर पसीने की बूंदे छलकने लगी। चंद ही मिनिटों में वे नदी बनकर बहने लगी। छत में लगा पंखा अपना कर्तव्य निभा रहा था। लगा मुझे चक्कर आ रहे हैं। पंखा नहीं बल्कि मेरे दिलो-दिमाग घूम रहे हैं। लिफ्ट में बाईं ओर फ्रेम में कैद कागज पर लिखी सूचनाएं एवं आपातकालीन टेलीफोन नंबर दिमाग में 'फीड' करने लगी। क्या पता कब इन नंबरों पर फोन करना पड़ जाये? हाथ बेहद चुस्त जींस की जेब में चले गए। जेब में रखे आज-कल की लड़कियों जैसे स्लिम ट्रिम मोबाईल को मजबूती से थाम लिया। आपात समय में वही संकट-मोचन बननेवाला था। अपनी दूरदर्शिता पर यानि मोबाईल की बैटरी फुल चार्ज कर के घर से निकलने के निर्णय पर गर्व हुआ।

आह! इतनी देर क्यों लग रही है? पल पल भरी लगने लगा। लगा शायद सूर्य की गति धीमी हो गई है। इसी वजह से समय-चक्र धीमे चल रहा है। सातवीं मंजिल पर ही तो जाना था। अब तक मंजिल आई क्यों नहीं? साँस अटकने लगी। मैं डर के काल्पनिक वन में बेतहाशा भटक रही थी। इस दौरान पता ही न चला की मैं विचारों से पीछा छुड़ाने की गरज से से कब 'उस' के पास खिसक गई। उस की मजबूत भुजाओं पर अपना सर रख रख दिया। मेरे लम्बे तीखे नाख़ून उस की भुजा में गहरे तक 'घुसपैठ' कर गए। वो भारत की तरह चुपचाप घुसपैठियों को सहता रहा। मेरे बालों में स्नेह से भरपूर हाथ फिराता रहा। चंद मिनिटों बाद वो धीरे से मुझे सांत्वना देते हुए बोला " मैं हूँ ना, तुम्हारे साथ। परेशानियों को इस तरह अपने आप पर हावी मत होने दो। मैं तुम्हें कुछ..... नहीं होने दूंगा। दो-चार लम्बी व गहरी सांसे लो। सबकुछ ठीक हो जायेगा। मुज पर विश्वास है ना?"

पता नहीं क्या जादू था उस के शब्दों में। भीतर का सारा कोलाहल स्विच से ऑफ़ होते बल्ब की तरह 'बुझ' गया। विचार स्थगित हो गए। दिलो-दिमाग तनावमुक्त हो गए। औ....र मंजिल आ गई।

फिर संयोग भी अदभुत घटा। मूवी की नायिका भी बिलकुल मेरे जैसी समस्याओं में घिर गई। उस द्रश्य को देखकर मैं पानी पानी हो गई। जिस पल मैं पानी पानी हो रही थी। उसी पल उस ने मुझे देखा। हम दोनों की नजरें मिली। वो प्रेमपूर्ण अंदाज में हँस पड़ा। उस के हास्य ने मेरे भीतर हलचल मचा दी। एक पल के सौंवे हिस्से में मेरी दुनिया बदल गई। मुज में 'मैं' लुप्त हो रहा था। 'हम' आकर ले रहा था। साहित्य की भाषा में कहूँ तो 'मैं किसी पुराने जर्जर ढांचे की तरह इतिहास में गुम हो रहा था। जब की 'हम' नए बन रहे स्थापत्य की तरह इतिहास में प्रवेश कर रहा था। सबकुछ असामान्य लगने लगा था। आसमान का रंग आसमानी नहीं बल्कि गुलाबी दिखने लगा था। तन-मन की बांसुरी पर उस की सांसे टकरा रही थी। तन-मन से उठ रहा संगीत मेरे अस्तित्व को सुरीला कर रहा था।

मन सर र र र र र करता फिसल गया।

उस के ह्रदयद्वार पर दस्तक देने लगा।

धक् धक् धक् धक् धक् धक् धक्........

संवेदनाएं मासूम बच्चे की तरह उछलने लगी।

चंद पलों बाद.......

कुर्सी के वेल्वेट से सजे हत्थे पर बेफिक्री से रखे मेरे हाथ पर उस ने अनजाने से हाथ रखा तो हाथ वापस खिंच गया। दिल जोर से धड़क गया। हालाँकि उस की हरकत अच्छी लगी थी। दिल...उफ़... कमबख्त ये दिल हर बार जोर जोर से धड़ककर बेकाबू हो जाता है। पर लज्जा भी कोई चीज है! जब की मन सोच रहा था स्पर्शानुभव फिर से कैसे मिले? मन खुद को उलाहना भी दे रहा था। जब हत्थे पर 'पाणिग्रहण' का सुख मिल रहा था तो खोया क्यों? मन मस्तिष्क को कह रहा था तुने हाथ को वापसी का आदेश क्यों दिया? नजर एक बार फिर हत्थे पर गई तो देखा हाथ नहीं था। मन में एक आस बाँधकर मैंने अपने हाथ फिर वहां रख दिया।

परदे पर चल रहे चलचित्र से ध्यान पूरी तरह हट चुका था। परदे के सामने नई कहानी जन्म ले रही थी। ये सब क्या? क्यों? समज से बाहर था। उस वक्त एक ही ध्येय था। अर्जुन-लक्ष्य की तरह् उस का स्पर्श। मैं मीठी समस्या के हल के बारे में सोच रही थी की लक्ष्य प्राप्ति हो गई। मन मयूर झूम उठा। लक्ष्य प्राप्ति की सुखद अनुभूति में खोने लगी। अचानक उस के शब्दों ने कर्ण-प्रवेश किया। शब्द थे "आओ बाहर चलते हैं। कोफ़ी या पोपकोर्न लेकर आते हैं। एक बोरिंग गीत आनेवाला है।" उस ने स्वाभाविक बात कही थी। मेरे दिल में पनप रहे भावों ने 'मनचाहा' अर्थ निकाला। कुछ सोच के मन ही मन शरमाई, हँसी भी सही। सोचा 'प्रणय-आग' उस तरफ भी लगी है। पूरा चलचित्र घटनाओं का मनचाहा अर्थ निकालते हुए देखकर भी नहीं देखा।

चलचित्र पूरा होने पर बाहर निकले। संध्या अस्त होने की तैयारी में थी। निशा का उदय हो चुका था।

एक अकेली लड़की और रात का समय..

परिस्थिति भारतीय समज की सोच के विपरीत थी। उस ने प्रस्ताव रखा "चलिए, आप को घर छोड़ दूँ। मैं चमकी। प्रश्न उभरा "क्या जान बूझकर दिया गया न्यौता है? ताकि कुछ और पल मेरे साथ बिता सके? दूसरा 'चिंतन भी उभरा " या मेरा ही मन बन्दर की तरह उछलकूद कर रहा है? मनचाहे अर्थ निकाल रहा है?

मगर........

मनचाहे पल मुझे भी तो चाहिए थे। मैं क्यों इंकार करूँ? लक्ष्मी के आने पर मुंह धोने जाना कहाँ की समजदारी है? ये सब मैं तब सोच रही थी जब की मैं गौर कर चुकी थी। प्रस्ताव रखने के बाद उस ने मित्रों की ओर 'विजयी मुस्कान' उछाली थी। मगर, मनचाहा साथ पाने की तमन्ना इतनी तीव्र थी की अर्थ-घटनों की गहराई में जाना उचित न लगा। मनचाहा साथ मिल रहा था सो पाने की दिशा में आगे बढ़ गई।

गुजराती कहानी 'मनगमतुं' का अनुवाद

मूल लेखिका > स्नेहा पटेल "अक्षितारक"

अनुवादक > महेश सोनी

मंगलवार, अप्रैल 3

प्रेम दीप [ग़ज़ल]

ग़ज़ल
प्रेम का दीप सनम दिल में जलाए रखना।
रोशनी पीता रहूँ प्यास जगाए रखना॥

शाम का सूर्य ख़ज़ाना लुटा देगा तुज पर।
देह के गाँव में बेटे को बसाए रखना॥

बाज़ से पंख से ही नाप सकोगे नभ को।
कोषिकाओं की तू मजबूती बढाए रखना॥

सुन, सफल होने का है सब से सरल रास्ता ये।
धीरे धीरे ही सही पांव चलाए रखना॥

फूल होकर बड़े इस बाग़ में ही खेलेंगे।
पुस्तकालय को किताबों से सजाए रखना॥

जुल्मी जलयान का साम्राज्य मिटने के लिए।
सत्य के नाव से तीरों को चलाये रखना॥

दीप खतरे में है गहरा रही काली आँधी।
हिंद के दुश्मनों पे आँख गडाए रखना॥

क्रोध, आक्रोश ,जलन, द्वेष है ज़हरीले बीज।
खेत की मिट्टी को तू इन से बचाए रखना॥
कुमार अहमदाबादी

सोमवार, अप्रैल 2

ज्ञान बंदे

तपस्या के बिना सधता नहीं है ज्ञान बंदे।
अगर सध जाए टिकाना नहीं आसान बंदे॥

गगन के पार ले जाए जो, हैँ वो सारथि कौन?
दशमलव, शून्य उड़ाते हैं वायुयान बंदे॥

लगाते पार वो मल्लाह, नैया को जो लहरों;
दिशाओँ, वायुओँ से रखते हैं पहचान बंदे॥

पसीना नींव में सिमेन्ट के संग गर भरा जाए।
इमारत बनती अपने आप आलिशान बंदे॥

जड़ें जब मातृभाषा से जुड़ी हों गहरे तक।
कोई संस्कृति कभी खोती नहीं पहचान बंदे॥

विधि लंबी है बीजों से सही इंसान तक की।
पिता औ' माँ को बनना पड़ता है किसान बंदे॥

ग़ज़ल एवं सफ़र आरंभ होते पूर्ण होते।
है मत्ला कोख एवं मक्ता है शमशान बंदे॥
कुमार अहमदाबादी

प्यार प्यार प्यार

झुकाके 'यूँ,' नज़र; स्वीकार होता है।
अदा से, प्यार में इकरार होता है॥...झुकाके

सुहाना आसमाँ, लगती धरा प्यारी।
गुलोँ, कांटो से, सबसे प्यार होता है॥...झुकाके

नदी की धारा में, नभ की गहनता में।
सदा, मन खोने को तैयार होता है॥...झुकाके

न पूछो हौसला होता है कितना, जब।
दिलों में प्यार बेशुमार होता है॥॥...झुकाके

नहीं सह सकता मन, इक पल की भी दूरी।
विरह का अर्थ कारागार होता है॥...झुकाके

न होता रास्ता प्रेमी के लिए अन्य।
वो या इस पार या उस पार होता है॥...झुकाके

बता दूँ! प्यार क्या क्या रंग लाता है।
कवि बनता वो, जो 'कुमार'होता है॥...झुकाके
कुमार अहमदाबादी

श्रृंगार

तुम अनुपम मनमोहक हो ये मैं नहीं कहता तुम्हारा मन लुभावन रुप  तुम्हारा गंगा जैसा पवित्र श्रंगार कहता है वो श्रंगार ये भी कहता है कि वो प्यार ...