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रविवार, जून 17

सोने में खुशबू



खुशबू होती सोने में तो
सोचो क्या क्या होता
खुशबू होती फूलों सी तो
सोचो क्या क्या होता

खुशबू होती सोने में तो,
धन कहाँ है कभी किसी को
कभी बताना ना पड़ता
खुशबू अपने आप बताती
धन छिपा तिजोरी में

खुशबू होती सोने में तो,
खुशबू ही कसौटी बनती
खुशबू से ही जाँचा जाता
सोना जितना शुद्ध उतनी
खुशबू होती सोने में

खुशबू होती सोने में तो,
परखा जाता दूर से ही
तस्करी न होती ईस की
कर दफ्तर से छुप न सकता
खुशबू आती सोने से

खुशबू होती सोने में तो,
सोने से जब नारी लदती
खुशबू जाती दूर तलक
नारी सुंदर हो ना हो पर
खुशबू आती 'सीने' से

खुशबू होती सोने में तो
सोचो क्या क्या होता
कुमार अहमदाबादी

तपना पड़ेगा,

हेम हूँ तो क्या हुआ तपना पड़ेगा,
हार बनने के लिए गलना पड़ेगा.

संग को गर मोल अपना है बढ़ाना.
रूप मूरत का उसे धरना पड़ेगा.

नार नखरेदार हूँ मैं,पी न माने,
मन लुभाने के लिए सजना पड़ेगा.

भोर शीतल, शाम शीतल ,मध्य कैसा,
दोपहर में भानु सा तपना पड़ेगा.

जिन्दगी ये हर घडी लेगी परीक्षा ,
जो न दे उस को सदा मरना पड़ेगा.

मंज़र एक दिन(गज़ल)











  

  

हम ज़माने को दिखायेंगे वो मंज़र एक दिन
मुठ्ठियों में कैद कर लेंगे समंदर एक दिन

लो  कला के दीप की आराधना के तेल से
यूँ जलाएँ, रोशनी छू ले वो अम्बर एक दिन

क्या मिलेगा ज़िन्दगीभर हादसों से जूझकर?
वो बुलंदी चाहता था, जो सिकंदर एकदिन

रेत में इतनी खिलाएं, हम गुलों की क्यारियां
हो न कल विश्वास ये, थी भूमि बंज़र एक दिन

चेत जाएँ देखकर, नेपाल के अंजाम को
हिंद को, वर्ना चुभेगा लाल खंज़र एक दिन

"भीड़वादी राज" करवाता है कितनी तोड़फोड़
सच कहे इतिहास सचमुच, हम थे बंदर एक दिन

अग्नि, घोरी, हत्फ, या ब्रह्मोस को हम तोड़ दें
द्रश्य वर्ना, ये दिखायेंगे भयंकर एक दिन

दोस्तों ने, यूँ तराशा है हुनर तेरा "कुमार"
अब ग़ज़ल तुज को बनाएगी सिकंदर एक दिन
कुमार अहमदाबादी 

शुक्रवार, जून 15

ग़ज़ल [जला है ना जलेगा कोई]

ये दावा  ज्योत के दीवाने करते हैं, हमारे दीये  के पश्चात अब दीया जला है ना जलेगा कोई
ये समझाओ कोई दीवानों को की चाँद तारे या सितारे क्या है सूरज सा जला है ना जलेगा कोई

न जाने क्यों व कैसे ये गलतफहमी हो गई लोगों को, की इक बार भर देंगे तो जीवनभर चलेगा पर
दीये को प्रज्वलित रखने के लिए तेल चाहिए सदा बिन तेल के दीया जला है ना जलेगा कोई

जगत में चंद व्यक्ति ऐसे हैं जो कालिमा से प्यार करते हैं वे अंधेरों में जीये हैं व जीयेंगे
उजालों में जिन्हें आना ही ना है उन के मन को जगमगानेवाला दीया ना जला है ना जलेगा कोई

हजारों दीयों ने रोशन किया है विश्व को ईसा मसीह गुरू नानक अषो जरथुष्ट्र गाँधी बुद्ध
विवेकानंद एडीसन से दीये भी जले हैं कैसे हम ये मान लें दावा जला है ना जलेगा कोई

बहुत से लोग पूजा चाँद की करते हैं हिन्दू और मोमिन भी मगर हमने सदा सूरज को पूजा है
जले हैं सूर्य किरनों की अगन में ईस कदर की ईतना सा तुम जान लो हम सा जला है ना जलेगा कोई
कुमार अहमदाबादी

बुधवार, जून 13

सवाल

थी ये दुनिया पहले भी इस्लाम से,
जी रहें हैं वे भी जिन की श्रद्धा नहीं श्रीराम पे,
   थी ये दुनिया पहले भी श्रीराम से,
   जी रहें हैं वे भी जिन का इमां नहीं इस्लाम पे ,
    तो, फर्क क्या लाया ये मज़हब कोई ये समजाये मुज को,
    मिला हैं क्या इस मज़हब से कोई ये बतलाये मुज को,

साँस बिना ना जीवन था, साँस बिना ना जीवन है,
बचपन बाद यौवन था ,बचपन बाद यौवन है,
वन से पहले यौवन था, वन से पहले यौवन है,
धर्म बिना भी जीवन था, धर्म बिना भी जीवन है,....... .... तो फर्क क्या लाया ये

द्वेष को अग्नि जलती थी, द्वेष की अग्नि जलती है,
समरांगण खून पीते थे, समरांगण खून पीते हैं ,
खंज़र पीठ में लगते थे, खंज़र पीठ में लगते हैं,.................तो फर्क क्या लाया ये

पंखो में परवाज़ थी, पंखो में परवाज़ है,
सरगम में झनकार थी, सरगम में झनकार है,
कलम में बागी आग थी, कलम में बागी आग है,
रूप में इक अंदाज़ था, रूप में इक अंदाज़ है,......................तो फर्क क्या लाया ये

रत्नाकर में लहरें थीं, रत्नाकर में लहरें हैं,
रंग बदलते चेहरे थे, रंग बदलते चेहरे हैं,
रस के लोभी भंवरे थे, रस के लोभी भंवरे हैं,
सर पे सजते सेहरे थे, सर पे सजते सेहरे हैं,....................तो फर्क क्या लाया ये

भूख उदर को लगती थी, भूख उदर को लगती है,
तन में तरंगे उठती थी, तन में तरंगे उठती है,
बाग में कलियाँ खिलती थीं, बाग में कलियाँ खिलती है,
ममता की गंगा बहती थी, ममता की गंगा बहती है,.........तो फर्क क्या लाया ये,
कुमार अमदावादी

खो गया

आदमी सो गया।
राख में खो गया॥

साँस थी बोझ पर।
अंत तक ढो गया॥

भोर से शाम तक।
हँसकर वो गया॥

नैन टकराये यूँ।
हादसा हो गया॥

खुशबू देने का गुण।
फूल में बो गया॥

क्या पता कितनों की।
मौत पे रो गया॥

भीड में सच कहाँ?
जाने कब खो गया॥

शब्द में छंद में।
भाव पिरो गया॥

शब्दरथ का 'कुमार'।
सारथी हो गया
कुमार अमदावादी

जब जब बुलाएँगे गीत तेरे

जब भी बुलायेंगे गीत तेरे
चला मैं आऊँगा मीत मेरे
कभी मैं आऊँगा बन के यादें
कभी मैं आंसु बन टपकूंगा
औ...र शबद की धारा बनके
कलम से स्याही बन के बहूंगा...जब

गंगा जमना बनके प्यारे
संगम में न मिल सके तो
बन के सावन भादो सजनी
बादल में हम बस जाएँगे
जीवन पथ पे चल के प्यारे
इक दूजे के हो न सके तो
बन के खुशबू फूलों की हम
फूलों में ही बस जाएँगे...जब

चहकेगी जब यादों की कोयल
सूर लहराएँगे जैसे पायल
इक इक घुंघरूं ये कहेगा
पूछो ना ये क्युं हैं घायल
बरसेगी घनघोर घटायें
रोयेगी शिव की जटायें
रो रो के वो ये कहेगी
पूछो ना क्युं रोये कोयल...जब
कुमार अहमदाबादी 

श्रद्धांजली

फूल सी जिंदगी जी गई।
खुशबू से तरबतर कर गई॥

ध्रुव तारे सा जीवन जी कर।
सब को यादें मधुर दे गई॥

कर्म करना ही है जिंदगी।
कार्यों से सिद्ध तुम कर गई॥

आग में क्यों नहाना पड़ा?
फाँस कब कौन सी चुभ गई?

द्वार मनपीर के खोले बिन।
प्रश्नों के जाल कई बुन गई॥

पीर अक्सर ज़हर बनती है।
शीव बन हँस के विष पी गई॥

उम्रभर माली रोता रहे।
बरखा ऋत भेँट में दे गई॥

हम सिचेंगे कमल औ' गुलाब।
फूल दो प्यारे जो छोड़ गई॥

उम्रभर भर न पाएँगे हम।
शून्य सा शून्य जो छोड़ गई॥
कुमार अमदावादी

जला दो

अब लाश को जल्दी से जला दो।
कर्तव्य ये आखरी निभा दो॥

करना कुछ चाहते हो गर तुम।
बदनामी के दाग को मिटा दो॥

अब गई गुजरी से तोड़ नाता।
अश्रुओँ में याद को बहा दो॥

एकांत की आग में झुलसना।
जालिम दिलबर को ये सजा दो॥

है इश से ये अर्ज देश पर से।
आतंक के साये को हटा दो॥

तालीम ये सब को देनी होगी।
कि शूल को मूल तक मिटा दो॥

कानून को खोखला जो कर रही।
दीमक मिट जाए वो दवा दो॥

बस बात ये कहना चाहे 'कुमार'।
अच्छाई को तुम सदा हवा दो॥
कुमार अमदावादी

भाग हूँ मैं

स्वयं को न पहचान पाया जो; वो भाग हूँ मैं।
पड़ा महँगा ये भूल जाना मुझे; नाग हूँ मैं॥

जला सकती हूँ बेवफ़ा को, स्वयं जल रही हूँ।
शमा के मुलायम ह्रदय में लगी, आग हूँ मैं॥

अहिंसा के कारन, खो दी; चार सिंहो ने ताकत।
था उपवन कभी, आज; उजडा हुआ बाग हूँ मैं॥

मिटा दो सभी पर्व भारत के; जारी है षड़यंत्र।
विरासत के वटवृक्ष से, झड रहा फ़ाग हूँ मैं॥

लड़ाई लड़ी ना कभी, जो करे आर या पार।
हुआ बारहा मैं अधिन, सच कहूँ; झाग हूँ मैं॥

परायों के कब्जे में हूँ, ये तडप मेरी; समझो।
छुडाओ मुझे, क्योँ कि: भारत का भू-भाग हूँ मैं॥
कुमार अमदावादी

माँ का घर

माँ का घर छूटा है जब से।
जग सारा रुठा है मुज से।


घर क्या छूटा दुनिया छूटी।
सुख दुख और खुशीयाँ रुठी।


सच कहता हूँ मैं ये माता।
रुठ गया है मुज से विधाता।


माँ .... मे........री माँ
माँ.... तू... है कहाँ

बाग रूठा, माली रूठा, गुलशन के सब फ़ूल रूठे
अपने रूठे, बेगाने भी, रूठ गए है अनजाने भी..माँ

सूरज रूठा, चन्दा रूठा, नभ के सारे तारे रूठे,
धरती रूठी, आसमाँ भी, रूठ गया है वो खुदा भी...माँ

संध्या रूठी, उषा रूठी, घडी के सारे कांटे रूठे,
रात रूठी, दोपहर भी, रूठ गई है देखो हवा भी,.......माँ

आग रूठी, पानी रूठा, साराजीवन-चक्र रूठा
मौत रूठी, जिंदगी भी,रूठ गई है बंदगी भी .. .......माँ
कुमार अहमदाबादी 

घास हरी या नीली

*घास हरी या नीली* *लघुकथा* एक बार जंगल में बाघ और गधे के बीच बहस हो गई. बाघ कह रहा था घास हरी होती है. जब की गधा कह रहा था. घास नीली होती है...