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मंगलवार, अक्तूबर 23

प्रेम तृप्ति

तृप्ति के सागर में बहने दो
मादक तीर की चुभन सहने दो

रोको ना साजन तुम, अधखुली
आँखों को फरमाइश करने दो

यौवन कुंभो पर बेसब्री छाई
मर्दन से यौवन गढ़ ढहने दो

जुल्फों ने पी ली है रस मदिरा
पागल सी हँसती है हँसने दो

होठों को अरमाँ है गहनों का
होठों को होठों पर सजने दो

नस नस वीणा सी झंकृत कर दो
सांसो की बांसुरी बजने दो

मीठी मीठी प्यारी प्यारी सी
रस मिलन माधुरी चखने दो

उफ़, कितना अच्छा लगता है ये
धीरे धीरे कंपन सहने दो

साजन तृप्ति शिखर पर है अब
स्वर्णिम रस झरने को झरने दो
कुमार अहमदाबादी

बुधवार, अक्तूबर 17

प्रणय की गहराई

 
मुझे ये चित्र बहुत काव्यात्मक लगा। ये चित्र अपने आप में ग़ज़ल सी मधुरता समेटे हुए है। चित्र में प्रदर्शित पृष्ठभूमि, भाव-मुद्रा, रंग संयोजन काफी अर्थपूर्ण हैं। आइये इस चित्र की गहराई में डूबकर रसानंद लें।

चित्र को सर्वप्रथम प्राथमिक द्रष्टि
से देखते हैं। चित्र प्रेमी युगल का है। युगल समंदर किनारे प्रणयमुद्रा में मस्त है। पुरुष स्त्री को थामे हुए है। दोनों एक दुसरे की आँखों में आंखे डाले प्रणयोन्माद में खोये हुए हैं। शारीरिक संतुलन लाजवाब है। दोनों के वस्त्र श्वेत हैं। पृष्ठभूमि में समंदर, आकाश तथा क्षितिज नजर आ रहे हैं।

आइये अब जरा गहराई में जाते हैं।

स्त्री कोमल होती है। स्त्री [मादा] ज्यादातर उसे थाम सकनेवाले, उसे संभाल सकनेवाले पुरुष की तलाश में रहती है। स्त्री उसे थामनेवाले पुरुष को [नर को] तन मन समर्पित करती है। यहाँ पुरुष की बाँहों में खोई स्त्री के बदन में एक बेफिक्री है। युगल की मुद्रा, चेहरों के हावभाव संकेत देते हैं कि दोनों के मन बदन में प्रणय लहरें उठ रही हैं। स्त्री का हवा में उठा पैर दर्शाता है कि दोनों चरम सीमा प्राप्त करने के लिए 'उडान' भर चुके हैं। श्वेत रंग सुलह,शांति, एकाग्रता, समझौते एवं पवित्रता का प्रतिक है। अब गौर कीजिये दोनों के वस्त्र श्वेत हैं। वस्त्र सूचित कर रहे हैं। दोनों पवित्र कार्य में व्यस्त हैं। ये सच भी प्यार कोई गुनाह नहीं। सच्चा प्यार प्रार्थना से कम पवित्र नहीं होता। दोनों के वस्त्रों में कोई दाग नहीं है। जो सूचित करता है कि युगल पवित्र है। श्वेत रंग समझौते व समर्पण का प्रतिक भी है। आप को पता होगा युद्ध के दौरान समझौते या समर्पण के लिए श्वेत ध्वज लहराया जाता है। यहाँ संकेत ये है कि दोनों एक दुसरे के समक्ष जो समर्पण कर रहे हैं। स्वेच्छा व आपसी सहमती से कर रहे हैं।

अब पृष्ठभूमि व उस के रंगों के बारे में समझने का प्रयास करते हैं। समंदर व नीला रंग गहराई का प्रतिक है। आकाश का रंग भी नीला होता है यानि नीला रंग विशालता तथा अनंतता का प्रतिक भी है। फोटोग्राफर शायद ये दर्शाना चाहता है कि सच्चा प्यार समंदर सा गहरा तथा आकाश सा विशाल व अनन्त होता है। युगल कि तन्मयता व पृष्ठभूमि का रंग कह रहे हैं। सच्चे प्यार के भावों में गहराई व विशालता होती है। जहाँ धरती व आकाश मिलते हुए दिखाई देते हैं उस रेखा को क्षितिज रेखा कहा जाता है। याद रहे वो मिलन दिखाई देता है होता है या नहीं आप अच्छी तरह जानते हैं। इस चित्र में क्षितिज रेखा के पास समंदर का नीला रंग गहरा हो गया है। मिलन की घड़ियों में 'रंग' 'गहन' हो ही जाता है।


आखिर में चित्र के उस हिस्से कि बात करते हैं। जहाँ ये 'मिलन' हो रहा है। वो है समंदर की रेत। रेत यानि धरती। व्यक्ति वास्तविकता की भूमि पर रहें, वास्तविक सोच रखे तो ही प्रणय साकार होता है।

सार देखें तो,
वास्तविकता के धरातल पर साकार होनेवाला प्रणय हमेशा पवित्र, संतुलित, गहरा और विशाल होता है।
महेश सोनी / कुमार अहमदाबादी

सोमवार, अक्तूबर 15

कौन हूँ मैं क्या लाया हूँ

 कौन हूँ मैं और क्या मैं लाया हूँ
जाउँगा तो छोड़ के क्या जाउँगा

धरा हूँ मैं परिवार ले के आई हूँ
जाउँगी तो शून्य छोड़ के जाउँगी
 
हवा हूँ मैं साँस ले के आई हूँ
जाउँगी तो विनाश छोड़ के जाउँगी
 
 
पानी हूँ मैं जीवन ले के आया हूँ
जाउँगा तो मौत छोड़ के जाऊँगा
 
 
जीव हूँ मैं शरीर ले के आया हूँ
जाउँगा तो यादें छोड़ के जाउँगा
 
 
फूल हूँ मैं रुप ले के आया हूँ
जाउँगा तो खुशबू छोड़ के जाउँगा
शून्य हूँ मैं गणित ले के आया हूँ
जाउँगा तो उलझन छोड़ के जाउँगा
 
वक्त हूँ मैं इतिहास ले के आया हूँ
जाउँगा तो इतिहास छोड़ के जाउँगा
 
 
ज्ञान हूँ मैं शांति ले के आया हूँ
जाउँगा तो अशांति छोड़ के जाउँगा
 

'कुमार' हूँ मैं विचार ले के आया हूँ
जाउँगा तो शब्द छोड़ के जाउँगा


कुमार अहमदाबादी

जिन्दगी



जिन्दगी प्यार है
प्यार संसार है


गुदगुदाए सदा
मीठी तकरार है


रोक दे वंश को
तेज तलवार है

क्या हुआ आज क्यों?
धार बेकार है

पाक ये प्रेम है
गुल हिना खार है

हार में जीत है
जीत में हार है

छंद लय सी मिलीँ,
साँसें दो चार है

दाम मत पूछना
ये न बाजार है

ये हिमालय तो है
साथ ही थार है


देख ना यूँ सनम
आँख तलवार है

आज भी यार की
साँस से प्यार है


रंग में डूबी है
साँस दिलदार है
कुमार अहमदाबादी/निकेता व्यास

ज्ञान गंगा




यहाँ की ज्ञान-गंगा में समंदर डूब जाते हैं
 ये भारत है यहाँ आकर सिकंदर टूट जाते हैं

मधुशाला को शब्दों में मिलाकर जो पिलायेँ तो,
हठीले जुल्म के हाथोँ से खंजर छूट जाते हैं
 

कला की साधना का दौर ब्रह्मानंद देता है
सुहाने श्वेत काले सारे मंज़र छूट जाते हैं

स्वदेशी स्टोर में फल देशी मुझ को बेचकर, देखो
नफा सारा विदेशी बन के बंदर लूट जाते हैं
कुमार अहमदाबादी

गुरुवार, अक्तूबर 11

नाग हो तुम,


 जानता हूँ मैं सनम ये नाग हो तुम
डंख मारे चोंच से वो काग हो तुम

खोखला दावा वफ़ा का है तुम्हारा
एक पल मैं बैठ जाता झाग हो तुम


चाँद का दर्जा दिया है तुमने मुज को
श्वेत दामन में लगा इक दाग हो तुम


  जो गिराएँ एक पल में लाख लाशें
खून पी के जो पला वो भाग हो तुम

 जब सुनें तो झुंझलायें कोषिकाएँ
लय से भटका बेसुरा इक राग हो तुम

 घर हजारों खाक तुमने कर दिए हैं
रूप की तीली में सिमटी आग हो तुम


 कोख को बरसात में भी भर सके ना,
खिल सका ना जो कभी वो बाग़ हो तुम.
कुमार अहमदाबादी

बुधवार, अक्तूबर 10

आह

ये जख्मी दिल से निकली आह है।
कोई न हो उस का मन में चाह है।
गर एक भी खुशी मिली बेवफा को,
तो,ईश्वर से भी टकराने की राह है।
कुमार एहमदाबादी

रविवार, अक्तूबर 7

भाग्यशाली [ग़ज़ल]

बहुत हूँ भाग्यशाली क्योंकि भाता हूँ सनम को मैं।

कुशल वो माली, पलकों पे बिठाता हूँ सनम को मैं॥

हाँ, मैं स्वीकार करता हूँ कि मैं; चोरी भी करता हूँ।
लबों पे मीठे लब रखकर चुराता, हूँ सनम को मैं॥

नहीं है चांदी मेरे पास, सोना भी नहीं है पर।
पकाके खाना हाथों से खिलाता हूँ सनम को मैं॥

तू शीतल चाँद से भी; सूर्य सी तेजस्वी आभा है।
प्रशंसा के हिंडोले पे, झुलाता हूँ सनम को मैं॥

घडा सिंगार रस का सजनी, पीता हर घडी पल और।
घडे को प्याली में भर भर, पिलाता हूँ सनम को मैं॥

ग़ज़ल है तेरी सौतन, प्रेरणा हो तुम ग़ज़ल की यार।
हो तुम दोनों जीवन साथी चिडाता हूँ सनम को मैं॥

हवा की चाल बदली बदली आती है नजर ज्यों ही।
गुलाबी शेरों के द्वारा मनाता हूँ सनम को मैं॥

दिये हैं भेंट में दो पुष्प: यूँ उपवन है महकाया।
सुनो जी बबलू की मम्मी, बुलाता हूँ सनम को मैं॥

विजयश्री पाक के विरुद्ध, जब जब प्राप्त होती है।
नगर में फटफटीये पे घुमाता हूँ सनम को मैं॥

जहाँ भी हैं व जैसे भी हैं इक दूजे को प्यारे हैं।
निभाती है वो प्रीतम को, निभाता हूँ सनम को मैं॥
कुमार अहमदाबादी

आजकल [ग़ज़ल]


खतरे में हम हैं घंटी बजाते हैं आजकल
खंजर से प्यार करना सिखाते हैं आजकल


तलवार को खुशी हो रही है मिलेगा काम
इंसान तेज धार लगाते हैं आजकल


बुलेटप्रूफ कमरों में बैठे हैं शख्स वे
खतरों से खेलना जो सिखाते हैं आजकल

सब कुछ बड़ा हो ज्यादा हो है सूत्र आज का
बम द्वारा खून ज्यादा बहाते हैं आजकल


जाने न गाँव को धरा को इंसा को मगर
राष्ट्रीय नीतियाँ वे बनाते हैं आजकल

मालीपने को भूल गये माली इसलिए
फूलों को छोड़ काँटे खिलाते हैं आजकल


डो, रे, मी के अलावा जिसे कुछ न भाता है
सब को स्वदेशी राग सुनाते हैं आजकल
कुमार अहमदाबादी

घास हरी या नीली

*घास हरी या नीली* *लघुकथा* एक बार जंगल में बाघ और गधे के बीच बहस हो गई. बाघ कह रहा था घास हरी होती है. जब की गधा कह रहा था. घास नीली होती है...