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गुरुवार, नवंबर 15

संगम (जय ईसु कृष्ण)

ईस दोस्ती को तोड़ दे किस में वो दम है
ये दोस्ती दोस्ती नहीं धाराओँ का संगम है
कुमार अहमदाबादी

पहेली

लोक नजर पहेली है
कवि की कौन सहेली है
शब्दों में राज़ ये कह दूँ
कविता बड़ी अलबेली है
कुमार अहमदाबादी

सवालों के जवाब

जिन्दगी से जुडे कुछ सवालों के उत्तर किताबों में नहीं मिलते।
दोस्त सुन ईत्र भंडार कागज पे चित्रित गुलाबों में नहीं मिलते।
कुमार अहमदाबादी

सोमवार, नवंबर 12

चोरी

आँखों से सुरमे की चोरी कल होती थी।
आज तो आँसु भी चोरी हो जाते हैं॥

शब्द; जिन्हेँ माँ की गोद मिल जाती है।
छाँव पाकर, मधुर लोरी हो जाते हैं॥

शौक गद्दी का, खूँखार होता बड़ा।
सभ्यता छोड़ सब घोरी हो जाते हैं॥
खाने पीने का फरमाते हैं शौक जो।
देखते देखते बोरी हो जाते हैं॥
कुमार अहमदाबादी 

न खेलो सनम

आग से यूँ न खेलो सनम हाथ अपना जला लोगे।
ईश्क का ईम्तहाँ लेने में प्यार अपना गंवा दोगे॥

हमसफर साथ हो तो कटेगा सफर कामयाबी से।
लक्ष्य पाने से पहले सफर काटने का मजा लोगे॥

स्वप्न प्रासाद जब टूट जाये तो मत रोना, क्या! क्यों कि।
रोने से होगा क्या! रो के प्रासाद फिर से बना लोगे?
ना करो शर्म मेरे सनम, प्यार स्वीकार कर के तुम।
फूलों से धरती को सपनों से आसमाँ को सजा लोगे॥

सांसो से रिश्ता जोड़ा है संभव नहीं छोड़ दे 'कुमार'।
लाख कोशिशें कर के गुलों से महक क्या हटा लोगे?
कुमार अहमदाबादी 

भाव शून्य

ईन्सां को यहाँ क्युं ढुंढ रहे हो
उस का पता क्युं पूछ रहे हो
रहता नहीं अब ईन्सां यहाँ
भाव शून्य है अब ये जहाँ..ईन्सां

फूल लुटते कुचले जाते
चौराहोँ पे मसले जाते
पानी कम व खून ज्यादा
आज जहाँ के लोग बहाते..ईन्सां

जिम्मेदार ही चोर बनते
राजा उन को छत्र धरते
मिल बाँट के पैसा खाते
बैंक झूठे झूठे खाते..ईन्सां

लक्ष्मी की सब पूजा करते
गृहलक्ष्मी को आग लगाते
दान दहेज की भिक्षा से
घर अपना जो आज सजाते..ईन्साँ

न्यायतुला व थर्मोमीटर
ये भी बनने लगे हैं चीटर
काले कोट का क्या कहना
काला रंग बना है गहना..ईन्साँ

सूनामी या बाढ़ की विपदा
भूकंप जैसी कोई आपदा
सब को अब ये मौका बनाते
मौकों से ये घर भर लेते...ईन्साँ

जिस के सर पे नेता टोपी
नीयत उस की सब से खोटी
ये ही है वो काँटा जिस ने
सच की कर दी बोटी बोटी...ईन्साँ
कुमार अहमदाबादी 

जला डाली

मीटता नहीँ इतिहास अग्नि से चाहे।
आपने मेरी सारी चिट्ठियाँ जला डाली॥

गुजरे पलों से यूँ टूटता नहीं रिश्ता।
बामियान में चाहे मूर्तियाँ जला डाली॥

चाँद को सज़ा मिलेगी जरूर मिलेगी।
चाँद ने हमारी रूबाइयाँ जला डाली॥
है गुनाह ये माफी ईस की नहीं होती।
आपने हसीं सुंदर कृतियाँ जला डाली॥

संघर्ष दिलों जां से जिस के लिए किया था।
स्वलहू ने ही देखो हड्डियाँ जला डाली॥

जो सकून के किनारे उतार देती वे।
कट्टरों ने वे सारी कश्तियाँ जला डाली॥

न्याय पालिका सूर्य की रही सदा न्यायी।
दो पलों में अन्यायी शक्तियाँ जला डाली॥
कुमार अहमदाबादी 

कलम के सिपाही

कलम के सिपाही हम है, दुश्मन की तबाही हम हैं।
पी.एम. के भाई हम है, परबत व राइ हम हैं ।.... कलम के

सत्य की शहनाई और जूठ की रुसवाई हम हैं।
शब्द की सच्चाई और अर्थ की गहराई हम हैं..... कलम के

चिंतक का चिंतन और दर्शन का मंथन हम हैं।
धर्मों का संगम और एकता का बंधन हम हैं ... कलम के

विचार की रवानी और घटना की जुबानी हम हैं।
जीवन की जवानी और जोश की कहानी हम हैं...कलम के

रचना की खुद्दारी और भाषा के मदारी हम हैं।
प्याले की खुमारी और हार-जीत करारी हम हैं....कलम के

पेट की लाचारी और मानसिक बीमारी हम हैं।
ममता एक कंवारी और जिम्मेदार फरारी हम हैं....कलम के

रूप के शिकारी और वीणा के पुजारी हम हैं।
दुल्हे की दुलारी और मीरा के मुरारी हम हैं....कलम के

प्रेम की पुरवाई और जानम की जुदाई हम हैं।
तन्हाई में महफ़िल व महफ़िल की तरुणाई हम हैं.... कलम के

सपनों के रचैता और अर्थ हीन फजीता हम हैं।
भावों की सरिता और 'कुमार' की कविता हम हैं... कलम के

[ये कविता तब लिखी गई थी जब बाजपाईजी पी.एम. थे]
[आज सी.एम. {नरेन्द्र मोदी} लिखा जा सकता है]
कुमार अहमदाबादी 

शनिवार, नवंबर 10

कंक्रीट के पहाड़

आज कल कंक्रीट के पहाड़ों में रहते हैं
सुनिए सब हम कैसा जीवन जीते हैं

दो रोटी के लिए जानवर सा भटकते हैं
चैन की दो साँस को हमेशा तरसते हैं

जब भी दो कदम तरक्की करते हैं
पडोशी की आंख में हमेशा खटकते हैं

तन्हाई में तो शेर बन के गरजते हैं
मज़बूरी के सामने कत्थक करते हैं

सिंहासन-क्रांति के मौके तो मिलते है
पर चुनाव से चाणक्य कहाँ पैदा होते हैं?

कहे कुमार सुनो ये जीवन के रास्ते हैं
यहाँ जीवन नहीं, मौत के दाम सस्ते हैं
 कुमार अहमदाबादी

खाली प्याली

शब्दों को भावरस में डूबोकर
ग़ज़ल कही पर ताली न मिली
करम किया ईतना महफिल ने
कभी किसी से गाली न मिली

शादी के बंधन में बँध गया पर
छेड़ करे जो वो साली न मिली
भूखा न रखा तकदीर ने चाहे
बत्तीस पकवान की थाली न मिली

पूछे कोई जवाब तैयार थे मगर
हुस्न की अदा सवाली न मिली
रुप ने किया खूब सिंगार पर
चेहरे पे शर्म की लाली न मिली

रेगिस्तान में भटकता रहा मगर
प्यार की एक भी प्याली न मिली
बारहा 'कुमार' ने पुकारा मौत को
पर कभी कोई चिता खाली न मिली
 कुमार अहमदाबादी

सूर्य गीत

मुडें जब जब राहें तेरी...ओ मुडें जब (२)तो रुत का भी रुख पलटे के रुत (२) जिंद मेरी ये

तेरे आने से दिन ये आये ओ तेरे(२) के जाने से रात आये रे के जाने से(२) जिंद मेरी ये

कभी चाँद जो तुज पे छाए ओ कभी (२) तो अनहोनी हो के रहे रे क
े अनहोनी (२) जिंद मेरी ये

तेरे पीछे चले ये दुनिया ओ
तेरे पीछे (२) के भेद ये सब जाने रे के भेद(२)जिंद मेरी ये

तेरी इक करवट पे दुनिया ओ तेरी(२) ये थर थर थर कांपे रे के थर थर (२) जिंद मेरी ये

तू है राजा अपने घर का ओ तू है(२) के घर तेरा जग सारा रे के घर तेरा (२) जिंद मेरी ये

चाहे हिन्दु हो या मुसलमाँ ओ चाहे(२) के धूप तेरी सब पे आए रे के धूप(२) जिंद मेरी ये

अरे नाम तेरा सब जाने अरे नाम(२) के नाम तेरा रवि है रे के नाम (२) जिंद मेरी ये 
कुमार अहमदाबादी

ध्यान से

जो कहूँ वो बात सुनना ध्यान से।
बात कहना चाहता हूँ शान से॥
जो न बहके, साथ मेरे तू सनम।
फायदा क्या नैन मदिरा पान से॥
फूल से, माली को डरता देखकर।
आस क्या हो? आज की संतान से ॥
क़त्ल करके आदमी को आदमी।
फिर समाधि स्थल बनाता शान से॥
लूट के सौ आदमी, दे दान फिर।
मूछ देती ताव खुद पर शान से॥
शब्द टेढ़े हैं कटारी धारदार।
लाएँ न बाहर कटारी म्यान से॥
भूल छोटी सी बिगाड़े काम को।
माप ले के चीर फाड़ो थान से॥
फूल पे लाई जवानी वो बाहर।
रूप सारा झांकता परिधान से॥
गम न करना गर कभी जो भूल हो।
गलतियाँ होती यहाँ सुल्तान से॥
बारहा हो राज भटका वो 'कुमार'।
खोजता है रह फिर जी जान से॥
 कुमार अहमदाबादी

गुरुवार, नवंबर 8

सितारा

चाँद से टपककर रेत के कणों से कराती है चाँदनी
कणों से टकराकर दो आँखों में समाती है चाँदनी
नजारा तब रेत का बहुत प्यारा लगता है
एक एक कण रेत का सितारा लगता है
कुमार अमदावादी

मंथन

(1) सागर मंथन मोती देता
मंथन मन का विचार
(2) मंथन ईतना काहे करना
जीना जब दिन चार
(1)धरा का मंथन धान देता
मंथन नभ का विहार
(2) मंथन चाहे जितना कर लो
बस में नहीं कुछ यार

(1)भाव मंथन कविता देता
मंथन कला सिंगार
(2)मंथन में जो डूब जाता
कभी न पाता करार

(1)मंथन पल का सदियाँ देता
मंथन घर की बहार
मंथन जीवन चिंतन है
मंथन से ना बचना यार

(2) सागर मंथन विष भी देता
मंथन बस में रखना यार
मंथन चिंतन हो न हो पर
होती नैया गंगा पार
कुमार अमदावादी
दो पात्रों के बीच की चर्चा को काव्य रुप देने का प्रयास किया है।

उपवन का डर

खाद नहीं खून से सींचा, रिश्ता क्या वो अब टूटेगा?
नए रिश्ते में बँधने से क्या? साथी मेरा अब छुटेगा!!!

साथ जिस का पाकर मैंने, जिंदगी के रस को जाना।
जीवनभर के साथ का; वादा क्या वो अब टूटेगा?

नभ से तारे टूटेंगे व चाँद भी गुम हो जाएगा।
सूरज भी तब बुझ जाएगा; चाँद मेरा जब रुठेगा॥

माना वो भी लाठी है, गुलशन के दो माली की।
फ़र्ज़ अपना वो निभाएँ; हक मेरा ना पर छुटेगा॥

डर डर के ये सोचती हूँ, हाँ कहूँ या ना कहूँ मैं।
बाग अपना तू खिला पर; 'उपवन' से क्या तू रुठेगा?

जिंदगी की जं..ग में, हर पल जिस ने साथ दिया।
खास मोर्..चे पे आके, साथ क्या वो अब छुटेगा?

चाहे जो भी हो ए दोस्त; वादा मेरा तुज से है:
मनमंदिर में तू ही रहेगा, साथ तो तन का छुटेगा॥

जब जरुरत हो मेरी तू: याद मुज को कर लेना।
आउँगी मैं बन के हवा; जग सारा पीछे छुटेगा॥
कुमार अहमदाबादी 

नाकाम जीवन

सफर में हो गया मैं अकेला।
पथ में ठोकर खाने के बाद॥
देह को अब चिता चाहिये।
नाकाम जीवन जीने के बाद॥

खुद से मैं जुदा हो जाता हूँ।
दो घूंट ज़हर पीने के बाद॥
ज़हर से ही मिलेगी मंजिल।
नाकाम जीवन जीने के बाद॥

सच है कि किस्मत खराब है।
स्वीकार है दर्द सहने के बाद॥
सफ़र की तैयारी कर लूँ अब।
नाकाम जीवन जीने के बाद॥

कुछ नहीं कहना अब मुझे।
दिल के छाले फोडने के बाद॥
दुआ चाहिये सफर के लिये।
नाकाम जीवन जीने के बाद॥

किसी से नहीं कोई शिकायत।
अलविदा कह देने के बाद॥
उठाओ यारोँ अर्थी 'कुमार' की।
नाकाम जीवन जीने के बाद॥
कुमार अमदावादी

ईतिहास के छाले

ईस शहर में जीने के अंदाज निराले हैं।
होठोँ पे लतीफे हैं आवाज में छाले हैं॥

एक दो राहे पर यहाँ के जीनेवाले हैं।
दिल में राज है और होठोँ पे ताले हैं॥

त्रिशूल और तारा चल रहें चालें हैं।
जुबाँ पे शहद है विचारों में भाले हैं॥

ईस देश की राजनीती के जो साले हैं।
वोट के पक्के हैं शासन में बेताले हैं॥

जिंदादिली से जीते कुछ एसे जियाले हैं।
भरे दिखते पर खाली जिन के प्याले हैं॥

मेरे वतन के सच्चे जो रखवाले हैँ।
मन में लगन हैं पर पड़ गये ठाले हैं॥

'कुमार' ईलाज है? ये ईतिहास के छाले हैं।
कुछ फूट चुके हैं कुछ फूटनेवाले हैं॥
कुमार अहमदाबादी 

माँ की वेदना

रंग लाया है आज वो बारुद
तुमने जो मेरे सीने में उतारा था।
प्रयोग जिस पे तुमने किये और
सहे जिसने दिल वो हमारा था॥

क्या तुम जानते हो ये हकीकत?
विस्फोट चाहे वो तुम्हारा था।
आग मेरे तन में उतरी थी जब
तुमने 'विज्ञान' को निखारा था॥


न जाने कितने घाव दिये उस
बेटे ने जो सब से दुलारा था।
माँ हूँ ना कई बार किया मैंने
विनाश की ओर ईशारा था॥

मगर हर बार हाँ हर बार
ईतिहास को बेटों ने नकारा था।
ईसीलिये अब भुगतोगे बारहा
सुनामी तो एक छोटा सा नजारा था॥

जैसी करनी वैसी भरनी
घाव बोने का काम तुम्हारा था।
काटनी पड़ेगी वही फ़सल
जैसा खेत तुमने संवारा था॥
कुमार अहमदाबादी   

श्रृंगार

तुम अनुपम मनमोहक हो ये मैं नहीं कहता तुम्हारा मन लुभावन रुप  तुम्हारा गंगा जैसा पवित्र श्रंगार कहता है वो श्रंगार ये भी कहता है कि वो प्यार ...