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बुधवार, जुलाई 31

शोले बुझा दो

बिंदीया के मन सपन है प्यास मीठी जगा दो
साथी मेरे मन बदन के आज शोले बुझा दो

कस्तूरी सी महक मुज में काम्य काया कटीली
माधुरी को सजन घर की राजरानी बना दो
सोचो जानो बलम मन ये बावरा क्यों हुआ है?
   क्यों काया का कण कण कहे कंचुकी को सजा दो

काया वीणा छम छम करे घुंघरू के सरीखी
सारंगी सी सरगम झरे रागिणी वो बजा दो

  माली वो जो कई तरह के फूल प्यारे खिलाए
बागीचा है मन चमन में रातरानी खिला दो

कामिनी को अगन घर में छोड़ना ना अधूरी
दामिनी को दशमलव सी पूर्णता से मिला दो

चोटी को मै अब सजनवा, छू रही हूँ अदा से
प्राप्तिका सी मधु सरित सी रंग धारा बहा दो
कुमार अहमदाबादी



  

पहली बार

पहली बार चार पंक्तियाँ छंद में लिखी
और आँख से छंदबद्ध गंगा बह निकली
कुमार अहमदाबादी

गगन को

वीर तौलेंगे गगन को
स्वप्न चूमेंगे गगन को
हौसला ये जानता है
पंख छू लेंगे गगन को
कुमार अहमदाबादी

न हटाओ

मिट्टी पर से मख़मल ना हटाओ तुम
देह पर से चंदन ना हटाओ तुम
फटी पुरानी जैसी है पहचान है ये
अर्थी पर से कंबल ना हटाओ तुम
कुमार अहमदाबादी

मंजिल

लोग कहते हैं मेरी नजर मंजिल पर रहती है। 
जब कि मेरे घर से शमशान दिखाई देता है।
कुमार अहमदाबादी

प्रमाण पत्र

सीमा व पवन बेचैनी से इंतजार कर रहे थे। दोनों की नजर दरवाजे पर लगी थी। चंद पलों के बाद लेबर कम ऑपरेशन कक्ष का दरवाजा खुला।

लेडी डॉक्टर दोनों के पास आकर उन को बधाई देते हुए बोली "आप की इच्छा पूरी हो गई है। अनिता ने कन्या को जन्म दिया है। आप नाना नानी बन गये हैँ।"

सीमा व पवन मुस्कराते लगे। मुस्कराहट के बाद सीमा बोली "डॉक्टर साहिबा, हम नाना नानी नहीं: दादा दादी बने हैं।" एक पल हैरान व आश्चर्यचकित होने के बाद लेडी डॉक्टर की नजरोँ में प्रशंसा का सागर लहराने लगा।
कुमार अहमदाबादी

भूकंप को समर्पित

हमारी किस्मत से जला करो यारों
हमें खुद उपरवाला झूला झूलाता है

अर्पण

पूरे शहर में कवि बुद्धुराम चर्चा का विषय बना हुआ था। जिसे देखो बुद्धु के बारे में बात कर रहा था। उसे के कार्य पर टिप्पणी कर रहा था। कोई प्रशंसा कर रहा था तो, कोई ढोँगी सनकी कर रहा था। दरअसल उस ने कार्य
ही एसा किया था व्यक्ति से विरोध या समर्थन अपने आप हो जाता था। आप भी करेंगे।
उस ने किया क्या था?....

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 उस ने सासुजी को उन के देहावसान पर सिर के बाल अर्पण किये थे।
कुमार अहमदाबादी

बेटी री [राजस्थानी रचना]

जात ने तू क्यों मिटावे बेटी री
कोख ने क्यों चिता बणावे बेटी री

बेटी लछमी बेटी सरसूती है तोइ
क्यों भलाई तू न चावे बेटी री

भार कऴी पर नोखे क्यों बेसुंबार
जोन जल्दी क्यों जिमावे बेटी री

बेटे बेटी ने बराबर मोने तो
मरजी री शादी कराये बेटी री

भोऴे ने अरदास कर तूं रोज आ
चूंदडी ना कोई लजावे बेटी री
कुमार अहमदाबादी

मैं, मैं नहीं हूँ

मैं, मै नहीं हूँ
क्योंकि,
मैं
सोनी हूँ महेश हूँ द्वेष हूँ
... कवि हूँ लेखक हूँ निशेष हूँ..........

मैं
नागरिक हूँ भारतीय हूँ
गुजराती हूँ अहमदाबादी हूँ


मैं
राजस्थानी हूँ बीकानेरी हूँ
इंडियन हूँ एशियन हूँ

मैं
साहित्यकार हूँ कथाकार हूँ
वार्ताकार हूँ संगीतकार हूँ..........

मैं
पुत्र हूँ पिता हूँ पति हूँ
ससुर हूँ दादा हूँ नाना हूँ.......

मैं
दोस्त हूँ मित्र हूँ सखा हूँ
प्यार हूँ प्रणय हूँ परिणय़ हूँ

मैं
भाई हूँ जंवाइ हूँ वेवाई* हूँ
आर्य हूँ कार्य हूँ कर्ता हूँ

मैं ये सब तो हूँ पर इतना ही नहीं हूँ
और भी विस्तृत हूँ, जैसे जेठ, देवर हूँ

मैं वामन में विराट हूँ
पर मैं ये सब क्यों हूँ?
क्योंकि,
क्योंकि मैं इंसान हूँ
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कुमार अहमदाबादी

वेवाई > समधी (गुजराती में)

घास हरी या नीली

*घास हरी या नीली* *लघुकथा* एक बार जंगल में बाघ और गधे के बीच बहस हो गई. बाघ कह रहा था घास हरी होती है. जब की गधा कह रहा था. घास नीली होती है...