Translate

सोमवार, जुलाई 28

अकेलापन वैश्विक अभिशाप

अनुवादक - महेश सोनी 

 विश्व स्वास्थ्य संगठन की ये रिपोर्ट चौंकाने वाली है। दुनिया में प्रत्येक छट्ठा व्यक्ति अकेला है। दुनिया में करोड़ों लोग टूटे रिश्तों और संवादों के कारण अकेले अकेले संपूर्ण मौन का जीवन जी रहे हैं। ये मौन वाणी का नहीं है बल्कि भावनाओं का मौन है। भावनाओं का आदान प्रदान में शून्यावकाश छा गया है। व्यक्ति के भीतर का शून्यावकाश उसे निगल रहा है। जिस की आंखों और पंखों में नवयौवन का जोश उमंग होने चाहिए। वो नौजवान पीढ़ी इस समस्या का सब से ज्यादा शिकार हो रही है। जीवन जटिल हो रहा है। आगे अनेक चुनौतीयां है। विज्ञान एवं टेक्नोलॉजी के विस्तार के साथ साथ दो पीढीयों में दूरियां बढ़ी है। भौतिकवादी विचारों के कारण आकांक्षाएं आसमान को छूने लगी है। परंतु वास्तविकता के साथ संतुलन न होने के कारण हताशा व उदासी बढ़ रही है। एक फूल व कली एवं पेड़ पौधों के प्रित नहीं हो रही। एसे में कला, साहित्य या संगीत की क्या ही बात करनी। 

इस समस्या को बढ़ाने में मोबाइल का योगदान बहुत ज्यादा है। चमक दमक से छलकती दुनिया और उस का आकर्षण सुलभ नहीं है। लेकिन सब को लुभा रहा है। उस के कारण लोग निराशा व हताशा के शिकार हो रहे हैं। रानू मंडल व कच्चा बादाम के क़िस्से याद कर लीजिए। कहा जाता है सोशियल है मिडिया क्रांतिकारी ढंग से फैल रहा है। लेकिन वास्तविकता अलग है। व्यक्ति के सोशियल मिडिया पर हजारों मित्र हो सकते हैं। लेकिन वास्तविक जीवन में वह व्यक्ति अकेला होता है। इस सच को साबित करने वाले अनेक किस्से हैं। ये सांप्रत सत्य है। वर्चुअल मित्रों के कृत्रिम मैसेज व्यवहार हमारे जीवन की समस्याओं का समाधान नहीं कर सकते। कृत्रिम रिश्ते वास्तविक रिश्तों की बुनावट को मजबूत नही कर सकते। कृत्रिम संबंधों में वास्तविक रिश्तों जैसी मजबूती नहीं होती। आज लोगों के मन में ये मान्यता गहरे तक बैठ चुकी है कि जिस के पास पैसे हैं। वो कुछ भी कर सकता है। जब की एसा नहीं है। इस सत्य को तीन उदाहरण से समझ सकते हैं। सुनील गावस्कर, अमिताभ बच्चन एवं सचिन तेंदुलकर तीनों अपने पुत्रों को सफलता नहीं दिला सके। तीनों अपने पुत्रों को सफलता नहीं दिला सके। ये सच नहीं है। जिस के पास पैसा है। वो सबकुछ कर सकता है।

पहले परिवार के बुजुर्ग संकट के समय सदस्यों को संभाल लेते थे। वे एक परिस्थितियों के अनुसार मार्गदर्शन करते थे। सारे सदस्य साथ मिलकर संकट से लड़ते थे। जिस परिवार में पति पत्नि दोनों नौकरी करते हैं। वहां परिस्थितियां और ज्यादा विकट है। उन के बच्चे हॉस्टल में रहते थे। घर पर रहते हों तो भी ज्यादातर समय अकेले ही रहते हैं। कई घरों में माता पिता व बच्चे सिर्फ शनि रवि या छुट्टीयों के दिन ही बातचीत कर सकते हैं। ये परिस्थितियां धीरे धीरे अकेलेपन और डिप्रेशन की ओर ले जाती है।

ये समस्या धीरे धीरे मानसिक बीमारी का रुप ले लेती है। लेकिन लोग मानसिक समस्या को समस्या नहीं मानते। इस का उपचार नहीं करवाते; करवाते भी हैं तो बहुत मुश्किल से। विश्व में प्रत्येक छह में से एक व्यक्ति अकेलेपन से जूझ रहा है। अकेलापन हर वर्ष अंदाजन आठ लाख जिंदगीयों को निगल रहा है। सच कहें तो ये अधूरी समझ और बौद्धिक इमरजेंसी के चिन्ह है। जिन्हें मूर्खता से दूर होना या रहना नहीं आता। वो एसी भूल बार बार करते हैं। युरोप व अमेरिका में इस भूल के करने वालों की संख्या निरंतर बढ रही है। जो बताता है। व्यक्ति मात्र समाज और उस की आफिस के वातावरण से अलग नहीं है। परंतु परिवार से भी अलग है। कुछ उद्योगपतियों ने कुछ समय पहले आफिसों के कार्यकाल बढाने का आग्रह किया था। एक उद्योगपति ने ये कहा कि क्या कर पर रहकर पत्नी का चेहरा देखना ज्यादा जरुरी है? ये बयान ये सोच एक असंवेदनशील व्यक्ति ही रख सकता है। काम के दबाव के कारण युवा पीढ़ी पहले ही की समस्याओं से जूझ रही है। नयी पीढ़ी के मन में पहले ही काफी गुस्सा अधूरी महत्वाकांक्षाओं की पीडा अनचाही परिस्थितियों व संजोगों के कारण है। एसी स्थिति में सिर्फ और सिर्फ सामाजिक जुड़ाव आपसी बातचीत व तालमेल और संवेदनशीलता ही इस समस्या को दूर कर सकते हैं। 

कुल मिलाकर परिवार एवं समाज से जुड़ाव बहुत जरुरी है।

ये ता.28-07-2025 के दिन गुजरात समाचार में छट्ठे पन्ने पर छपे तंत्री लेख का अनुवाद है


बेमौसम बरसात (रुबाई)

जब जब होती है बेमौसम बरसात  शोले बन जाते हैं मीठे हालात  कहती है बरसात आओ तुम भीगो हौले हौले फिर भीगेंगे जज़बात  कुमार अहमदाबादी