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मंगलवार, अप्रैल 23

घास हरी या नीली

*घास हरी या नीली*

*लघुकथा*

एक बार जंगल में बाघ और गधे के बीच बहस हो गई. बाघ कह रहा था घास हरी होती है. जब की गधा कह रहा था. घास नीली होती है. काफी देर बहस चली. निर्णय नहीं हुआ. तब दोनों जंगल के राजा बब्बर शेर के पास गए. दोनों ने पूरी बात बता कर निर्णय देने के लिए कहा. बब्बर शेर ने पूरी बात सुनने के बाद बाघ को करारा थप्पड़ जड़ दिया और कहा. घास नीली होती है. बाघ बेचारा चुप हो गया. जब की गधा निर्णय सुनकर उछलने कूदने लगा. थोड़ी देर बाद चला गया. उस के जाने के बाद बब्बर शेर ने बाघ से कहा. घास हरी होती है. तब बाघ ने पूछा. महाराज आपने ये सच गधे के सामने क्यों नहीं बोला. मुझे क्यों थप्पड़ मारा? सुनकर बब्बर शेर ने कहा. तुझे थप्पड़ इसलिए मारा की वो तो गधा है और तूने गधे से जिद बहस की?!  मेरे बाद तू जंगल का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है. सोच गधे से एसी बहस करने पर तेरी रेपुटेशन कितनी गिरी होगी. आज के बाद एसा मत करना. 

भारत की रचना


राजा महाराजाओं ने चूं की अंग्रेजों के आगे समर्पण किया था और अंग्रेज अब जाने वाले थे. सो, वे राजे महराजे समझे हम भी स्वतंत्र हो जाएंगे. उन की सोच टेक्निकली गलत भी नहीं थी. लेकिन युग बदल रहा था. राजाओं का युग अस्त हो रहा था. यहां सरदार पटेल ने राजाओं को साम दाम दंड भेद आदि से समझा बुझा कर भारत के एकीकरण के कार्य में अपने अपने राज्य सौंपने के लिए राजी किया. 

ये एकीकरण का कार्य सरल नहीं था. अखंड भारत से दो राष्ट्र बनने वाले थे. राजाओं के पास दो तीन विकल्प थे. एक भारत के साथ जुड़ें, दो पाकिस्तान के साथ जुड़ें, तीन पाकिस्तान के साथ जुड़ें. वर्तमान भारत की सीमा पर स्थित रजवाड़ों जोधपुर, अमरकोट, बीकानेर, जैसलमेर मेवाड़ को जिन्ना पाकिस्तान में मिलाना चाहता था. इस के लिए उस ने जी तोड़ कोशिश की. लेकिन एक अमरकोट के अलावा किसी को राजी नहीं कर सका. उस समय की एक रोचक घटना पढ़िए. 

भोपाल के नवाब को पाकिस्तान के साथ जुड़ना था. लेकिन भोपाल भावी पाकिस्तान की सरहद से दूर था. बीच में हिंदू रजवाड़े मेवाड़, जैसलमेर, जोधपुर आदि थे. भोपाल नवाब(सैफ अली खान के पूर्वज) ने सोचा मेवाड़ के राणा अगर तैयार हो जाए तो दूसरे भी हो जाएंगे. इस उद्देश्य को लेकर नवाब ने मेवाड़ के राणा भूपाल सिंह से मुलाकात की. लेकिन वो भूल गया था की मेवाड़ का राज परिवार वो राज घराना थे. जो पिछले लगभग एक हजार वर्षों से विदेशी आक्रांताओं से जूझ रहा था, लड़ रहा था. महाराणा कुम्भा, महाराजा सांगा, महाराणा प्रताप जैसे एक से बढ़कर एक मेवाड़ी शासकों से विदेशी मुस्लिम आक्रांताओं का डटकर मुकाबला किया था. लेकिन कभी उन के सामने समर्पण नहीं किया था.

भोपाल नवाब दूत को भेज कर गलती कर बैठा. महाराणा भूपाल सिंह आग बबूला हो गए. दूत जन राणा जी के दरबार से फौरन नौ दो ग्यारह हो गया. 

तो फिर मेवाड़ भारत में कैसे जुड़ा? 

रजवाड़ों को भारत में विलीन करने का मंत्रालय सरदार पटेल के पास था. सरदार पटेल ने भूपाल सिंह जी से मिलने की आज्ञा मांगी. राणा जी ने आज्ञा दी. सरदार पटेल राणा जी से मिलने के लिए गए. 

वो मुलाकात एसे हुई.

सरदार पटेल ने राणा जी के सामने उन के दरबार कर शिष्टाचार को पूरी तरह निभाते हुए प्रवेश किया. राणा जी अपने सिंहासन पर विराजमान थे. उन्होंने भी औपचारिक पारंपरिक रीत से स्वागत किया. थोडी देर औपचारिक बातें हुई. फिर राणा जी ने सरदार से आगमन का कारण पूछा. सरदार पटेल ने विनम्र लहजे में कहा *राणा जी, मैं आप को ससम्मान लेने आया हूं.  आप के वंश की आप के परिवार की सदियों की स्वतंत्रता प्राप्त करने की लड़ाई पूर्ण हुई है. अब आप दिल्ली चलिए और अपना राज्य संभालिए* 

क्या आप कल्पना कर सकते हैं. राणा जी की प्रतिक्रिया क्या हुई? 

शेषांश अगले लेख में

*कुमार अहमदाबादी*

इंदिरा गांधी की नीतियां

जहां तक मुझे याद है. राजा महाराजाओं के पक्ष का नाम स्वतंत्र पार्टी था. उस में राजा महाराजाओं के अलावा और भी व्यस्क्ति थे. लेकिन राजा महाराजाओं के होने के कारण पार्टी की एक विशेष पहचान हैं गई थी. पार्टी दिन ब दिन लोकप्रिय हो रही थी. जयपुर की महारानी गायत्री देवी जैसा करिश्माई व्यक्तित्व प्रजा को आकर्षित करता था. दूसरी तरफ राजा महाराजाओं को सरकार की तरफ से पेंशन मिलती थी. ये पेंशन उन की उस जमीन, आवक आदि के बदले में थी. जो राजाओं ने स्वतंत्रता के समय भारत के एकीकरण के लिए छोड़ दिए थे. नहीं तो स्वतंत्रता के समय तकनीकी रुप से परिस्थिति क्या होती? राजा महाराजा और नवाबों ने अंग्रेजों का आधिपत्य स्वीकार किया हुआ था. 1757 के प्लासी के युद्ध के बाद 1857 की क्रांति तक पूरे भारतवर्ष के राजा अंग्रेजों को सर्वोपरी मान कर उन के प्रतिनिधि के रुप में राज करते थे. समय समय पर अंग्रेजों की फौजी मदद करते थे. (यहां एक पूरक जानकारी दे दूं. बीकानेर राज्य के पास 1900 सदी के पहले या दूसरे दशक में अपनी वायु सेना थी. उस वायु सेना ने पहले विश्व युद्ध में हिस्सा लिया था. उस वायुसेना के तीन विमानों को मैंने भी बीकानेर गढ़ के अंदर पड़ा हुआ देखा है.) दरअसल उस समय प्रकार की शासन व्यवस्था थी. पहली जहां राजा महाराजा अंग्रेजों की प्रतिनिधि के रुप में शासन करते थे. जैसे बीकानेर, जोधपुर, भोपाल, हैदराबाद, कश्मीर, जयपुर आदि आदि. दूसरी व्यवस्था में अंग्रेज खुद शासन करते थे. जैसे अहमदाबाद, मुंबई(तब बॉम्बे था), मद्रास(अब चेन्नई है) कोलकाता, वगैरह वगैरह. 

लेख जारी है……. अगला प्रकरण अवश्य पढ़िएगा.

शनिवार, अप्रैल 20

बातचीत की कला


बातचीत करना एक विशेष कला है। हम कोई भी बात कहें या सुनें। वो कहने के अंदाज पर निर्भर करती है कि कितना असर करेगी। बात कयी तरह से कही जाती है; क्यों कि बात कहने के लिये कयी तरीके भी अपनाये जाते हैं। दो या दो से ज्यादा व्यक्तियों के बीच रोजमर्रा की बातचीत के अलावा बात कहने के लिये कोई विचार या भाव बताने के लिये ही साहित्य लिखा जाता है। लेकिन वो एक तरफा रास्ता है। उस में एक ही व्यक्ति कहता है। बाकी श्रोता होते हैं।

रोजमर्रा की या जब रुबरु बातचीत के बारे में बात करें तो, बात कहते समय सब से पहले ये देखना पडता है कि इस वक्त वो यानि सामनेवाला हमारी बात सुनना चाहता भी है या नहीं। उस के बाद तय किया जाता है कि बात करनी है या कहनी है या नहीं कहनी। कभी कहनेवाले का मुड एसा होता है कि वो सामनेवाले को कुछ 'सुनाना' चाहता है। अक्सर एसे व्यक्ति सुना भी देते हैं और सुना भी देनी चाहिये; सिवाय के कोई एकस्ट्रा ऑर्डिनरी परिस्थिति हो।


लेकिन सुनाने का मूड न होकर सिर्फ बात करने का मूड हो तब ये देखना पडता है। सामनेवाले का बात करने का मूड है या नहीं। मूड हो तो बात शुरु कर देनी चाहिये; लेकिन अगर मूड नहीं है तो पहले बात करने के लिये उस का मूड बनाना पडता है। उसे हमारी बात सुनने व समझने के लिये तैयार करना पडता है। लेकिन ये बात सुनने के लिये तैयार करनेवाला काम तब आसान हो जाता है; जब सामनेवाला नया हो या अपरिचित हो। परिचित व्यक्ति को बात सुनने के लिये तैयार करना मुश्किल होता है। क्यों कि वो आप से परिचित होता है। इसलिये जैसे ही आप उसे तैयार करनेवाली बातें करेंगे। वो समझ जायेगा। इसलिये वो सीधा ये कहेगा कि 'ये सब बातें छोडो। सीधा वो कहो। जो आप कहना चाहते हो' यहीं कडियां बिखर जाती है। सुननेवाला ये नहीं जानता की हर कार्य की एक तकनीक होती है।

जैसे रसोई करने की एक तकनीक है,

रसोई बनाने के लिये पूर्वतैयारी यानि पहले से कुछ तैयारी करनी पडती है। ये पूर्व तैयारी हर जगह हर काम के लिये होती है। हरी सब्जी बनानी हो तो सब्जी बनाने से पहले सब्जी को धोया जाता है; फिर काटा जाता है। काटने के बाद सब्जियों को फिर धोया जाता है। मसाले तैयार रखे जाते हैं। उस के बाद सब्जी बनायी जाती है। जडतर का काम करें तो उस के लिये भी कुछ तैयारी पहले से करनी पडती है। नंग तैयार करने पडते हैं। कुंदन तैयार करना या रखना पडता है। कविता लिखें तो कविता के लिये भाव और विषय चुनने पडते है। विषय के अनुरुप शब्द याद करने पडते हैं। गीत को स्वरबद्ध करें यानि संगीतबद्ध करें तो गीत के भाव के अनुसार राग ताल एवं लय का चयन करना पडता है।

इसी तरह जब हम ये चाहते हों किसी को बात कहें तो पहले सुननेवाले व्यक्ति को बात सुनने के लिये तैयार कर लेना चाहिये। दूसरी तरफ ये भी होना चाहिये की जब दूसरा व्यक्ति हम से कोई बात कहे तो हमें भी गौर से उस की बात सुननी चाहिये गौर से सुनने पर ही सामनेवाले की बात का अर्थ और बात के पीछे की गहरायी समझ में आयेगी। जब सुनेंगे ही नहीं तो उस की बात का मर्म कैसे समझेंगे?

सामने वाले द्वारा कही गयी। बात में कौन सा मुद्दा खास है। वो मुद्दा क्यों खास है। अगर उस की बात मान लेनी है तो ठीक है। लेकिन अगर उस की बात काटनी है; तो फिर ये देखना पड़ता है। उस की बात में उस के द्वारा कहे गये। मुद्दे में गलती कहां है? उस गलती को पकड़कर फिर आगे बात की जाती है।
एक दूसरे की समझने के लिये सार्थक बातचीत जरुरी है। हम सार्थक बातचीत कब कर सकते हैं? जब कुशलता से बातचीत कर सकेंगे। एक दूसरा की बात का मर्म समझेंगे।
और......जब हम उस की बात का मर्म समझेंगे ही नहीं तो सार्थक बातचीत कैसे होगी?

*महेश सोनी*

गुरुवार, अप्रैल 18

श्रृंगार

तुम अनुपम मनमोहक हो

ये मैं नहीं कहता

तुम्हारा मन लुभावन रुप 

तुम्हारा गंगा जैसा

पवित्र श्रंगार कहता है


वो श्रंगार ये भी कहता है

कि वो प्यार का प्यासा है 

वो श्रंगार चाहता है

उस का कोई दीवाना आये

आकर बांहों में भर ले

बल्कि बांहों में भींच ले

भींचकर धीरे धीरे

हौले हौले हाथों से

एक एक कर के

श्रंगार के ये उपकरण 

हटाने लगे और 

नये उपकरण पहनाने लगे

जैसे कि बांहों का हार

होठों से होठों का श्रंगार

और...

उस के बाद....

उसे तो सोचते ही

शरमा जाती हूं

कुमार अहमदाबादी  

मंगलवार, अप्रैल 9

અનુસરણ ના કરું તો શું કરું?

 અનુસરણ

હું જો અનુસરણ ન કરું તો કરું યે શું?
અહીંયા મરી જવાનો પ્રથમથી જ રિવાજ છે
જલન માતરી

વા...હ જલન સાહેબ વા...હ
મૃત્યુ સનાતન સત્ય છે. જલન સાહેબે આ વાત સાવ સરળ શબ્દોમાં કહી છે. સામાન્ય રીતે લોકો સારા કાર્યો કે સફળતાનું અનુસરણ કરે છે. આ વાતનો આધાર લઈને મૃત્યુનું સનાતન સત્ય રજૂ થયું છે. જે અવતરે છે નિશ્ચિત મૃત્યુ લઈને અવતરે છે. પણ નિશ્ચિત મૃત્યુને અનુસરણ સાથે સરખાવી શાયરે શેરને ઊત્તમ શ્રેણીનો બનાવી દીધો છે. જગતનો દરેક માનવી અન્ય કોઈ કાર્યનું અનુસરણ કરે કે ન કરે. મૃત્યુનું અનુસરણ જરૂર કરે છે.

દૈનિક 'જયહિંદ'માં તા.૧।૧।૨૦૧૨ ના દિવસે મારી કૉલમ 'અર્જ કરતે હૈં'માં છપાયેલા લેખનો અંશ
અભણ અમદાવાદી

रविवार, अप्रैल 7

सन्नारी (रुबाई)


 *रुबाई*

वो भोली कोमल औ' संस्कारी है
रिश्तेदारों को मन से प्यारी है
जल सी चंचल सागर सी गहरी औ'
गंगा सी वो पावन सन्नारी है
कुमार अहमदाबादी

सोमवार, अप्रैल 1

गणगौर

 अहमदाबाद और आसपास के शहरों में राजस्थान के विभिन्न नगरों और गांवों से रोजी रोटी के लिये आये लोग बसे हैं। वे यहां अपने व्रत और त्यौहार मनाते हैं। जिन में राजस्थान की सांस्कृतिक विविधता होती है। अगले कुछ महीनों में चैत्रीय नवरात्रि के साथ साथ होली, थापना, गणगौर, वगैरह त्यौहार हर्षॉल्लास से मनाए जाएंगे। वासणा, निर्णय नगर, साबरमती, गोता, शाहीबाग, भावसार हॉस्टल आदि विस्तारों में राजस्थानी लोगों ने धूलेटी से ही गणगौर की तैयारियां आरंभ कर दी है। 


चैत्रीय नवरात्रि के तीसरे दिन गणगौर उत्सव मनाया जाता है। उस के लिये राजस्थानी युवतियां व महिलाएं विशेष पूजा अर्चना आरंभ कर देती है। होलिका दहन की राख और मिट्टी में से सोलह दिन की सोलह पिंडियां बनाकर छबड़ी में रखकर उस की पूजा करती है। सातवें दिन शीतला सातम मनाती हैं। उसी दिन मकर दास जी यानि शिव व गौरी अर्थात मां पार्वती सहित कानीराम (इसर दास जी के भाई) रोवा बाई(इसर दास की बहन) और मालण यूं कुल मिलाकर मिट्टी की पांच मूर्तियां बनाकर गणगौर तक रोज सुबह *गौर हे गणगौर माता खोल किवाडी* भजन गाकर पूजा की जाती है। सोमवार को इन प्रतिमाओं को लेने भीड उमड़ पड़ती है।

अहमदाबाद और आसपास के शहरों में राजस्थान के विभिन्न नगरों और गांवों से रोजी रोटी के लिये आये हुए लोग बसे हैं। वे यहां अपने व्रत और त्यौहार मनाते हैं। जिन में राजस्थान की सांस्कृतिक विविधता होती है। अगले कुछ महीनों में चैत्रीय नवरात्रि के साथ साथ होली, थापना, गणगौर, वगैरह त्यौहार हर्षॉल्लास से मनाए जाएंगे। वासणा, निर्णय नगर, साबरमती, गोता, शाहीबाग, वाडज, भावसार हॉस्टल आदि विस्तारों में राजस्थानी लोगों ने धूलेटी से ही गणगौर की तैयारियां आरंभ कर दी है। 

चैत्रीय नवरात्रि के तीसरे दिन गणगौर उत्सव मनाया जाता है। उस के लिये राजस्थानी युवतियां व महिलाएं विशेष पूजा अर्चना आरंभ कर देती है। होलिका दहन की राख और मिट्टी में से सोलह दिन की सोलह पिंडियां बनाकर छबड़ी में रखकर उस की पूजा करती है। सातवें दिन शीतला सातम मनाती हैं। उसी दिन मकर दास जी यानि शिव व गौरी अर्थात मां पार्वती सहित कानीराम (इसर दास जी के भाई) रोवा बाई(इसर दास की बहन) और मालण यूं कुल मिलाकर मिट्टी की पांच मूर्तियां बनाकर गणगौर तक रोज सुबह  गौर हे गणगौर माता खोल किवाडी  भजन गाकर पूजा की जाती है। सोमवार को इन प्रतिमाओं को लेने भीड उमड़ पड़ेंगी।

शाहीबाग के पवित्रा बहन ढंढारिया ने उत्सव की विशेषता के बारे में बताते हुए कहा ‘दीवार पर कुमकुम, मेहंदी, और काजल के टीके लगाकर रोज पुजा की जाती है। इस त्यौहार को पीहर जाकर मनाने की परंपरा भी है। विशेष रुप से शादी के बाद पहले गणगौर उत्सव का महत्व है। युवतियां सोलह दिन पीहर में रहकर ये उत्सव मनाती है। इस दौरान फूलपत्ती का कार्यक्रम आयोजित किया जाता है। नन्हीं बालिकाओं को शिव पार्वती बनाकर उन का आशिर्वाद लिया जाता है। महिलाएं आटा गूंथ कर उस से विविधाकार के व्यंजन बनाती है। उन व्यंजनों का भोग लगाया जाता है। नवरात्रि के तीसरे गणगौर के दिन महिलाएं व्रत रखती है। 


अब कुछ जानकारी जो लेख में नहीं है। लेकिन मैंने अपने बीकानेर के बुजुर्गों से सुनी है। वो लिखता हूं। जब राजा शाही का युग था। तब नगर के हर इलाके से लोग गवर ईसर की शोभायात्रा निकालते थे। प्रत्येक शोभायात्रा राजा जी की गढ़ के सामने जाती थी। वहां महाराजा अपने हाथों से खोळा भरते थे एवं अन्य विधियां करते थे। स्वतंत्रता के बाद राज्य व्यवस्था बदलने से कुछ परिवर्तन हुए हैं। 

कुछ बातें बीकानेर से आकर अहमदाबाद में बसे स्वर्णकार समाज द्वारा मनाये जाने वाले उत्सव के बारे में,

अहमदाबाद में गणगौर मेले का आयोजन एक समिति करती है। ये आयोजन लगभग पिछले ढाई तीन दशकों से किया जा रहा है। ये आयोजन समाज के भवन पर किया जाता है। मेले वाले दिन शोभा यात्रा निकलती है। पहले के कुछ वर्ष शोभा यात्रा समाज भवन से प्रगति नगर कम्युनिटी हॉल जाती थी। समाज के कुछ लोग रास्ते में जुड़ते हैं। कुछ लोग सीधे कम्युनिटी हॉल पहुंचते हैं। शोभा यात्रा की विशेषता ऊंट गाडे होते हैं। जो वृद्ध व्यक्ति पूरी यात्रा में पैदल चल नही सकते। वे ऊंट गाड़े में बैठकर शोभा यात्रा के साथ जुड़े रहते हैं। 

गवर इसर को समाज की महिलाएं माथे पर रखकर भवन से कम्युनिटी हॉल तक ले जाती है। महिलाएं क्रमशः यानि एक के बाद एक माथे पर उखणती है। माथे पर रखने की कार्य को राजस्थानी भाषा में माथे पर उखणना कहते हैं। गवर इसर को उखणने के लिये महिलाओं में आपस में मीठी प्रतिस्पर्धा होती है। शोभा यात्रा के दौरान हर एक महिला जल्दी से जल्दी गवर इसर को माथे पर उखणना चाहती है। 

शोभा यात्रा कम्युनिटी हॉल पर पहुंचने के बाद वहां पूजा आरती खोळा भरना वगैरह विधियां होती है। महिलाएं घूमर खेलती हैं। पुरुष भी पारंपरिक राजस्थानी अंदाज में नृत्य करते हैं। 

कम्युनिटी हॉल में की सेवाभावी मित्र मंडलीयां विविध स्वयंभू(अपने आप अपनी मरजी से) सेवाएं देती हैं। कोई मित्र मंडली समाज के लोगों के लिये शरबत की व्यवस्था करती है तो कोई मित्र मंडली गोटों की व्यवस्था करती है। कोई फ्रूट क्रीम की व्यवस्था करती है। कोई गोटों की व्यवस्था करती है। वहां लगभग दो से तीन घंटे तक मेले की रौनक रहती है। लोग हर्षोल्लास से मिलते जुलते हैं। 

कुछ व्यक्ति अपने युवा बच्चों के लिये मेले में आये युवक युवतियों के वाणी वर्तन व व्यवहार पर नजर रखते हैं। उन की अनुभवी आंखें व सोच युवक युवतियों के वाणी व्यवहार से उन के व्यक्तित्व के बारे में अंदाजा लगाना शुरु कर देती है। 

बहरहाल,

दो तीन घंटों के बाद वापस गवर इसर को भवन पर लेकर आते हैं। कुछ समय वहां गीत गाये जाते हैं। उस के बाद गवर इसर को पूजा गृह में विराजमान किया जाता है; क्यों कि कुछ समय बाद धींगा गवर का आयोजन होता है। 

अनुवादक एवं लेखक - महेश सोनी 

शुक्रवार, मार्च 29

छेड़ दो (मुक्तक)



बांसुरी से राग मीठा छेड़ दो
मन लुभावन गीत प्यारा छेड़ दो
गोपियों की बात मानो कृष्ण तुम
तार राधा का जरा सा छेड़ दो
कुमार अहमदाबादी

गुरुवार, मार्च 28

सच डरता नहीं (कहानी)

 सच डरता नहीं


कौशल और विद्या दोनों बारहवीं कक्षा में पढते थे। दोनों एक ही कक्षा में भी थे। दोनों ही ब्रिलियन्ट स्टूडेंट थे, इसी वजह से दोनों में दोस्ती भी थी; और एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा भी थी। परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करने के लिये दोनों खूब पढाई करते थे। पढाई में एक दूसरे की मदद भी करते थे।

लेकिन जैसा की अक्सर होता है। एक लडके व एक लडकी की दोस्ती को हमेशा शक की नजर से ही देखा जाता है। कौशल व विद्या के साथ भी एसा ही हुआ। जो विद्यार्थी व विद्यार्थीनी पढाई में दोनों का मुकाबला नहीं कर सकते थे। उन्हों ने दोनों के संबंधों के बारे में अफवाहें उडाना शुरु कर दिया। धीरे धीरे अफवाहें जोर पकडती गई। कौशल व विद्या को भी अफवाहों के बारे में पता चला तो दोनों हंसकर रह गये।

लेकिन एक दिन किसी ने अफवाह को एकदम निम्न स्तर तक पहुंचा दिया। उस दिन विद्या बहुत विचलित हो गई। इतनी विचलित हो गई कि आधी छुट्टी के दौरान आत्महत्या का इरादा कर के स्कूल से थोडी दूर से गुजर रहे रेल्वे ट्रेक की तरफ जाने लगी। विद्या की एक सहेली ने कक्षा में आकर वहां बैठे विद्यार्थियों को विद्या के इरादे के बारे में बताया। कौशल भी क्लास में था। कौशल तथा अन्य विद्यार्थी विद्या को वापस लाने के लिये उस की तरफ भागे।


वे सब विद्या के पास जाकर उसे समझाने लगे। मगर, विद्या ने किसी की नहीं सुनी और वो बस ट्रेक की तरफ चलती रही। दो पांच मिनट तक समझाने के बावजूद जब विद्या नहीं मानी तो आखिरकार कौशल ने उस का हाथ पकड लिया; और उसे वापस स्कूल की तरफ खींचता हुआ सा लेकर जाने लगा। विद्या ने विरोध किया पर कौशल नहीं माना। तब तक वहां अच्छी खासी भीड भी जमा हो गई।

भीड को जमा होते देखकर विद्या की एक सहेली ने कौशल से कहा 'कौशल, हाथ छोड दो, भीड इकट्ठा हो रही है। तमाशा हो रहा है।' ये सुनकर कौशल ने हाथ छोड दिया। हाथ छुटते ही विद्या फिर रेल्वे ट्रेक की तरफ भागी। कौशल ने दौडकर उसे वापस पकड लिया और स्कूल की तरफ ले जाने लगा। इस बार कोई कुछ नहीं बोला। उस के बाद कौशल वहां से स्कूल तक विद्या का हाथ पकडे रहा। वैसे हाथ पकडे हुए ही वो विद्या को आचार्य की ऑफिस में ले गया। आचार्य ने नजर उठाकर दोनों को देखा। चेहरे पर प्रश्नार्थ के भाव उभरे। उन भावों को देखकर कौशल ने आचार्य को बताया कि 'ये आत्महत्या के लिये ट्रेक की तरफ जा रही थी। इसे वापस लेकर आया हूँ'

आचार्य ने विद्या का हाथ पकडा और अपने पास एक कुर्सी पर बिठाया। फिर कौशल की तरफ मुडकर दो पल उसे गहरी नजरों से देखने के बाद बोलीं 'वेलडन कौशल, तुम्हारी निर्भीकता और नीडरता ने मुजे सत्य का प्रमाण दे दिया है। अब आगे मैं सबकुछ संभाल लूंगी। तुम्हें डरने की कोई जरुरत नहीं' 

कुमार अहमदाबादी

रविवार, मार्च 24

बेटों को संस्कार सीखाओ

 बेटों को संस्कार सीखाओ

बेटी बचाओ बेटी पढाओ


एक अभियान बेटी बचाओ बेटी पढाओ चल रहा है। जब कि सच पूछें तो,                       

बेटे को समझाओ बेटे को सीखाओ अभियान चलाने की आवश्यकता है। 


आप सोचेंगे कि भाई ये क्या बात कह रहे हो। 


आप जरा सोचें की, बेटी बचाओ बेटी पढाओ अभियान चलाने आवश्यकता क्यों खडी हुई? इसलिये कि बेटियों को वो संघर्ष करने पडता है। जो संघर्ष दरअसल होना ही नहीं चाहिये। 

बेटीयां जब घर से बाहर निकलती है तब उन्हें कई प्रकार की मानसिक व शारीरिक प्रताडना का सामना करना पडता है। छोटा सा उदाहरण देख लिजिए। लड़कियां बस में या बस की लाइन में खडी हो तो लड़के और कुछ पुरुष भी अनुचित तरीके से स्पर्श करते हैं । भद्दे इशारे करते हैं। बेटियों  के साथ एसा व्यवहार करीब करीब हर स्थान पर होता है। संभवतः सौ में से अस्सी से नब्बे पुरुष लड़कियों के साथ इसी प्रकार का वर्तन करते हैं। 

तो, प्रश्न ये होता है कि परिवर्तित किसे होना चाहिये। जो गलत व्यवहार कर रहा है उसे?  या जो गलत व्यवहार सहन करता है उसे? इसलिये  बेटे को सीखाओ बेटे को समझाओ ताकि वो लड़कियों से स्त्रियों से गलत व्यवहार करना स्वेच्छा से बंद करे। 


एक दो मुद्दे पुरुषों को भी समझने चाहिये कि,

वे खुद को परिवर्तित कर लें वर्ना गर बेटियों ने व्यवहार परिवर्तित करवाया तो भविष्य में आप के लिये एसी समस्याएं खडी होगी। जिन के बारे में आपने सोचा भी ना होगा। बेटियों ने अगर समाज का, व्यवस्था का संचालन अपने नियंत्रण में ले लिया तो जो कुछ होगा। वो आप की कल्पना से परे होगा।

इसीलिए बेटी बचाओ बेटी पढाओ और साथ में बेटे को समझाओ

कुमार अहमदाबादी

गुरुवार, मार्च 21

पूजा किसे कहते हैं?(अनुदित)

 पूजा किसे कहते हैं?

अनुवादक - महेश सोनी


उत्तर -
पूजनम् (पूज+ल्युट) का सीधा सादा सारा अर्थ; सम्मान करना,सादर स्वागत करना, आराधना करना, अर्चना करना, आदरपूर्वक भोग धरना: होता है। सगुणोपासना( सगुण+उपासना, सगुण यानि (सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण) में देवपूजन का अधिक महत्व है। वैदिक काल से अग्नि, सूर्य, वरुण, रुद्र, इंद्र आदि देव और दिव्य शक्तियों का पूजा होती रही है/होती आयी है। भारत का इतिहास में पूजा से प्राप्त हुयी अकल्पनीय उपलब्धियों की अनेक घटनायें दर्ज है। भारतीय पौराणिक साहित्य एसे किस्सों से समृद्ध है। पुरातन काल एवं परंपरा से ही दो प्रकार की विधियों से पूजा की जाती रही है।
1. योग
2. पूजा

1. योग
अग्निहोत्रि द्वारा पूजा करवाने को योग या यज्ञ कहा जाता है। ये पूजा अनेक लोगों के सहयोग से संपन्न होते हैं। इस में मंत्रों और परंपराओं का विशिष्ट क्रम रहता है। ये योग सकाम और निष्काम के भेद के कारण अनेक प्रकार के होते हैं। प्रत्येक की अनुष्ठेय क्रिया भी अलग अलग प्रकार की होती है।

2. पूजा
कुछ निश्चित पदार्थों सहित देवों की पूजा अर्चना होती है। पत्र, पुष्प एवं जल के द्वारा अर्चना करने को ही पूजा कहते हैं। इस पूजा द्वारा इंसान अपने आराध्य देव को प्रसन्न कर के वरदान मांगता है। इस पूजा की पंचोपचार(पंच+उपचार=पंचोपचार) से लेकर सर्वांगोपचार(सर्वांग+उपचार= सर्वांगोपचार) तक अनेक प्रणालीयां है। (1) वैदिक परिपाटी (2) पौराणिक परिपाटी। पौराणिक परिपाटी के मुद्दे पर मंत्रो में भेद दिखायी देता है।

*हिन्दू मान्यताओं नो धार्मिक धार्मिक आधार* *(लेखक - डॉ. भोजराज द्विवेदी*) की पुस्तक के पृष्ठ नंबर 86 पर दिये गये प्रश्न एवं उत्तर का अनुवाद
अनुवादक - महेश सोनी

रंगों का गीत


इस दुनिया में आकर हमने रंग इतने देखे हैं
मेघधनुष में रंग है जितने रंग उतने देखे है
इस दुनिया में आकर हमने ...
.
कोई नीला कोई पीला कोई काला कलंदर है
कोई आसमानी गगन, कहीं पे नीला समंदर है
इस दुनिया में आकर हमने....
.
चोर का चेहरा पीला और दुल्हन का लाल देखा
खेतों में हरियाली देखी आग को केसरिया देखा
इस दुनिया में आकर हमने....
.
मौसम के संग इन्सानों को हमने रंग बदलते देखा
युद्धों के आखिर में हमने श्वेत ध्वज लहराते देखे
इस दुनिया में आकर हमने....
.
फूल खिलते मौसम के संग और फिर मुरझाते है
क्रोध से लाल चेहरे और शर्म से लाल चेहरे देखे
इस दुनिया में आकर हमने....
.
दंगों की कालिमा देखी, पानी का ना रंग देखा
वायु को रंग बिना पर, योद्धा को केसरिया देखा
इस दुनिया में आकर हमने....
कुमार अहमदाबादी

सोमवार, मार्च 11

भंगिया

तर्ज - ये गोटेदार लहंगा


सेवक लाये हैं भंगिया, भोले बाबा छान के

भर भर के लोटा पीले, मस्ती में छान के ।। टेर।।


बड़े जतन से हौले -2, भांग तेरी घुटवाई,

केसर पिस्ता खूब मिलाया, छान लेई ठण्डाई,

हमरी भी रख ले बतिया-2, सेवक तू जान के।।१।।


गौरा मैया के हाथों से, भांग सदा तू खाये,

तेरे सेवक बडे चाव से, आज घोटकर लाये,

सावन की बुंदे थिरके-2, रिमझिम की ताल पे।।२।।


और देव होते तो लाते, भर भर थाल मिठाई,

लेकिन भोले बाबा तुझ को , भांग सदा ही भाई

भक्त दया का भोले-2, हम को भी दान दे 


ये रचना मैंने एम.जे. लायब्रेरी की किताब रस-माधुरी(श्री सांवरिया भक्त मंडल द्वारा संग्रहित व प्रकाशित) में पढी थी। बहुत मीठी व प्यारी लगी; सो रसिकों के लिये यहां पोस्ट कर दी।

दर्द रह गया(मुक्तक)

 

छल गयी आशा को बरखा खेत सूखा रह गया

चक्र टूटा अर्थ का व्यापार ठंडा रह गया

क्या जगत का तात करता वारि जब बरसा नहीं

पेट भूखा आंख भीनी दर्द खारा रह गया

वारि-पानी

कुमार अहमदाबादी

शुक्रवार, मार्च 8

कुंदन कला - कलाइयों की अदभुत कला

कुंदन कला - कलाइयों की अदभुत कला
लेखक - कुमार अहमदाबादी

कुंदन कला कलाईयों की एक एसी कला है। जो अदभुत व अद्वितीय है।  हालांकि आज तक कभी भी इस का कलाई की एक कला के रुप में प्रचार प्रसार नहीं हुआ। कलाई की अन्य जो कलाएं हैं। कलाई की कला के रुप में उन के प्रचार प्रसार और इस के प्रचार प्रसार का तुलनात्मक अध्ययन करें। तब मालूम होगा। कुंदन कला का कभी भी कलाई की एक अद्वितीय कला के रुप में प्रचार हुआ ही नहीं है। 

आप जरा याद कीजिए फिर गौर कीजिये। 
आप में से कई व्यक्ति क्रिकेट के शौकीन होंगे। आपने क्रिकेट की कमेन्ट्री के दौरान अनेक बार ये शब्द कलाईयों का बेहतरीन उपयोग सुने होंगे। ये शब्द आपने बल्लेबाज के शॉट की प्रशंसा के लिये एवं बोलर खास कर के लेग ब्रेक बोलर या चाइनामैन बोलर ( जैसे की अब्दुल कादिर, शेन वार्न, अनिल कुंबले, कुलदीप यादव) की गेंदबाजी के दौरान सुने होंगे। वास्तव में वो सच भी है। बल्लेबाज या गेंदबाज का बेहतरीन तरीके से व लाजवाब तकनीक से कलाईयों के घुमाव का और लोच का उपयोग कर के अपने कार्य को सुन्दर आकर्षक व फलदायक बनाना ही उस की विशेषता होती है, खूबी होती है, कला होती है। यहां कमेन्ट्री के दौरान सुने जाने वाले एक और शब्द का सिर्फ उल्लेख कर के अब वापस मूल मुद्दे पर लौटते हैं। वो शब्द है हैंड आई को ऑर्डिनेशन । जिस का अर्थ होता है आंखों और हाथों का तालमेल  या आंखों और हाथों का समन्वय।

अब वापस कुंदन कला के मुद्दे पर लौटते हैं। कुंदन कला के जेवर जब सृजन(बनने) की प्रक्रिया में होते हैं। तब भी बार बार कलाइयों का उपयोग होता है। जडतर का जो कलाकार जितनी कुशलता से अपनी कलाइयों का उपयोग करता है। उस द्वारा निर्मित जेवर उतना ही खूबसूरत व आकर्षक बनता है। 

कुंदन कार्य के दौरान प्रत्येक चरण में कलाइयों का उपयोग होता है। जेवर में सुरमा, लाख, पेवडी आदि भरने से लेकर जेवर को हूंडी से उतारने तक कलाइयों का उपयोग होता है। आप स्वयं कुंदन के जेवर के सृजन के दौरान के पलों को याद कर लिजिए। कुंदन बनाते समय, कुंदन लगाते समय, नीट करते समय, तचाई करते समय आप कलाइयों का उपयोग करते हैं या नहीं? जडतर के कलाकारों को एक विशेष पल की याद दिलाता हूं। आप जब ताच लेते हैं। तब जहां ताच पूरी होती है। उस जगह पहुंचने के बाद ताच का वो छिलका जो पकाई से उतरा हुआ। लेकिन सलाई से (और थोडा सा जेवर से भी) चिपका हुआ होता है। उसे जेवर हटाने के लिये (आज की भाषा में कहें तो कनेक्सन काटने के लिये) कलाई को जो हल्का सा झटका देते हैं। झटका देकर उस ताच जेवर से दूर करते हैं। वो क्या होता है? वो जो झटका देकर,  कलाई को घुमाव देकर ताच को जेवर से अलग करने की प्रक्रिया में कलाई की लोच का उपयोग होता है। वो क्या होता है? वही कुंदन की कला में कलाईयों का अदभुत उपयोग है। 
वो जडिया जडतर का उत्तम, श्रेष्ठ कलाकार बनता है। जडाई का मास्टर बनता है। जो जाने अंजाने कलाईयों का कुशलतापूर्वक उपयोग करना सीख जाता है।
कुमार अहमदाबादी

बुधवार, मार्च 6

याद है शरारत (मुक्तक)



थी बहुत ही वो प्यारी हिमाकत सनम

भा गयी थी नशीली शराफत सनम

मैं नहीं भूलना चाहता स्पर्श वो

याद है होठ की वो शरारत सनम

कुमार अहमदाबादी

होली गीत(विभिन्न छंदों में)

 (प्रिल्युड)

(अपवाहक एवं विद्युल्लेखा छंद में)


(पुरुष) गोरी तू चटक मटक, लटक मटक, चटक मटक, करती क्युं री? ओये होये क्युं री?

(स्त्री) पीया तू समझ सनम, चटक मटक, लटक मटक, करती क्युं मैं? ओये होये क्युं मैं?

(पुरुष) तेरा ये बदन अगन, जलन दहन, नयन अगन, लगते क्युं है? ओये होये क्युं है?

(स्त्री) मेरे ये नयन बदन, सनम अगन, जलन दहन, जलती होरी....ओये होये होरी

(स्त्री) चाहे ये सनन पवन, बरफ़ पवन, सनम पवन, बनके आ जा...... ओये होये आ जा

(पुरुष) आया मैं सनन पवन, पवन बरफ, बरफ पवन, बनके गोरी ओये होये होरी.......

आई रे आई होरी

[मुखड़ा]

[स्त्री समूह] आई रे आई रे होरी, आई आई रे होरी, आई रे आई रे होरी, आई रे.............. होरी आई रे

[पुरुष समूह] लाई रे लाई रे होरी, लाई रे लाई रे होरी, लाई रे लाई रे होरी, लाई रे .............होरी लाई रे



[स्त्री समूह] तन में तरंग लाई, मन में उमंग लाई

[पुरुष समूह] गुल में निखार लाई,रुत बेक़रार लाई

[स्त्री समूह] पिया का प्यार लाई, रस की फुहार लाई

[पुरुष समूह] दिल में करार लाई रंग बेशुमार लाई.......आई रे....होरी आई रे

आई रे[रिपीट]

[अंतरे]

[नायक] तुम भी खेलो, मैं भी खेलूं.धरती का कण कण खेले,

[नायिका] रंगो के इस रत्नाकर में, जीवन का पल पल खेले,

[दोनों समूह] सागर, सरिता, झरने,चंदा, भानु और तारे खेलें

[दोनों] बन के तारें अम्बर के हम, झुमके खेलें होरी रे,होरी रे, होरी रे,...........आई रे



[नायिका] राधा खेले, श्याम खेले, सारा गोविन्द धाम खेले

[नायक] प्रेम पियाला मस्ती से, पीकर बंसी फाग खेले,

[दोनों समूह] बंसी की सरगम पर ये, गोपियाँ, वो गैया खेले,

[दोनों] रेशमी सूर बंसी के रे झुमके खेले होरी रे, होरी रे, होरी रे,..............आई रे



[नायक] योगी खेलें, भोगी खेलें, मिलकर दोनों संग खेलें

[नायिका] मौसम की मस्ती में डूबे, फूलों से भंवरे खेले,

[दोनों समूह] मेघ-धनुषी मौसम में गुल, रंगीली रसधार झेलें,

[दोनों] पिचकारी की धार पे सब, झुमके खेलें होरी रे, होरी रे, होरी रे,.........आई रे



[नायिका] पीला खेलें, लाल खेलें, हम ये सालों साल खेलें,

[नायक] मौसम आएँ, मौसम जाएँ, सदियों ये फागुन लाएँ,

[दोनों समूह] रंग बिरंगी होरी से हम दूर कभी हो ना जाएँ,

[दोनों] फाग-राग की मस्ती में सब, झुमके खेलें होरी रे, होरी रे, होरी रे,.....आई रे

कुमार अहमदाबादी

तराजू की चिंता


मैं तराजू हूँ। वो तराजू, कुछ पलों बाद जिस में खडा होकर अर्जुन मत्स्यवेध करनेवाला है। मुझे ये चिंता सता रही है। क्या मैं संतुलित रह पाउंगा? क्यों कि अर्जुन की सफलता व निष्फलता मेरे संतुलित रहने या ना रहने पर निर्भर है। मैं जानता हूँ। कृष्ण पानी को स्थिर रखेंगे। अगले कुछ पल साबित करनेवाले हैं। लक्ष्य को भेदना हो, प्राप्त करना हो तो लक्ष्य पर नजर रखनी आवश्यक है। अगर अर्जुन यानि भेदक अपने शरीर को स्थिर व संतुलित रखेगा; तो ही जलरुपी तत्व स्थिर रहेगा। भेदक को अपनो सांसों को भी नियंत्रित रखना होगा। सांस अनियंत्रित होते ही शारीरिक व मानसिक संतुलन बिगड जाता है। संतुलन बिगडने के बाद लक्ष्य को भेदना असंभव हो जाता है। मुझे एक और संभावना चिंतित कर रही है। क्या हवा स्थिर व शांत रह सकेगी?
कुमार अहमदाबादी

होरी गीत (प्रिल्युड)

 होरी गीत (समूह गीत) विभिन्न छंदो में


(प्रिल्युड)

अपवाहक एवं विद्युल्लेखा छंद में


(पुरुष)गोरी तू चटक मटक, लटक मटक, चटक मटक, करती क्युं री? ओये होये क्युं री?

(स्त्री)पीया तू समझ सनम, चटक मटक, लटक मटक, करती क्युं मैं? ओये होये क्युं मैं?

(पुरुष)तेरा ये बदन अगन, जलन दहन, नयन अगन, लगते क्युं है? ओये होये क्युं है?

(स्त्री)मेरे ये नयन बदन, सनम अगन, जलन दहन, जलती होरी....ओये होये होरी

(स्त्री)चाहे ये सनन पवन, बरफ़  पवन, सनम पवन, बनके आ जा...... ओये होये आ जा

(पुरुष)आया मैं सनन पवन, पवन बरफ, बरफ पवन, बनके गोरी ओये होये होरी.......

आई रे आई होरी

मंगलवार, मार्च 5

परंपरा(अनूदित लेख)

 *परंपरा*

लेखिका - एषा दादावाला

अनुवादक - कुमार अहमदाबादी 

जामनगर में मेहमानों को एक कतार में बिठाकर अपने हाथ से बुंदी के लड्डु परोसने वाले मुकेश अंबानी को देखकर मन में प्रश्न हुआ। अब कुछ लोग करेंगे? 

जो लोग दो पांच करोड की आसामी है। वे शादी ब्याह में विदेशों से शेफ(रसोइया) बुलवाते हैं। दुनिया भर की सुगर फ्री मीठईयों का काउंटर रखकर तरह तरह की शेखियां बघारते हैं। जब की पौने दस लाख करोड(कोई फटाफट बता सकता है। इस रकम में कितने शून्य होंगे? अब सुगर फ्री चोंचले वाले क्या करेंगे?) जिस के पास है। वो धनपति भोजन के लिये पारंपरिक कतार व्यवस्था में आमंत्रितों को भोजन करवा रहा है।

श्रीमंतो को देख देख कर आम आदमी ने भी कतारबद्ध भोजन करवाने की व्यवस्था को छोडकर भारी भरकम बुफे की व्यवस्था अपना ली। जिस में नोर्थ इन्डियन, साउथ इंडियन, थाई, इटैलियन आदि आदि काउंटर सजाये जाते हैं। अब अरब खरबपति मुकेश अंबानी ने फिर से कतारबद्ध बिठाकर भोजन करवाने की रीत को पुर्नजीवित किया है। मेहमानों को अपने हाथों से भोजन परोसने की रीत को फिर शुरू किया है। 

अब?

एक समय था। जब भोजन में भारतीय व्यंजनो की बोलबाला थी। हर प्रांत के अपने अपने व्यंजन थे। गुजरात में दाल, लड्डु व आलू की मीठी सब्जी, फूलवडी, लापसी थे। राजस्थान में मोतीपाक सब से उत्तम मीठाई मानी जाती थी। बाद में वो स्थान कतली ने ले लिया। तब घर का लगभग हर व्यक्ति भोजन परोसने में गौरव का अनुभव करता था। बच्चे बूढे स्त्रियां सब मेहमानों को भोजन करवा कर अद्वितीय आनंद प्राप्त करते थे। 

फिर आपसी स्पर्धा में कई विसंगतियां आ गयी।

ये मानकर की हमारे पास तो बहुत है; नो गिफ्ट प्लीज एवं एवं ओन्ली ब्लेसिंग्स को बडे बडे अक्षरों में लिखवाने का दौर भी चला। जब की इधर अनंत अंबानी जो की आज अरबों का भावि वारसदार है। उसे गुड़ के साथ सगुन की नोट लेने में कोई हिचकिचाहट नहीं है। 

अब वो वर्ग क्या करेगा। जो दंभ की दुनिया में जीता था। 

प्रतिस्पर्धा के जमाने में अपनी हस्ती को बड़ा बताने या साबित करने के प्रयास जारी रखेंगे, या; प्रेम से अपनेपन से बुंदी, मोतीपाक, लापसी को शादी ब्याह में बनवाकर उन के समर्थक होने का प्रमाण देंगे?

*लेखक - एषा दादावाला*

*अनुवादक - कुमार अहमदाबादी*

सोमवार, मार्च 4

भांग और शिवरात्रि व होली(अनूदित लेख)

भांग और शिवरात्रि व होली(अनूदित लेख) 

अनुवादक - कुमार अहमदाबादी


ता. 03-03-2024 [रविवार] के गुजरात समाचार की रवि पूर्ति में छपे लेख

(लेखक - भालचंद्र जानी)  का अनुवाद



गुजरात समाचार की रविपूर्ति (03-03-2024 के दिन) में भांग के बारे में एक अच्छा लेख छपा ही. लेख हॉटलाइन कॉलम में छपा है. इस कॉलम के लेखक भालचंद्र जानी है. उस का हिंदी अनुवाद कर के दोपहर बाद रखने का प्रयास करुंगा. मूल लेख लम्बा है. दो या तीन हिस्सों में पोस्ट करना पड़ेगा. एक झलक दे देता हूं.


मैंने शंकर का एक रूप निराला देखा

जटा में गंगा, हाथ में भंग का प्याला देखा

जिसे भांग का सेवन करना अच्छा लगता है. वो तो शंकर का नाम जोड़े बिना भी भांग का नशा करता है. लेकिन धर्म को मानने वाले भगवान शंकर का नाम पहले लेते हैं. कहते हैं शिवजी भांग पीकर मस्ती में मस्त रहते थे. तांडव नृत्य करते थे. एसी बातें कर के शिव भक्त मस्ती के लिए भांग का सेवन करते हैं. शिवरात्रि के दिन शंकर के मंदिर में जाकर उन का दर्शन कर के भांग को प्रसाद के रुप में ग्रहण करते हैं. भक्त प्रसाद के रुप में जो भांग लेते हैं. वो छानी हुई होती है. 

भांग गुजरात में सरकार द्वारा कानूनन प्रतिबंधित है. इसलिए कोई भी वैध या हकीम एसी कोई दवाई जिस में भांग शामिल हो. किसी अपरिचित दर्दी को देते नहीं हैं. लेकिन ये भी सत्य है. आयुर्वेद में भांग के कई औषधीय गुणों के बारे में वर्णन है. शराब और भांग में एक अंतर ये है की शराब के व्यसनी व्यक्ति को शराब शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और सामाजिक रुप से बहुत हानि पहुंचाती है. जब की भांग का अतिरेक व्यक्ति को बहुत ज्यादा या गंभीर नुकसान नहीं करता. इस के बावजूद भांग का उपयोग करना जरुरी हो तो उस का उपयोग औषधि के रुप में करना चाहिए; व्यसन के रुप में नहीं. 

भांग का उपयोग पाचन तंत्र की कार्य क्षमता विकसित करने अच्छे से कार्य करने के उद्देश्य से किया जाता है. पीड़ा के शमन यानि पीड़ा को दबाने के लिए भी किया जाता है. हालांकि औषध के  रुप में उपयोग करने से पहले भांग का शुद्धिकरण करना पड़ता है. उस के लिए भांग की पत्तियों को गाय के दूध में उबालने के बाद साफ पानी से धोकर सुखानी चाहिए. सूखी हुई पत्तियों को गाय के घी में सेकने के बाद उन्हें औषधि के रुप में उपयोग में लिया जाता है. 

भांग की पत्तियां और बीज दोनों का ही औषधि के रुप में उपयोग होता है. ये दोनों उष्ण होने से वातहर और कफहर है.लेकिन पित्तवर्धक है. वातहर होने के कारण ये पीड़ा का शमन करता है.

धनुर्वात या कुत्ते के काटने से हड़कवा होने से शरीर में खिंचाव आने पर भांग दी जाती है. भांग का धुआं देने से खिंचाव में आराम मिलता है.आराम मिलने से व्यक्ति को नींद आ जाती है. हड़काव के कारण दर्दी अगर उधम मचा रहा हो तो उसे शांत करने के लिए पीड़ा को दबाने के लिए भांग को ज्यादा मात्रा में दिया जाता है. हालांकि इस से हड़काव ठीक नहीं होता. लेकिन व्यक्ति को पीड़ा का पता नहीं चलता.हमारे यहां 99 प्रतिशत लोग सिर्फ महाशिवरात्रि के दिन भगवान शिव की पूजा करने के बाद प्रसाद के रुप में ही भांग पीते हैं.

शनिवार, मार्च 2

केसर की क्यारी (रुबाई)




 सब से न्यारी है केसर की क्यारी

सब को प्यारी है केसर की क्यारी

ये  जीवन भी  है  बागीचा इस में

हर इक नारी है केसर की क्यारी 

कुमार अहमदाबादी 


गुरुवार, फ़रवरी 29

गुलकंद जैसी(ग़ज़ल)



मान या मत मान है गुलकंद जैसी

सभ्यताएं हैं पुराने ग्रंथ जैसी


कंकरों को छांटती है धान में से

यार ये चलनी है बिल्कुल छंद जैसी


कोयले सी हो गयी ये आज लेकिन 

दौर था जब थी ये खादी हंस जैसी


प्रेमिका का काव्य झरना सूखने पर

काव्य धारा हो गयी आक्रंद जैसी


आंख जनता को बताता है जो राजा

उस की होती है दशा धननंद जैसी


विष के प्याले गट गटागट पी गया

इस की भूखी प्यास थी शिव कंठ जैसी

कुमार अहमदाबादी 

सोमवार, फ़रवरी 26

शुक्रवार, फ़रवरी 23

બાળકના સવાલ - મમ્મીના જવાબ


બાળકના સવાલ

મમ્મી ક્હેને કેમ છે આવું

જેવું જે છે કેમ છે એવું

'અભણ' ન રહેવું મારે મમ્મી

જાણવું છે મારે સઘળું મમ્મી

ફૂલો એ કેમ ફૂલ છે ને

કાંટા એ કેમ કાંટા છે?

ફૂલો ને સૌ પ્રેમ કરે ને

કાંટા ને કેમ ધિક્કારે? મમ્મી

સૂરજ રોજ સવારે આવે

સાંજે કેમ કદી ન આવે?

ચાંદો કેમ વધતો જાય

પાછો કેમ ઘટતો જાય? મમ્મી

જાણવું છે મારે મમ્મી

સૌ ધર્મોમાં ફાંટા છે કેમ?

સૌ માને જો ભગવન ને તો 

ઘર ભગવનનાં જુદા છે કેમ? મમ્મી




મમ્મીના જવાબ

જાણવું જો તારે સઘળું 

જેવું જે છે તેવું છે કેમ

થોડું ઘણું હું બતાવું 

બાકી માટે ભણવું પડશે જાણવું

સૌને આપે ફૂલ સુગંધ 

માટે એને પ્રેમ કરે સૌ

કાંટા વાગી લોહી વહાવે 

માટે એને ધિક્કારે સૌ જાણવું

સૂરજ ઉગે 'તે' જ સવાર 

સૂરજ ડૂબે 'તે' છે સાંજ

વધતો ઘટતો કેમ ચાંદો 

જાણવાને ભણવું પડશે. જાણવું

ભગવન તો છે એક 

પણ ધર્મો એના રસ્તા છે

જેમ તારી સ્કૂલ છે એક 

ને રસ્તા સૌના જુદા છે જાણવું

અભણ અમદાવાદી

गुरुवार, फ़रवरी 22

वेदप्रकाश शर्मा कौन थे?

 


वेद प्रकाश शर्मा यानी वेद इस दुनिया में नहीं रहे. एक शख्सियत अलविदा हो गई. अब उनकी स्मृति शेष है. जिंदगी की जंग में वह हार गए. लेकिन कलम के इस योद्धा की उपलब्धियां हमारे एक पीढ़ी के बीच आज भी कायम हैं और जब तक वह पीढ़ी जिंदा रहेगी, उसे वो वदीर्वाला गुंडा बहुत याद आएगा. वेद जी ने 80 से 90 के दशक में सामाजिक उपन्यास का एक बड़ा पाठक वर्ग तैयार किया. आज वह पीढ़ी पूरी तरह जवान हो गई है. वह एक दौर था जब लोगों उनके उपन्यासों को लेकर अजीब दीवानगी रहती थी. उनकी कलम बोलती थीं. लोग नई सीरीज का इंतजार करते थे. सामाजिक और जासूसी उपन्यास पढ़ने वालों की एक पूरी जमात थी.
सस्पेंस, थ्रिलर उपन्यासों का एक बड़ा पाठक वर्ग था. वेद प्रकाश शर्मा, मोहन राकेश, केशव पंड़ित और सुरेंद्र मोहन पाठक जैसे उपन्यासकारों का जलवा था. उस दौर के युवाओं में गजब की दीवानगी देखने को मिलती थी. जहां जाइए, वहां युवाओं के हाथ में एक मोटी किताब मिलती थी.
लेखकों की इस जमात में उस दौर के युवाओं में किताबों में पढ़ने एक आदत डाली. हलांकि साहित्यिक उपन्यासों के प्रति लोगों में इतना लगाव नहीं देखा गया जितना की सामाजिक उपन्यासों को लेकर लोगों ने दिलचस्पी दिखाई. एक उपन्यास लोग दो-से तीन दिन में फारिग कर देते थे.
कुछ एक ऐसे लोगों को भी हमने देखा जिनको उपन्यास पढ़ने का बड़ा शौक था. कभी-कभी वे 24 घंटे में उपन्यास खत्म कर देते थे. उस पीढ़ी की जमात जब आपस में आमने सामने होती थी तो उपन्यासों और लेखकों पर बहस छिड़ जाती थी.
हमारे बगल में एक पड़ोसी हैं, अब उनकी उम्र तकरीन 52 साल हो चुकी है. जिस दिन वेद जी का निधन हुआ, उस दिन हम शाम हम चैपाल पर पहुंचे तो लोग यूपी के चुनावी चर्चा में मशगूल थे. तभी हमने यह संदेश दिया कि ‘वर्दीवाला गुंडा’ अब नहीं रहा. पल भर के लिए लोग स्तब्ध हो गए. फिर कयास लोग कयास लगाने लगे की कौन वदीर्वाला गुंडा..? क्योंकि उसमें 25 से 30 साल वाली साइबर और नेट युग की जमात भी रही. उसकी समझ में कुछ नहीं आया.
लेकिन जब हम उन उपन्यास प्रेमी की तरफ इशारा किया, क्या आप उन्हें नहीं जानते. कुछ क्षण के लिए वह ठिठके और अंगुली को वह दिमाग पर ले गए और तपाक से बोल उठे..क्या वेद प्रकाश जी नहीं रहे. हमने कहा हां. उन्हें बेहद तकलीफ पहुंची बाद में उन्होंने वेद जी और उनकी लेखनी पर प्रकाश डाला. रेल स्टेशनों के बुक स्टॉलों पर उपन्यासों की पूरी सीरीज मौजूद थी. सुंदर और कलात्म सुनहले अक्षरों में उपन्यास के शीर्षक छपे होते थे.
शीर्षक इतने लुभावने होते थे कि बिना उपन्यास पढ़े कोई रह भी नहीं सकता था. रेल सफर में समय काटने का उपन्यास अच्छा जरिया होता था. रहस्य, रोमांच से भरे जासूसी उपन्यासों में कहानी जब अपने चरम पर होती तो उसमें एक नया मोड आ जाता था. पाठकों को लगता था की आगे क्या होगा. जिसकी वजह थी की पाठक जब तक पूरी कहानी नहीं पढ़ लेता था सस्पेंस बना रहता था. उसे नींद तक नहीं आती थी.
हमारे एक मित्र हैं, उनकी लोकल रेल स्टेशन पर बुक स्टॉल है. उन दिनों उपन्यास से अच्छा कमा लेते थे. उनकी पूरी रैक उपन्यासों से भरी होती थी. उन्होंने बाकायदा एक रजिस्टर बना रखा था जिसमें किराए पर वेद जी और दूसरे लेखकों के उपन्यास पाठक ले जाते थे. उन दिनों उपन्यासों की कीमत भी मंहगी होती थी. लिहाजा, कोई इतना अधिक पैसा नहीं खर्च कर सकता था.
दूसरी वजह थी, एक बार कोई कहानी पढ़ ली जाती थी तो उसकी अहमियत खत्म हो जाती थी, उस स्थिति में फिर उसका मतलब नहीं रह जाता था. इसलिए लोग किराए पर अधिक उपन्यास लाते थे. इससे बुक सेलर को भी लाभ पहुंचता था और पाठक को भी कम पैसे में किताब मिल जाती थी. लेकिन किराए का भी समय निर्धारित होता था.
एक से दो रुपये प्रतिदिन का किराया लिया जाता था. जिन सीरीजों की अधिक डिमांड थी वह किराए पर कम उपलब्ध होती थी. 1993 में वेद जी का उपन्यास ‘वर्दीवाला गुंडा’ सामाजिक और जासूसी एवं फतांसी की दुनिया में कमाल कर दिया. इसी उपन्यास ने वेद को कलम का गुंडा बना दिया. जासूसी उपन्यास की दुनिया में उनकी दबंगई कायम हो गई.
कहते हैं कि बाजार में जिस दिन ‘वर्दीवाला गुंडा’ उतारा गया, उसी दिन उसकी 15 लाख प्रतियां हाथों-हाथ बिक गई थीं. इस उपन्यास ने बाजार में धूममचा दिया. इसकी आठ करोड़ प्रतियां बिकीं. वेद प्रकाश शर्मा के जीवन और रचना संसाद की सबसे बड़ी उपलब्धि थी.
इस उपन्यास में उन्हें इतनी बुलंदी दिलाई कि वह प्रतिस्पर्धियों से काफी आगे निकल एक नई पहचान बनाई. इस पर ‘पुलिसवाला गुंडा’ नाम की फिल्म भी बनी. उनके दूसरे उपन्यासों पर भी कई फिल्में बनीं. फिल्मों में उन्होंने स्क्रिप्ट राइटिंग भी किया. इसके अलावा दूर की कौड़ी, शाकाहारी खंजर जैसे चर्चित उपन्यास लिखे.
उन्होंने 170 से अधिक उपन्यास लिखा. विजय और विकास उनकी कहानियों के नायक हुआ कतरे थे. उनकी स्क्रिप्ट पर शशिकला नायर ने फिल्म ‘बहू मांगे इंसाफ’ बनाई.
वेद के पिता का नाम पंडित मिश्री लाल शार्मा था. वह मूलत: मुजफ्फरनगर के बिहरा गांव के निवासी थे. वेद एक बहन और सात भाइयों में सबसे छोटे थे. उनके कई भाइयों की प्राकृतिक मौत हो गई थी. पिता की मौत के बाद उन्हें आर्थिक संकटों का सामना करना पड़ा. उनकी पारिवारिक और माली हालत बेहद खराब थी.
लेकिन कलम की हठवादिता ने उन्हें दुनिया का चर्चित उपन्यासकार बनाया. उनके तीन बेटियां और एक बेटा शगुन उपन्यासकार है. मेरठ आवास पर उन्होंने 17 फरवरी को इस दुनिया से रुख्सत लिया. बदलती दुनिया में आज इन उपन्यासों का कोई वजूद नहीं है.
यह सिर्फ रेलवे बुक स्टॉलों और वाचनालयों के अलावा घरों की शोभा बने हैं. इन्हें दीमक चाट रहें. साहित्य और उपन्यास की बात छोड़िए सामाजिक और जासूसी उपन्यासों को कोई पढ़ने वाला नहीं है. किताबों और पाठकों का पूरा समाज ही खत्म हो गया है. अब दौर साइबर संसार का है. इंटरनेट पीढ़ी को किताबों की दुनिया पसंद नहीं और न वह इसके बारे में अपडेट होना चाहती है.
साहित्य और समाज से उसका सरोकार टूट गया है. सिर्फ बस सिर्फ उसकी एक दुनिया है, जहां पैसा, दौलत और भौतिकता एवं भोगवादी आजादी के सपने और उसका संघर्ष है. निरीह और निर्मम साइबर संसासर ने हमारे अंदर एक अलग दुनिया का उद्भव किया है.
इसका सरोकार हमारी सामाजिक दुनिया से कम खुद से अधिक हो चला है. साहित्य, पुस्तकें और पाठकीयता गुजने जमाने की बात हो गई है. जिसकी वजह है कि हम निरीह और निरस संसार का निर्माण कर रहे हैं, जिसमें बेरुखी अधिक है मिठास की रंग गायब है. चेहरे पर बिखरी वह मासूमिय और मुस्कराहट दिलों पर आज भी राज करती है.
तुम बहुत याद आओगे वेद.. बस एक विनम्र श्रद्धांजलि!
(लेखक प्रभुनाथ शुक्ल स्वतंत्र पत्रकार हैं, ये लेखक के निजी विचार हैं)

रामनाम (पार्ट - 02)

पार्ट - 2 (कल का अनुसंधान)



शिवजी ने तीसरा उपाय आजमाया; विषधर नाग को गले में धारण कर लिया। भोलेनाथ ने सोचा की विषधर नाग मेरे गले में स्थित सागरवाले कातिल विष को ग्रहण कर लेंगे। सरल भाषा में समझें तो विष का भोग लगा लेंगे। विषैले नाग को भला विष से कैसा भय? मगर भोलेनाथ ने जैसा सोचा वैसा हुआ नहीं। विषधर नाग की भी हिंमत नहीं हुयी कि वो हलाहल विष का भोग लगा लें, उस को भोजन बना लें।
इस तरह चंद्रमा, गंगा जी और विषधर नाग ने भोलेनाथ के गले से लेकर मस्तक पर स्थान तो प्राप्त कर लिया, लेकिन उन के संकट का समाधान नहीं किया।
भोलेनाथ ने फिर नया उपाय सोचा। वे वाराणसी नगर में बसते थे। वाराणसी का वातावरण गरम रहता है, सो भोलेनाथ ने सोचा 'चलो, कैलाश चला जाये, वहां का वातावरण शीतल है। उस शीतलता से शरीर में जो जलन है। वो शांत हो जाये। ये सोचकर भोलेनाथ कैलाश पर्वत पर चले गये। वहीं बस गये। कैलाश हिमाच्छादित स्थान है। वहां तो बरफ ही बरफ है। अति शीतल स्थान है। ठंडा प्रदेश है। वहां जाने से तो शरीर में लगी जलन अवश्य शांत होगी। सो भोलेनाथ वहां जाकर बस गये। मगर, फिर भी जलन शांत नहीं हुयी।
एक से बेहतर एक समर्थ उपाय आजमाने के बाद भी भोलेनाथ की समस्या का निराकरण नहीं हुआ। शरीर की जलन से मुक्ति नहीं मिली।
अब क्या किया जाये?
भोलेनाथ की ये दशा देखकर पार्वतीमाता हंसने लगे। भोलेनाथ देवी के हास्य को समझ न सके, इसलिये पूछा 'देवी, आप हंस क्यों रही है?
भगवती पार्वती ने हाथ जोड़कर उत्तर दिया।
'भगवान्,! आप के शरीर में जो अगन लगी है। मुझे भी उस आंच का असर हो रहा है, क्यों कि मैं आप के वामांग में उपस्थित हूँ । आपने जो उपाय आजमाये। वे भी मुझे मालूम है। परंतु प्रभु समुद्रमंथन से प्राप्त हलाहल विष के शमन के लिये किये गये ये उपाय सार्थक साबित नहीं हुये हैं। ये उपाय उस विष की असर की तीव्रता के सामने बहुत मामूली है।
'देवी, आप की बात सच है, लेकिन इस बात से आप हंसी क्यों?'
'प्रभु, क्षमा करना, मुझे हंसी इसलिये आयी कि चाहे केसा भी हलाहल विष हो। उस का उपाय एक क्षण में हो सकता है; और वो समर्थ उपाय आप के पास है। आप सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान होकर भी उसे ना आजमाकर एसे मामूली उपाय आजमा रहे हैं।
भोलेनाथ ने पूछा 'देवी, आप कौन से उपाय की बात कर रही हैं?'
पार्वती ने कहा - प्रभु, आप वो उपाय जानते हैं और आपने समग्र विश्व को कयी बार बताया है।'
ये सुनकर भोलेनाथ के नेत्र बंद हुये। नाभि में से उत्पन्न हुआ नाद कंठ द्वारा वाणी बनकर बहने लगा, राम ! राम ! राम ! राम ! राम !
और एक क्षण में भोलेनाथ के तन में लगी जलन शांत हो गयी। भोलेनाथ प्रगाढ़ समाधि में डूब गये। शरीर की अगन और मन के दहन का शमन करने का सर्वश्रेष्ठ और अचूक यानि रामबाण उपाय है,
राम का नाम
राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम
(प्रकरण - 2 रामनाम समाप्त)

भाणदेव लिखित गुजराती पुस्तक 'जीवन और धर्म' के बाकी पेरेग्राफ का अनुवाद
अनुवादक - महेश सोनी

राम नाम (पार्ट - 01)

 रामनाम

पार्ट - 1



देवों और असुरों ने अमृत प्राप्त करने के लिये साथ मिलकर समुद्रमंथन का प्रारंभ किया था। समुद्र में कयी औषधियां डाली गयी थी। मंदराचल को घोटा (यानि दही या छाछ बिलोने का साधन) बनाया गया। भगवान श्री विष्णु ने कच्छपावतार धारण कर के मंदराचल को आधार दिया। वासुकी नाग को बिलोने की रस्सी बनाया गया। वासुकी के मुख की ओर से असुरों ने और पूंछ की ओर से देवों ने ये कार्य आरंभ किया। 

देवों के लिये परमात्मा का विधान भी गहन होता है। अमृत के लिये मंथन किया था। लेकिन नीकला हलाहल विष! प्रश्न उपस्थित हुआ की अब इस का क्या करें? जब कष्ट आता है तब सब देवाधिदेव महादेव के पास जाते हैं; सो दोनों भोलेनाथ के पास गये। दोनों ने भोलेनाथ से विनती कि वे इस महाआपत्ति से सृष्टि को बचा लें: क्यों कि कातिल हलाहल विष के कारण सृष्टि के अस्तित्व ही जोखिम खडा हो चुका था।

शिवजी तो आशुतोष यानि तुरंत प्रसन्न होनेवाले हैं, क्यों कि वो भोलेनाथ हैं। सृष्टि को बचाने के लिये, देवों और असुरों का संकट दूर करने के लिये वे हलाहल पीने के लिये तैयार हो गये। भोलेनाथ ने विषपान तो कर लिया। लेकिन ना तो उसे पेट तक पहुंचने दिया: ना ही वमन किया। उन्होंने हलाहल को कंठ में धारण कर लिया। लेकिन विष तो विष था। भोलेनाथ के तन में जलन होने लगी। देव, असुर व मानव समस्या के समाधान के लिये महादेव के पास जा सकते हैं। लेकिन महादेव किस के पास जाकर समस्या का समाधान पूछें? उन्हें तो अपनी समस्या का समाधान स्वयं ही करना था। 

हलाहल विष के असर के कारण हो रही जलन से तन को मुक्ति कैसे दिलवाई जाये?  भोलेनाथ ने उपाय ढुंढ लिया। उन्हों ने चंद्रमा को मस्तक पर धारण कर लिया। चंद्रमा से निरंतर अमृत झरता है। भोलेनाथ ने सोचा था की चंद्र के अमृतस्त्राव से बदन को जलन से मुक्ति मिलेगी। लेकिन वैसा हुआ नहीं। विष आखिर हलाहल था। ऊस पर अमृतस्त्राव भी असर कर ना सका। 

अब क्या किया जाये? 

भोलेनाथ ने एक और उपाय सोचा। उन्होंने मस्तक पर गंगाजी को धारण कर लिया। गंगाजल आगन को शांत करता है। भोलेनाथ ने सोचा कि गंगाजल विष की अगन को दूर कर देगा। लेकिन एसा हुआ नहीं। 

अब कौन सा उपाय किया जाये? 

(अनुवाद जारी है)

जीवन और धर्म (लेखक- भाणदेव) के प्रकरण-2 रामनाम के पहले पांच पेरेग्राफ का अनुवाद

बाकी पेरेग्राफ का अनुवाद कल पेश करुंगा। 

अनुवादक - महेश सोनी

बुधवार, फ़रवरी 21

जीवन चक्र (अनुष्टुप छंद)

 कल का कल है आज

आज का कल है कल

जीवन चक्र है यार

जी ले इसे पल पल

कुमार अहमदाबादी 



राख और साख

 


जब समय बलवान होता है

राख की भी साख होती है

भाग्य जब कंगाल होता है

साख मिट्टी राख होती हैं

  कुमार अहमदाबादी 




राख की साख


 




राख(एशेज प्रतिष्ठा का प्रतीक)
मैंने आज सुबह एक मुक्तक पेश किया था। जिस में ये पंक्तियां है कि मैंने आज सुबह एक मुक्तक पेश किया था। जिस में ये पंक्तियां है कि जब समय बलवान होता है. राख की भी साख होती है। यूं तो ये इस संदर्भ में लिखी है. समय साथ देता है तब मामूली से मामूली आदमी की भी कदर होती है। लेकिन क्रिकेट के इतिहास में एसी घटना घट चुकी है। जो अक्षरः राख की साख को सिद्ध करती है। क्रिकेट के शौकीन जानते होंगे। इंग्लैंड और आस्ट्रेलिया के बीच खेली जाने वाली टैस्ट मैच सीरीज को एशेज सीरीज कहते हैं। एशेज क्या होती है? राख को अंग्रेजी में एशेज कहते हैं।
१८८१-८२ के आसपास इंग्लैंड आस्ट्रेलिया से मैच हार गया था। तब एक अंग्रेजी अखबार ने समाचार छापे कि कल इंग्लिश क्रिकेट की मौत हो गयी है। इस के अंतिम संस्कार के बाद इस की राख आस्ट्रेलिया को दे दी जाएगी। जो उसे अपने साथ ले जाएंगे।
घटना क्रम यहीं नहीं रुका। उस के बाद जो सीरीज हुयी। पूरे देश में उस राख को वापस लाने के लिये का वातावरण बन गया।
उस के बाद की सीरीज आस्ट्रेलिया में खेली गयी। इंग्लैंड ने वो सीरीज जीत ली। तब आखिरी टैस्ट मैच के बाद मेल्बर्न में कुछ आस्ट्रेलियाई महिलाओं ने बेल्स जला कर उस की राख को एक थैली में डाल कर अंग्रेज कप्तान को सीरीज को जीतने के लिये ट्रॉफी के रुप में दे दी।
इंग्लैंड के अखबारों ने समाचार छापे कि इंग्लैंड का सम्मान लौट आया।
इस तरह बेल्स की राख यानि एशेज(राख को अंग्रेजी में एशेज कहते हैं) दो देशों के बीच प्रतिष्ठा का मुद्दा बन गया।
उस के बाद आज तक(बीच में खेली गयी एक दो सीरीज को छोड़कर) एशेज खेली जा रही है।
दोनों देशों का हर खिलाड़ी एशेज जीतने में अपना योगदान देना चाहता है। क्यों? क्यों कि उस एशेज यानि राख की भी अपनी एक साख है, शान है, इज्जत है, रुतबा है। उसी को ध्यान में रखकर ये पंक्तियां लिखी है कि
जब समय बलवान होता है
राख की भी साख होती है
कुमार अहमदाबादी
(फोटो में उसी मैच के समाचार हैं) होता है. राख की भी साख होती है*। यूं तो ये इस संदर्भ में लिखी है. समय साथ देता है तब मामूली से मामूली आदमी की भी कदर होती है। लेकिन क्रिकेट के इतिहास में एसी घटना घट चुकी है। जो अक्षरः राख की साख को सिद्ध करती है। क्रिकेट के शौकीन जानते होंगे। इंग्लैंड और आस्ट्रेलिया के बीच खेली जाने वाली टैस्ट मैच सीरीज को एशेज सीरीज कहते हैं। एशेज क्या होती है? राख को अंग्रेजी में एशेज कहते हैं।
१८८१-८२ के आसपास इंग्लैंड आस्ट्रेलिया से मैच हार गया था। तब एक अंग्रेजी अखबार ने समाचार छापे कि कल इंग्लिश क्रिकेट की मौत हो गयी है। इस के अंतिम संस्कार के बाद इस की राख आस्ट्रेलिया को दे दी जाएगी। जो उसे अपने साथ ले जाएंगे।
घटना क्रम यहीं नहीं रुका। उस के बाद जो सीरीज हुयी। पूरे देश में उस राख को वापस लाने के लिये का वातावरण बन गया।
उस के बाद की सीरीज आस्ट्रेलिया में खेली गयी। इंग्लैंड ने वो सीरीज जीत ली। तब आखिरी टैस्ट मैच के बाद मेल्बर्न में कुछ आस्ट्रेलियाई महिलाओं ने बेल्स जला कर उस की राख को एक थैली में डाल कर अंग्रेज कप्तान को सीरीज को जीतने के लिये ट्रॉफी के रुप में दे दी।
इंग्लैंड के अखबारों ने समाचार छापे कि इंग्लैंड का सम्मान लौट आया।
इस तरह बेल्स की राख यानि एशेज(राख को अंग्रेजी में एशेज कहते हैं) दो देशों के बीच प्रतिष्ठा का मुद्दा बन गया।
उस के बाद आज तक(बीच में खेली गयी एक दो सीरीज को छोड़कर) एशेज खेली जा रही है।
दोनों देशों का हर खिलाड़ी एशेज जीतने में अपना योगदान देना चाहता है। क्यों? क्यों कि उस एशेज यानि राख की भी अपनी एक साख है, शान है, इज्जत है, रुतबा है। उसी को ध्यान में रखकर ये पंक्तियां लिखी है कि
जब समय बलवान होता है
राख की भी साख होती है
कुमार अहमदाबादी
(फोटो में उसी मैच के समाचार हैं)


रविवार, फ़रवरी 18

अपनी अपनी दुनिया(रुबाई)



मीठे हों या खारे तन्हा हैं सब 

जलधारों के धारे तन्हा हैं सब

सब की अपनी दुनिया है दुनिया में

सागर सूरज तारे तन्हा हैं सब 

कुमार अहमदाबादी

बुधवार, फ़रवरी 14

मंगलवार, फ़रवरी 13

दुर्गम पर्वत माला


 कामिनीकायकान्तारे

मा संचर मनःपांथ तत्रास्ते स्मरतस्करः।।५३।।

रे मुसाफिर मन, कामिनी के काया रुपी जंगल में स्तनो के रुप में जो दुर्गम पर्वतमाला है। वहां मत जाना। क्यों कि वहां कामदेव नाम का चोर बसता है। 


श्री भर्तुहरी विरचित श्रंगार शतक के तिरेपनवें श्लोक का मनसुखलाल सावलिया द्वारा किये गये गुजराती भावानुवाद का हिन्दी भावानुवाद 

भावानुवादक - कुमार अहमदाबादी 

सरस्वती प्रार्थना

हे सरस्वती देवी, हे सरस्वती देवी

तेरी भक्ति में डूबा रहूं 

तेरी पूजा मैं करता रहूं

इतनी तू मुझ को शक्ति दे

हे सरस्वती देवी..........


शब्द की साधना चलती रहे

काव्य की धारा बहती रहे

कलम सत्कर्म करती रहे

इतनी तू मुझ को शक्ति दे

हे सरस्वती देवी...........


शब्द सदा रंग भरते रहे

मेघ धनुष भी बनते रहे

शब्द बाग खिलते रहे

सब को सुगंधित करते रहे

इतनी तू मुझ को शक्ति दे

हे सरस्वती देवी..........

कुमार अहमदाबादी

रविवार, फ़रवरी 11

मृगनयनीयों का दास

 शंभुस्वयंभुहरयो हरिणेक्षणानां

येनाक्रियन्त सततं गऋहकुम्भदासाः।

वाचामगोचरचरित्रविचित्रताय

तस्मै नमो भगवते मकरध्वजाय।। १ ।।

जिसने ब्रह्मा, विष्णु, महेश को हमेशा के लिये मृगनयनी सुंदरीयों के घर के काम करने वाला दास बना दिया था। जिस की वाणी से उस के विचित्र चरित्र का पता नहीं चलता। उस भगवान प्रेमदेव (कामदेव) को नमस्कार।


श्री भर्तुहरी विरचित श्रंगार शतक के पहले श्लोक के मनसुखलाल सावलिया द्वारा किये गये गुजराती भावानुवाद का हिन्दी भावानुवाद 

भावानुवादक - कुमार अहमदाबादी 

शुक्रवार, फ़रवरी 9

राम नाम से आराम (अनुष्टुप छंद)

(अनुष्टुप छंद)

जो भजेगा राम नाम

 उस के ही होंगे काम

जीवन होगा सफल

पायेगा सुख आराम

कुमार अहमदाबादी 

भज मन भज ले रे (अनुष्टुप छंद)


भज मन भज ले रे 

(अनुष्टुप छंद)

भज मन भज ले रे भज ले राम भजन

भज मन भज ले रे भज ले श्याम भजन


भज ले राम भजन भज ले श्याम भजन 

भज ले श्याम भजन भज ले राम भजन 


भज मन भज ले रे भज ले राम भजन

भज मन भज ले रे भज ले श्याम भजन 


भज ले राम भजन भज ले श्याम भजन 

भज ले श्याम भजन भज ले राम भजन

कुमार अहमदाबादी 

गुरुवार, फ़रवरी 8

અવિજ્ઞેય પ્રેમ વન [મુક્તક]

 અવિજ્ઞેય પ્રેમ વન
(મુક્તક) 

મંજુ ભાષિણી છંદ
લલગાલગા, લલલગા, લગાલગા 
 

ભર યૌવને નજરમાં ગુલાબ છે
કવનો અને હૃદયમાં ગુલાબ છે
મન, શું કહું મન વિશે, કહી દઉં
અવિજ્ઞેય પ્રેમ વનમાં ગુલાબ છે
અભણ અમદાવાદી

અવિજ્ઞેય = જાણી ન શકાય એવું
અભણ અમદાવાદી

સરવાળે ભાગાકાર (મુક્તક)


આ જિન્દગીનો સાર છે 
સરવાળે ભાગાકાર છે 
સરખી છે સૌની યોગ્યતા 
સૌની ચિતા તૈયાર છે 
અભણ અમદાવાદી

बुधवार, फ़रवरी 7

ચરણો(પ્રમિતાક્ષરા છંદ)

ચરણો

(મુક્તક)

(પ્રમિતાક્ષરા છંદ)

ફળશે સદા સુમતિ ના ચરણો

ચડશે સદા પ્રગતિ ના ચરણો

કડવાશ છે કુમતિ આ સમજો

ફળતા નથી કુમતિ ના ચરણો

અભણ અમદાવાદી



रविवार, फ़रवरी 4

मौसम का नशा (रुबाई)

 आज मौसम में एक मस्ती सी छायी है। सर्दी का असर है। राजस्थानी भाषा में जिसे फूलगुलाबी सर्दी कही जाती है। वातावरण में वैसी सर्दी है। एसी सर्दी में एसे दुल्हे के मन की बात को रुबाई में कहने का प्रयास किया है। जिस की नयी नयी शादी हुयी हो। 


आंखो में शरारत का नशा छाया है

मौसम की नजाकत का नशा छाया है

दुल्हन मिल जाने से प्यासे मन पर

मदमस्त कयामत का नशा छाया है

कुमार अहमदाबादी

कहां बसना चाहिये (भावार्थ)


आवासः क्रियतां गांगे पापहारिणि वारिणी

स्तनद्वये तरुण्या वा मनोहारिणि वारिणी।। ३८

या तो पाप हरनेवाली गंगा के किनारे पर बसना चाहिये; या फिर तरुणी या रसिक स्त्री के दोनों स्तनों में बसना चाहिये।


श्री भर्तुहरी विरचित श्रंगार शतक के श्लोक के मनसुखलाल सावलिया द्वारा किये गुजराती में किये गये भावानुवाद का हिन्दी भावानुवाद 

हिन्दी अनुवादक - कुमार अहमदाबादी

 


उत्तम उपदेशक श्रेष्ठ श्रोता

 सुप्रभात 🙏

   उपदेश्योपदेष्टृत्वात तत्सिद्धि:।।

   इतरथान्धपरम्परा।।

                      सांख्य सूत्र

     अर्थात जब उत्तम श्रेष्ठ उपदेशक होते हैं

अच्छे श्रोता होते हैं तब अच्छे धर्म अर्थ काम और मोक्ष सिद्ध होते हैं।जब उत्तम उपदेशक और श्रोता नही रहते तब अंध परम्परा चलती है।

               फिर पुनः जब सत्पुरुष उत्पन्न होकर सत्य उपदेश करते हैं तभी अंध परम्परा नष्ट होकर प्रकाश की परम्परा चलती है।

                सर्वेषां सुदिनं भवतु।🌞

                                 मीरा

(मीरा जी संस्कृत की ‌जानकार हैं, विशेषज्ञ हैं।)

घास हरी या नीली

*घास हरी या नीली* *लघुकथा* एक बार जंगल में बाघ और गधे के बीच बहस हो गई. बाघ कह रहा था घास हरी होती है. जब की गधा कह रहा था. घास नीली होती है...