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गुरुवार, दिसंबर 13

कीचड़

संयम के स्तर से जब गिरते हैँ
मुख से शब्दोँ के शर चलते हैं

तेरी धोती काली टोपी भी
जूते अक्सर फ़िकरे कसते हैं 
कितना ही इक दूजे को कोसेँ
दिल्ली में संग चारा चरते हैं

भइया सुन सुन के थक चुके हैं
नेतागण कीचड़ में रहते हैं
यूँ तो पुतलों में होती ना जान
पर पुतले मंत्री अब बनते हैं

ना स्नातक न बसाया घर जिस ने
पुतले उस के चमचे बनते हैं

टीकट के प्यासे पल दो पल में
प्यास बुझाने सोच बदलते हैं
कुमार अहमदाबादी


रविवार, दिसंबर 2

गुरुवार, नवंबर 15

संगम (जय ईसु कृष्ण)

ईस दोस्ती को तोड़ दे किस में वो दम है
ये दोस्ती दोस्ती नहीं धाराओँ का संगम है
कुमार अहमदाबादी

पहेली

लोक नजर पहेली है
कवि की कौन सहेली है
शब्दों में राज़ ये कह दूँ
कविता बड़ी अलबेली है
कुमार अहमदाबादी

सवालों के जवाब

जिन्दगी से जुडे कुछ सवालों के उत्तर किताबों में नहीं मिलते।
दोस्त सुन ईत्र भंडार कागज पे चित्रित गुलाबों में नहीं मिलते।
कुमार अहमदाबादी

सोमवार, नवंबर 12

चोरी

आँखों से सुरमे की चोरी कल होती थी।
आज तो आँसु भी चोरी हो जाते हैं॥

शब्द; जिन्हेँ माँ की गोद मिल जाती है।
छाँव पाकर, मधुर लोरी हो जाते हैं॥

शौक गद्दी का, खूँखार होता बड़ा।
सभ्यता छोड़ सब घोरी हो जाते हैं॥
खाने पीने का फरमाते हैं शौक जो।
देखते देखते बोरी हो जाते हैं॥
कुमार अहमदाबादी 

न खेलो सनम

आग से यूँ न खेलो सनम हाथ अपना जला लोगे।
ईश्क का ईम्तहाँ लेने में प्यार अपना गंवा दोगे॥

हमसफर साथ हो तो कटेगा सफर कामयाबी से।
लक्ष्य पाने से पहले सफर काटने का मजा लोगे॥

स्वप्न प्रासाद जब टूट जाये तो मत रोना, क्या! क्यों कि।
रोने से होगा क्या! रो के प्रासाद फिर से बना लोगे?
ना करो शर्म मेरे सनम, प्यार स्वीकार कर के तुम।
फूलों से धरती को सपनों से आसमाँ को सजा लोगे॥

सांसो से रिश्ता जोड़ा है संभव नहीं छोड़ दे 'कुमार'।
लाख कोशिशें कर के गुलों से महक क्या हटा लोगे?
कुमार अहमदाबादी 

भाव शून्य

ईन्सां को यहाँ क्युं ढुंढ रहे हो
उस का पता क्युं पूछ रहे हो
रहता नहीं अब ईन्सां यहाँ
भाव शून्य है अब ये जहाँ..ईन्सां

फूल लुटते कुचले जाते
चौराहोँ पे मसले जाते
पानी कम व खून ज्यादा
आज जहाँ के लोग बहाते..ईन्सां

जिम्मेदार ही चोर बनते
राजा उन को छत्र धरते
मिल बाँट के पैसा खाते
बैंक झूठे झूठे खाते..ईन्सां

लक्ष्मी की सब पूजा करते
गृहलक्ष्मी को आग लगाते
दान दहेज की भिक्षा से
घर अपना जो आज सजाते..ईन्साँ

न्यायतुला व थर्मोमीटर
ये भी बनने लगे हैं चीटर
काले कोट का क्या कहना
काला रंग बना है गहना..ईन्साँ

सूनामी या बाढ़ की विपदा
भूकंप जैसी कोई आपदा
सब को अब ये मौका बनाते
मौकों से ये घर भर लेते...ईन्साँ

जिस के सर पे नेता टोपी
नीयत उस की सब से खोटी
ये ही है वो काँटा जिस ने
सच की कर दी बोटी बोटी...ईन्साँ
कुमार अहमदाबादी 

जला डाली

मीटता नहीँ इतिहास अग्नि से चाहे।
आपने मेरी सारी चिट्ठियाँ जला डाली॥

गुजरे पलों से यूँ टूटता नहीं रिश्ता।
बामियान में चाहे मूर्तियाँ जला डाली॥

चाँद को सज़ा मिलेगी जरूर मिलेगी।
चाँद ने हमारी रूबाइयाँ जला डाली॥
है गुनाह ये माफी ईस की नहीं होती।
आपने हसीं सुंदर कृतियाँ जला डाली॥

संघर्ष दिलों जां से जिस के लिए किया था।
स्वलहू ने ही देखो हड्डियाँ जला डाली॥

जो सकून के किनारे उतार देती वे।
कट्टरों ने वे सारी कश्तियाँ जला डाली॥

न्याय पालिका सूर्य की रही सदा न्यायी।
दो पलों में अन्यायी शक्तियाँ जला डाली॥
कुमार अहमदाबादी 

कलम के सिपाही

कलम के सिपाही हम है, दुश्मन की तबाही हम हैं।
पी.एम. के भाई हम है, परबत व राइ हम हैं ।.... कलम के

सत्य की शहनाई और जूठ की रुसवाई हम हैं।
शब्द की सच्चाई और अर्थ की गहराई हम हैं..... कलम के

चिंतक का चिंतन और दर्शन का मंथन हम हैं।
धर्मों का संगम और एकता का बंधन हम हैं ... कलम के

विचार की रवानी और घटना की जुबानी हम हैं।
जीवन की जवानी और जोश की कहानी हम हैं...कलम के

रचना की खुद्दारी और भाषा के मदारी हम हैं।
प्याले की खुमारी और हार-जीत करारी हम हैं....कलम के

पेट की लाचारी और मानसिक बीमारी हम हैं।
ममता एक कंवारी और जिम्मेदार फरारी हम हैं....कलम के

रूप के शिकारी और वीणा के पुजारी हम हैं।
दुल्हे की दुलारी और मीरा के मुरारी हम हैं....कलम के

प्रेम की पुरवाई और जानम की जुदाई हम हैं।
तन्हाई में महफ़िल व महफ़िल की तरुणाई हम हैं.... कलम के

सपनों के रचैता और अर्थ हीन फजीता हम हैं।
भावों की सरिता और 'कुमार' की कविता हम हैं... कलम के

[ये कविता तब लिखी गई थी जब बाजपाईजी पी.एम. थे]
[आज सी.एम. {नरेन्द्र मोदी} लिखा जा सकता है]
कुमार अहमदाबादी 

शनिवार, नवंबर 10

कंक्रीट के पहाड़

आज कल कंक्रीट के पहाड़ों में रहते हैं
सुनिए सब हम कैसा जीवन जीते हैं

दो रोटी के लिए जानवर सा भटकते हैं
चैन की दो साँस को हमेशा तरसते हैं

जब भी दो कदम तरक्की करते हैं
पडोशी की आंख में हमेशा खटकते हैं

तन्हाई में तो शेर बन के गरजते हैं
मज़बूरी के सामने कत्थक करते हैं

सिंहासन-क्रांति के मौके तो मिलते है
पर चुनाव से चाणक्य कहाँ पैदा होते हैं?

कहे कुमार सुनो ये जीवन के रास्ते हैं
यहाँ जीवन नहीं, मौत के दाम सस्ते हैं
 कुमार अहमदाबादी

खाली प्याली

शब्दों को भावरस में डूबोकर
ग़ज़ल कही पर ताली न मिली
करम किया ईतना महफिल ने
कभी किसी से गाली न मिली

शादी के बंधन में बँध गया पर
छेड़ करे जो वो साली न मिली
भूखा न रखा तकदीर ने चाहे
बत्तीस पकवान की थाली न मिली

पूछे कोई जवाब तैयार थे मगर
हुस्न की अदा सवाली न मिली
रुप ने किया खूब सिंगार पर
चेहरे पे शर्म की लाली न मिली

रेगिस्तान में भटकता रहा मगर
प्यार की एक भी प्याली न मिली
बारहा 'कुमार' ने पुकारा मौत को
पर कभी कोई चिता खाली न मिली
 कुमार अहमदाबादी

सूर्य गीत

मुडें जब जब राहें तेरी...ओ मुडें जब (२)तो रुत का भी रुख पलटे के रुत (२) जिंद मेरी ये

तेरे आने से दिन ये आये ओ तेरे(२) के जाने से रात आये रे के जाने से(२) जिंद मेरी ये

कभी चाँद जो तुज पे छाए ओ कभी (२) तो अनहोनी हो के रहे रे क
े अनहोनी (२) जिंद मेरी ये

तेरे पीछे चले ये दुनिया ओ
तेरे पीछे (२) के भेद ये सब जाने रे के भेद(२)जिंद मेरी ये

तेरी इक करवट पे दुनिया ओ तेरी(२) ये थर थर थर कांपे रे के थर थर (२) जिंद मेरी ये

तू है राजा अपने घर का ओ तू है(२) के घर तेरा जग सारा रे के घर तेरा (२) जिंद मेरी ये

चाहे हिन्दु हो या मुसलमाँ ओ चाहे(२) के धूप तेरी सब पे आए रे के धूप(२) जिंद मेरी ये

अरे नाम तेरा सब जाने अरे नाम(२) के नाम तेरा रवि है रे के नाम (२) जिंद मेरी ये 
कुमार अहमदाबादी

ध्यान से

जो कहूँ वो बात सुनना ध्यान से।
बात कहना चाहता हूँ शान से॥
जो न बहके, साथ मेरे तू सनम।
फायदा क्या नैन मदिरा पान से॥
फूल से, माली को डरता देखकर।
आस क्या हो? आज की संतान से ॥
क़त्ल करके आदमी को आदमी।
फिर समाधि स्थल बनाता शान से॥
लूट के सौ आदमी, दे दान फिर।
मूछ देती ताव खुद पर शान से॥
शब्द टेढ़े हैं कटारी धारदार।
लाएँ न बाहर कटारी म्यान से॥
भूल छोटी सी बिगाड़े काम को।
माप ले के चीर फाड़ो थान से॥
फूल पे लाई जवानी वो बाहर।
रूप सारा झांकता परिधान से॥
गम न करना गर कभी जो भूल हो।
गलतियाँ होती यहाँ सुल्तान से॥
बारहा हो राज भटका वो 'कुमार'।
खोजता है रह फिर जी जान से॥
 कुमार अहमदाबादी

गुरुवार, नवंबर 8

सितारा

चाँद से टपककर रेत के कणों से कराती है चाँदनी
कणों से टकराकर दो आँखों में समाती है चाँदनी
नजारा तब रेत का बहुत प्यारा लगता है
एक एक कण रेत का सितारा लगता है
कुमार अमदावादी

मंथन

(1) सागर मंथन मोती देता
मंथन मन का विचार
(2) मंथन ईतना काहे करना
जीना जब दिन चार
(1)धरा का मंथन धान देता
मंथन नभ का विहार
(2) मंथन चाहे जितना कर लो
बस में नहीं कुछ यार

(1)भाव मंथन कविता देता
मंथन कला सिंगार
(2)मंथन में जो डूब जाता
कभी न पाता करार

(1)मंथन पल का सदियाँ देता
मंथन घर की बहार
मंथन जीवन चिंतन है
मंथन से ना बचना यार

(2) सागर मंथन विष भी देता
मंथन बस में रखना यार
मंथन चिंतन हो न हो पर
होती नैया गंगा पार
कुमार अमदावादी
दो पात्रों के बीच की चर्चा को काव्य रुप देने का प्रयास किया है।

उपवन का डर

खाद नहीं खून से सींचा, रिश्ता क्या वो अब टूटेगा?
नए रिश्ते में बँधने से क्या? साथी मेरा अब छुटेगा!!!

साथ जिस का पाकर मैंने, जिंदगी के रस को जाना।
जीवनभर के साथ का; वादा क्या वो अब टूटेगा?

नभ से तारे टूटेंगे व चाँद भी गुम हो जाएगा।
सूरज भी तब बुझ जाएगा; चाँद मेरा जब रुठेगा॥

माना वो भी लाठी है, गुलशन के दो माली की।
फ़र्ज़ अपना वो निभाएँ; हक मेरा ना पर छुटेगा॥

डर डर के ये सोचती हूँ, हाँ कहूँ या ना कहूँ मैं।
बाग अपना तू खिला पर; 'उपवन' से क्या तू रुठेगा?

जिंदगी की जं..ग में, हर पल जिस ने साथ दिया।
खास मोर्..चे पे आके, साथ क्या वो अब छुटेगा?

चाहे जो भी हो ए दोस्त; वादा मेरा तुज से है:
मनमंदिर में तू ही रहेगा, साथ तो तन का छुटेगा॥

जब जरुरत हो मेरी तू: याद मुज को कर लेना।
आउँगी मैं बन के हवा; जग सारा पीछे छुटेगा॥
कुमार अहमदाबादी 

नाकाम जीवन

सफर में हो गया मैं अकेला।
पथ में ठोकर खाने के बाद॥
देह को अब चिता चाहिये।
नाकाम जीवन जीने के बाद॥

खुद से मैं जुदा हो जाता हूँ।
दो घूंट ज़हर पीने के बाद॥
ज़हर से ही मिलेगी मंजिल।
नाकाम जीवन जीने के बाद॥

सच है कि किस्मत खराब है।
स्वीकार है दर्द सहने के बाद॥
सफ़र की तैयारी कर लूँ अब।
नाकाम जीवन जीने के बाद॥

कुछ नहीं कहना अब मुझे।
दिल के छाले फोडने के बाद॥
दुआ चाहिये सफर के लिये।
नाकाम जीवन जीने के बाद॥

किसी से नहीं कोई शिकायत।
अलविदा कह देने के बाद॥
उठाओ यारोँ अर्थी 'कुमार' की।
नाकाम जीवन जीने के बाद॥
कुमार अमदावादी

ईतिहास के छाले

ईस शहर में जीने के अंदाज निराले हैं।
होठोँ पे लतीफे हैं आवाज में छाले हैं॥

एक दो राहे पर यहाँ के जीनेवाले हैं।
दिल में राज है और होठोँ पे ताले हैं॥

त्रिशूल और तारा चल रहें चालें हैं।
जुबाँ पे शहद है विचारों में भाले हैं॥

ईस देश की राजनीती के जो साले हैं।
वोट के पक्के हैं शासन में बेताले हैं॥

जिंदादिली से जीते कुछ एसे जियाले हैं।
भरे दिखते पर खाली जिन के प्याले हैं॥

मेरे वतन के सच्चे जो रखवाले हैँ।
मन में लगन हैं पर पड़ गये ठाले हैं॥

'कुमार' ईलाज है? ये ईतिहास के छाले हैं।
कुछ फूट चुके हैं कुछ फूटनेवाले हैं॥
कुमार अहमदाबादी 

माँ की वेदना

रंग लाया है आज वो बारुद
तुमने जो मेरे सीने में उतारा था।
प्रयोग जिस पे तुमने किये और
सहे जिसने दिल वो हमारा था॥

क्या तुम जानते हो ये हकीकत?
विस्फोट चाहे वो तुम्हारा था।
आग मेरे तन में उतरी थी जब
तुमने 'विज्ञान' को निखारा था॥


न जाने कितने घाव दिये उस
बेटे ने जो सब से दुलारा था।
माँ हूँ ना कई बार किया मैंने
विनाश की ओर ईशारा था॥

मगर हर बार हाँ हर बार
ईतिहास को बेटों ने नकारा था।
ईसीलिये अब भुगतोगे बारहा
सुनामी तो एक छोटा सा नजारा था॥

जैसी करनी वैसी भरनी
घाव बोने का काम तुम्हारा था।
काटनी पड़ेगी वही फ़सल
जैसा खेत तुमने संवारा था॥
कुमार अहमदाबादी   

मंगलवार, अक्तूबर 23

प्रेम तृप्ति

तृप्ति के सागर में बहने दो
मादक तीर की चुभन सहने दो

रोको ना साजन तुम, अधखुली
आँखों को फरमाइश करने दो

यौवन कुंभो पर बेसब्री छाई
मर्दन से यौवन गढ़ ढहने दो

जुल्फों ने पी ली है रस मदिरा
पागल सी हँसती है हँसने दो

होठों को अरमाँ है गहनों का
होठों को होठों पर सजने दो

नस नस वीणा सी झंकृत कर दो
सांसो की बांसुरी बजने दो

मीठी मीठी प्यारी प्यारी सी
रस मिलन माधुरी चखने दो

उफ़, कितना अच्छा लगता है ये
धीरे धीरे कंपन सहने दो

साजन तृप्ति शिखर पर है अब
स्वर्णिम रस झरने को झरने दो
कुमार अहमदाबादी

बुधवार, अक्तूबर 17

प्रणय की गहराई

 
मुझे ये चित्र बहुत काव्यात्मक लगा। ये चित्र अपने आप में ग़ज़ल सी मधुरता समेटे हुए है। चित्र में प्रदर्शित पृष्ठभूमि, भाव-मुद्रा, रंग संयोजन काफी अर्थपूर्ण हैं। आइये इस चित्र की गहराई में डूबकर रसानंद लें।

चित्र को सर्वप्रथम प्राथमिक द्रष्टि
से देखते हैं। चित्र प्रेमी युगल का है। युगल समंदर किनारे प्रणयमुद्रा में मस्त है। पुरुष स्त्री को थामे हुए है। दोनों एक दुसरे की आँखों में आंखे डाले प्रणयोन्माद में खोये हुए हैं। शारीरिक संतुलन लाजवाब है। दोनों के वस्त्र श्वेत हैं। पृष्ठभूमि में समंदर, आकाश तथा क्षितिज नजर आ रहे हैं।

आइये अब जरा गहराई में जाते हैं।

स्त्री कोमल होती है। स्त्री [मादा] ज्यादातर उसे थाम सकनेवाले, उसे संभाल सकनेवाले पुरुष की तलाश में रहती है। स्त्री उसे थामनेवाले पुरुष को [नर को] तन मन समर्पित करती है। यहाँ पुरुष की बाँहों में खोई स्त्री के बदन में एक बेफिक्री है। युगल की मुद्रा, चेहरों के हावभाव संकेत देते हैं कि दोनों के मन बदन में प्रणय लहरें उठ रही हैं। स्त्री का हवा में उठा पैर दर्शाता है कि दोनों चरम सीमा प्राप्त करने के लिए 'उडान' भर चुके हैं। श्वेत रंग सुलह,शांति, एकाग्रता, समझौते एवं पवित्रता का प्रतिक है। अब गौर कीजिये दोनों के वस्त्र श्वेत हैं। वस्त्र सूचित कर रहे हैं। दोनों पवित्र कार्य में व्यस्त हैं। ये सच भी प्यार कोई गुनाह नहीं। सच्चा प्यार प्रार्थना से कम पवित्र नहीं होता। दोनों के वस्त्रों में कोई दाग नहीं है। जो सूचित करता है कि युगल पवित्र है। श्वेत रंग समझौते व समर्पण का प्रतिक भी है। आप को पता होगा युद्ध के दौरान समझौते या समर्पण के लिए श्वेत ध्वज लहराया जाता है। यहाँ संकेत ये है कि दोनों एक दुसरे के समक्ष जो समर्पण कर रहे हैं। स्वेच्छा व आपसी सहमती से कर रहे हैं।

अब पृष्ठभूमि व उस के रंगों के बारे में समझने का प्रयास करते हैं। समंदर व नीला रंग गहराई का प्रतिक है। आकाश का रंग भी नीला होता है यानि नीला रंग विशालता तथा अनंतता का प्रतिक भी है। फोटोग्राफर शायद ये दर्शाना चाहता है कि सच्चा प्यार समंदर सा गहरा तथा आकाश सा विशाल व अनन्त होता है। युगल कि तन्मयता व पृष्ठभूमि का रंग कह रहे हैं। सच्चे प्यार के भावों में गहराई व विशालता होती है। जहाँ धरती व आकाश मिलते हुए दिखाई देते हैं उस रेखा को क्षितिज रेखा कहा जाता है। याद रहे वो मिलन दिखाई देता है होता है या नहीं आप अच्छी तरह जानते हैं। इस चित्र में क्षितिज रेखा के पास समंदर का नीला रंग गहरा हो गया है। मिलन की घड़ियों में 'रंग' 'गहन' हो ही जाता है।


आखिर में चित्र के उस हिस्से कि बात करते हैं। जहाँ ये 'मिलन' हो रहा है। वो है समंदर की रेत। रेत यानि धरती। व्यक्ति वास्तविकता की भूमि पर रहें, वास्तविक सोच रखे तो ही प्रणय साकार होता है।

सार देखें तो,
वास्तविकता के धरातल पर साकार होनेवाला प्रणय हमेशा पवित्र, संतुलित, गहरा और विशाल होता है।
महेश सोनी / कुमार अहमदाबादी

सोमवार, अक्तूबर 15

कौन हूँ मैं क्या लाया हूँ

 कौन हूँ मैं और क्या मैं लाया हूँ
जाउँगा तो छोड़ के क्या जाउँगा

धरा हूँ मैं परिवार ले के आई हूँ
जाउँगी तो शून्य छोड़ के जाउँगी
 
हवा हूँ मैं साँस ले के आई हूँ
जाउँगी तो विनाश छोड़ के जाउँगी
 
 
पानी हूँ मैं जीवन ले के आया हूँ
जाउँगा तो मौत छोड़ के जाऊँगा
 
 
जीव हूँ मैं शरीर ले के आया हूँ
जाउँगा तो यादें छोड़ के जाउँगा
 
 
फूल हूँ मैं रुप ले के आया हूँ
जाउँगा तो खुशबू छोड़ के जाउँगा
शून्य हूँ मैं गणित ले के आया हूँ
जाउँगा तो उलझन छोड़ के जाउँगा
 
वक्त हूँ मैं इतिहास ले के आया हूँ
जाउँगा तो इतिहास छोड़ के जाउँगा
 
 
ज्ञान हूँ मैं शांति ले के आया हूँ
जाउँगा तो अशांति छोड़ के जाउँगा
 

'कुमार' हूँ मैं विचार ले के आया हूँ
जाउँगा तो शब्द छोड़ के जाउँगा


कुमार अहमदाबादी

जिन्दगी



जिन्दगी प्यार है
प्यार संसार है


गुदगुदाए सदा
मीठी तकरार है


रोक दे वंश को
तेज तलवार है

क्या हुआ आज क्यों?
धार बेकार है

पाक ये प्रेम है
गुल हिना खार है

हार में जीत है
जीत में हार है

छंद लय सी मिलीँ,
साँसें दो चार है

दाम मत पूछना
ये न बाजार है

ये हिमालय तो है
साथ ही थार है


देख ना यूँ सनम
आँख तलवार है

आज भी यार की
साँस से प्यार है


रंग में डूबी है
साँस दिलदार है
कुमार अहमदाबादी/निकेता व्यास

ज्ञान गंगा




यहाँ की ज्ञान-गंगा में समंदर डूब जाते हैं
 ये भारत है यहाँ आकर सिकंदर टूट जाते हैं

मधुशाला को शब्दों में मिलाकर जो पिलायेँ तो,
हठीले जुल्म के हाथोँ से खंजर छूट जाते हैं
 

कला की साधना का दौर ब्रह्मानंद देता है
सुहाने श्वेत काले सारे मंज़र छूट जाते हैं

स्वदेशी स्टोर में फल देशी मुझ को बेचकर, देखो
नफा सारा विदेशी बन के बंदर लूट जाते हैं
कुमार अहमदाबादी

गुरुवार, अक्तूबर 11

नाग हो तुम,


 जानता हूँ मैं सनम ये नाग हो तुम
डंख मारे चोंच से वो काग हो तुम

खोखला दावा वफ़ा का है तुम्हारा
एक पल मैं बैठ जाता झाग हो तुम


चाँद का दर्जा दिया है तुमने मुज को
श्वेत दामन में लगा इक दाग हो तुम


  जो गिराएँ एक पल में लाख लाशें
खून पी के जो पला वो भाग हो तुम

 जब सुनें तो झुंझलायें कोषिकाएँ
लय से भटका बेसुरा इक राग हो तुम

 घर हजारों खाक तुमने कर दिए हैं
रूप की तीली में सिमटी आग हो तुम


 कोख को बरसात में भी भर सके ना,
खिल सका ना जो कभी वो बाग़ हो तुम.
कुमार अहमदाबादी

बुधवार, अक्तूबर 10

आह

ये जख्मी दिल से निकली आह है।
कोई न हो उस का मन में चाह है।
गर एक भी खुशी मिली बेवफा को,
तो,ईश्वर से भी टकराने की राह है।
कुमार एहमदाबादी

रविवार, अक्तूबर 7

भाग्यशाली [ग़ज़ल]

बहुत हूँ भाग्यशाली क्योंकि भाता हूँ सनम को मैं।

कुशल वो माली, पलकों पे बिठाता हूँ सनम को मैं॥

हाँ, मैं स्वीकार करता हूँ कि मैं; चोरी भी करता हूँ।
लबों पे मीठे लब रखकर चुराता, हूँ सनम को मैं॥

नहीं है चांदी मेरे पास, सोना भी नहीं है पर।
पकाके खाना हाथों से खिलाता हूँ सनम को मैं॥

तू शीतल चाँद से भी; सूर्य सी तेजस्वी आभा है।
प्रशंसा के हिंडोले पे, झुलाता हूँ सनम को मैं॥

घडा सिंगार रस का सजनी, पीता हर घडी पल और।
घडे को प्याली में भर भर, पिलाता हूँ सनम को मैं॥

ग़ज़ल है तेरी सौतन, प्रेरणा हो तुम ग़ज़ल की यार।
हो तुम दोनों जीवन साथी चिडाता हूँ सनम को मैं॥

हवा की चाल बदली बदली आती है नजर ज्यों ही।
गुलाबी शेरों के द्वारा मनाता हूँ सनम को मैं॥

दिये हैं भेंट में दो पुष्प: यूँ उपवन है महकाया।
सुनो जी बबलू की मम्मी, बुलाता हूँ सनम को मैं॥

विजयश्री पाक के विरुद्ध, जब जब प्राप्त होती है।
नगर में फटफटीये पे घुमाता हूँ सनम को मैं॥

जहाँ भी हैं व जैसे भी हैं इक दूजे को प्यारे हैं।
निभाती है वो प्रीतम को, निभाता हूँ सनम को मैं॥
कुमार अहमदाबादी

आजकल [ग़ज़ल]


खतरे में हम हैं घंटी बजाते हैं आजकल
खंजर से प्यार करना सिखाते हैं आजकल


तलवार को खुशी हो रही है मिलेगा काम
इंसान तेज धार लगाते हैं आजकल


बुलेटप्रूफ कमरों में बैठे हैं शख्स वे
खतरों से खेलना जो सिखाते हैं आजकल

सब कुछ बड़ा हो ज्यादा हो है सूत्र आज का
बम द्वारा खून ज्यादा बहाते हैं आजकल


जाने न गाँव को धरा को इंसा को मगर
राष्ट्रीय नीतियाँ वे बनाते हैं आजकल

मालीपने को भूल गये माली इसलिए
फूलों को छोड़ काँटे खिलाते हैं आजकल


डो, रे, मी के अलावा जिसे कुछ न भाता है
सब को स्वदेशी राग सुनाते हैं आजकल
कुमार अहमदाबादी

बुधवार, सितंबर 26

बाँसुरी


          राधिका सा प्रेम कान्हा से करे ये बाँसुरी।
          चूमे अधरों को किसी से ना डरे ये बाँसुरी॥

 
         ना बना है ना बनेगा मीठा इस मकरंद सा।
         बाँस से सरगम सुधा बन के झरे ये बाँसुरी॥

        खामियों को जो बनाएँ खूबियाँ योद्धा है वो।
        बात सच सौ फीसदी साबित करे ये बाँसुरी॥
        साथी बन जाती है ये एकांत में चाहो अगर।
        एक पल में मन का सूनापन भरे ये बाँसुरी॥
         कुमार एहमदाबादी

शुक्रवार, जुलाई 20

राजसी अंदाज़ देखा,


 

शंभु का वो राजसी अंदाज़ देखा,
सांप के फन पे गुलों का राज देखा.

भूख के सागर में जब तूफां उठा तो,
वारि में बहता हुआ सरताज देखा.
...
गुनगुनाते प्यार का अंजाम ये था,
आंख में रोता सिसकता साज देखा.

बीज बनता पेड़, फिर से बीज बनता,
मोत में हमने नया आगाज़ देखा.

बाप से ऊँचा कभी हो जाये बेटा,
मूल से ज्यादा जगत में ब्याज देखा.


नाग हो तुम,

जानता हूँ मैं सनम ये नाग हो तुम
डंख मारे चोंच से वो काग हो तुम

खोखला दावा वफ़ा का है तुम्हारा
एक पल मैं बैठ जाता झाग हो तुम

घर हजारों खाक तुमने कर दिए हैं
रूप की तीली में सिमटी आग हो तुम

कोख को बरसात में भी भर सके ना
खिल सका ना जो कभी वो बाग़ हो तुम

चाँद का दर्जा दिया है तुमने मुज को
पाक दामन में लगा इक दाग हो तुम

जो गिराएं एक पल में लाख लाशें 
खून पीकर जो पला वो भाग हो तुम
 
गर सुनें तॊ झुंझलायें कोषिकाएं
लय से भटका बेसुरा एक राग हो तुम
  कुमार अहमदाबादी

सोमवार, जुलाई 9

ताजगी (शालिनी छंद)

देखो देखो, दृश्य में ताजगी है
प्यारे तेरी, आँख में ताजगी है

फ़व्वारे से, साँस में ईत्र छाँट
दंभी बोला, साँस में ताजगी है

खाली जो ना, हो सका गर्व से वो
प्याला बोला, प्यास में ताजगी है

सच्चाई ये, पेट की भूख जाने
कैसी; रोटी, दाल में ताजगी है

जागोगे जो, भोर में तो कहोगे
बच्चों जैसी, वायु में ताजगी है

कंडिकाएँ, काव्य की बोलती है
शब्दों भावों, अर्थ में ताजगी है
कुमार अहमदाबादी

कब्रस्तान

तीन टुकडों में बँटा एक कब्रस्तान हूँ ।
बिखर जा रहा मैं, मैं हिन्दुस्तान हूँ॥
एक भूमि की तीन तीन पहचान हूँ।
भारत, बाँग्ला औ...र पाकिस्तान हूँ॥
चुनावी दंगल का मैं खुला मैंदान हूँ।
पंजो व कमलों की सस्ती दुकान हूँ॥

भगवा कहता मैं मनु की संतान हूँ।
चाँद कहता मैं उस का 'निशान' हूँ॥
 न मनु न चाँद ने जाना मैं किसान हू॥
'कुमार' कहता मैं एक परिस्तान हूँ।
वो आश्वासन है क्योंकि मैं वीरान हूँ॥
कुमार अमदावादी

घास हरी या नीली

*घास हरी या नीली* *लघुकथा* एक बार जंगल में बाघ और गधे के बीच बहस हो गई. बाघ कह रहा था घास हरी होती है. जब की गधा कह रहा था. घास नीली होती है...