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सोमवार, अक्तूबर 7

कला की साधना के प्राण (अनूदित)

कला की साधना के प्राण 

 (अनूदित)

लेखक - कुमारपाळ देसाई
अनुवादक - कुमार अहमदाबादी
ता.24-07-2024 बुधवार के दिन गुजरात समाचार की शतदल पूर्ति में कॉलम झाकळ बन्युं मोती में छपे लेख का अनुवाद 


एक विख्यात संगीताचार्य के पास संगीत की शिक्षा प्राप्त करने के लिये समग्र भारतवर्ष से कला रसिक आते थे। संगीताचार्य पूरी श्रद्धा मेहनत व लगन से उन्हें संगीत की शिक्षा देते थे। उन के कई शिष्य विख्यात होकर उन की कला साधना में चार चांद लगा रहे थे।
एक दिन एक कला रसिक उन के पास आया। उसने कहा 'मैं आप की ख्याति सुनकर संगीत की शिक्षा प्राप्त करने आप के पास आया हूं। आप से संगीत सीखने की मेरी प्रबल इच्छा है।'
संगीताचार्य द्वारा उस की विनती स्वीकार किये जाने पर उसने पूछा ‘आचार्य श्री, मुझे पुरस्कार स्वरूप आप को क्या देना होगा?
संगीताचार्य बोले ‘ज्यादा कुछ नहीं सिर्फ सौ स्वर्ण मुद्राएं देनी होगी।'
कला रसिक ने हैरान होकर पूछा सौ स्वर्ण मुद्राएं! ये जरा ज्यादा है। एसा क्यो? जब कि मुझे  संगीत का ठीक-ठाक ज्ञान है। आज अन्य कला रसिक भी मुझे आदर देते हैं, सम्मान देते हैं।  मैं संगीत का जानकार होने के कारण आप को ज्यादा परिश्रम भी नहीं करना पड़ेगा। कार्य कम और कीमत ज्यादा?
आचार्य ने कहा ‘काम कम नहीं बल्कि ज्यादा है। क्यों कि पहले वो सब भुलाना पड़ेगा। जो तूने सीखा है। तुझे नये सिरे से सीखने की शुरुआत करनी पड़ेगी। क्यों कि पहले से भरे हुए पात्र को और भरना असंभव है। उस में कुछ भरना हो तो पहले खाली करना पड़ता है।

कला रसिक को ये बात समझ में नहीं आयी सो वो चला गया। जब की आचार्य के पास बैठे दूसरे शिष्य को आचार्य की बात सुनकर आश्चर्य हुआ।
उस के जाने के बाद आचार्य के पास बैठे अन्य शिष्य ने आचार्य से एसा करने का कारण पूछा तो आचार्य बोले ‘मैंने सोच समझकर उसे एसा कहा है; क्यों कि उस में ज्ञान होने का गर्व था घमंड था। जब की कला की साधना के लिये विनम्रता, कोमलता आवश्यक है।

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