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शनिवार, सितंबर 30

प्यासा मन डोला(रुबाई)

          

साजन प्यासा मन भी डोला तन भी
सांसे डोली डोला है जीवन भी
कैसा जादू डारा है जी तुमने
धीरे धीरे डोला है मधुबन भी
कुमार अहमदाबादी

शुक्रवार, सितंबर 8

हमारी आस्थाएं और विश्वास (भाग -01)

लेखक - श्री विमल सोनी

गिराणी सोनारों की गवाड़

बीकानेर - 334001

बीकानेर का हमारा ब्राह्मण स्वर्णकार समाज स्थानीय अन्य जातियों की भांति अपने कर्म के प्रति आस्थावान है और अनेक मान्यताओं में विश्वास रखता है। इस की झलक हमें त्यौहारों, व्रतों, मेलों और कतिपय किवदंतीयों में देखने को मिलती है।

स्वर्ण-कर्म से संबंधित होने के कारण प्रत्येक घर में अंगीठा या भट्ठी मिलेगी ही मिलेगी। अनेक लोग इसे धुने के रूप में मानते हैं। इस की नित्य प्रति जल छिड़क कर अगरबत्ती से पूजा करते हैं। प्रतीक रुप में अग्नि तत्व का सतत सानिध्य इस जाति को प्राप्त है। इस कारण यहां भारद्वाज गोत्र की अधिकता पाई जाती है। इस गोत्र का वेद यजुर्वेद है और उपवेद धनुर्वेद है। ग्रह मंगल है जो अग्नि बहुल है और उपास्य देव है राम। 

स्वर्ण को वेद में हिरण्य कहा गया है। इस का अर्थ है 'हितं च रमणीयं च' यानि जो हितकर और सुन्दर दोनों ही है। इस प्रकार हिरण्य कर्म से जुड़े होने के कारण हमारी जाति में सौंदर्योपासना कारीगरी के प्रति रुझान और अनेक कलाओं में दक्षता पाई जाती है। .

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स्वर्ण लेखा से साभार

1986 में बीकानेर में आयोजित ब्राह्मण स्वर्णकार सम्मेलन, जो की श्री अखिल भारतीय ब्राह्मण स्वर्णकार सभा के तत्वावधान में ता.13 से 15 सितंबर 1986 के दौरान हुआ था। तब ये स्वर्ण लेखा स्मारिका छपी थी।

बुधवार, सितंबर 6

गृहस्थ धर्म में नारी का दायित्व (भाग - 02)

लेखक - श्रीमती शांतिदेवी सोनी

कन्हैयालाल प्रकाश चन्द्र सोनी

आसावत सुनारों का मोहल्ला

बीकानेर

 श्रेष्ठ विचार, व्यवहार और आचरण नारी के एसे गुण हैं कि  जिस घर में एसी गृहिणी होती है। वह घर पृथ्वी पर ही स्वर्ग बन जाता है। गृहिणी की ममतामयी उदात्त भावनाओं से प्रेरित होकर गृहपति भी श्रद्धा से झुक जाता है। उस के सम्मुख आत्म समर्पण कर के कह उठता है  'गृहिणी गृहमुच्यते'  अर्थात 'घरवाली ही घर है'। एसी घरवाली वास्तव में अर्धांगिनी कहलाने की पूर्ण रूपेण अधिकारिणी होती है। जो हर सुख और दु:ख या कष्ट के समय हिम्मत से अपने पति के साथ डटी रहकर उस की सहायता करती है। उस में साहस का संचार करती है। आवश्यकता पड़ने पर वह अपने पति को मित्रवत सलाह भी देती है; उपदेश भी देती है। गृहिणी के इस प्रकार के आचरण से गृहपति अपनी असफलता से भी निराश नहीं होता। उस में विपत्तियों से जूझने का अदम्य साहस आ जाता है। 


इस के अतिरिक्त घर का पूरा प्रबंध और बच्चों की देखभाल आदि सभी कुछ नारी के दायित्व की सीमा में ही आते हैं। यदि नारी अपने दायित्व का पूर्ण निर्वाह करती है तो पुरुष निर्द्वन्द्व होकर बाहर के कार्य कर सकता है। अन्यथा बाहर भी उस को घर की चिन्ता परेशान करती रहेगी और वह धनोपार्जन आदि अपने दायित्व का पालन नहीं कर सकेगा और घुटन का अनुभव करता रहेगा। 


अंत: संक्षेप में मैं केवल यही कहना चाहती हूं कि अपने आचरण से नारी घर को स्वर्ग भी बना सकती है और नर्क भी। गृहिणी ही घर की केन्द्र-बिन्दु है, धुरी है और घर का कण-कण गृहिणी के कार्य कलापों से प्रभावित रहता है। इसलिये गृहस्थ धर्म में नारी का महत्वपूर्ण दायित्व है। इसे समझ कर और तदनुकूल आचरण कर न केवल हम सुखी हो सकते हैं अपितु सारे समाज को सुखानुभूति प्रदान कर सकते हैं। ........................................................................................................................................................

गृहस्थ धर्म में नारी का दायित्व (भाग - 01) का दूसरा पार्ट 

स्वर्ण लेखा से साभार

1986 में बीकानेर में आयोजित ब्राह्मण स्वर्णकार सम्मेलन, जो की श्री अखिल भारतीय ब्राह्मण स्वर्णकार सभा के तत्वावधान में ता.13 से 15 सितंबर 1986 के दौरान हुआ था। तब ये स्वर्ण लेखा स्मारिका छपी थी।


गृहस्थ-धर्म में नारी का दायित्व (भाग - 01)


 लेखक - श्रीमती शांतिदेवी सोनी

कन्हैयालाल प्रकाश चन्द्र सोनी

आसावत सुनारों का मोहल्ला

बीकानेर


हमारे देश में गृहस्थ-जीवन अन्य देशों से कुछ भिन्न प्रकार का है। हमारे यहां दाम्पत्य-सूत्र-बन्धन एक पवित्र धार्मिक कर्म माना गया है, जो अजीवन पति पत्नी को निभाना पड़ता है। इस निर्वहन के द्वारा घर या गृहस्थी की गाड़ी सुचारु रुप से चलती रहती है। यदि इस में किसी प्रकार की कमी आ जाती है तो वहीं इस गृहस्थी की गाडी में रुकावट उत्पन्न होने लगती है। हमारी मान्यता और अनुभव है कि गृहस्थी की गाड़ी को सफलतापूर्वक चलाने के लिये पुरुष बाहर का कार्य(धनोपार्जन आदि) करे तथा नारी घर के आंतरिक कार्य करे। एसे गृहस्थों को अच्छे  गृहस्थ कहा जाता है; क्यों कि पति-पत्नी प्रेम, विश्वास और निष्ठापूर्वक गृहकार्य करते हैं। यदि आपसी प्रेम और विश्वास में कमी आ जाती है तो घर में अशांति उत्पन्न होकर गृहस्थ जीवन में कलह, दु:ख, क्रोध, घृणा, वैमनस्य आदि अनेक मानसिक और शारीरिक बीमारियां उत्पन्न हो जाती है। इस का दुष्प्रभाव गृहवासियों तक ही सीमित नहीं रहता अपितु पड़ोसियों तथा अन्य रिश्तेदारों पर भी पड़ता है। इस के विपरित पति पत्नी के आपसी प्रेम विश्वास और निष्ठा से घर तो सुधरता ही है। इस से पड़ोसियों गली-गांव वालों और बाहर के रिश्तेदारों के मन में भी आदर भाव उत्पन्न होता है और वे भी ऐसे सद-गृहस्थों के आदर्श को स्वयं ग्रहण करने हेतु प्रेरित होते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि पति पत्नी अपनी सीमाओं (मर्यादा) में सुचारु रुप से कार्य करते है तो उस का सभी पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। इस के विपरित कार्य करने पर बुरा प्रभाव पड़ता है। अब हमें नारी के दायित्व पर किंचित विचार करना है।

1987 में प्रकाशित किताब स्वर्ण लेखा में छपे आलेख का प्रथम पैराग्राफ

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स्वर्ण लेखा से साभार

1986 में बीकानेर में आयोजित ब्राह्मण स्वर्णकार सम्मेलन, जो की श्री अखिल भारतीय ब्राह्मण स्वर्णकार सभा के तत्वावधान में ता.13 से 15 सितंबर 1986 के दौरान हुआ था। तब ये स्वर्ण लेखा स्मारिका छपी थी।

सोमवार, सितंबर 4

स्वर्ण कला और इस की प्राचीनता (भाग -02)

लेखक - श्री आशाराम सोनी

पुत्र  रेखचंद जी

आसावत सोनारों की गवाड़


स्वर्ण कला में अनेक विधाएं हैं। घडिया सोना घड़ता है। जड़िया घड़े हुये आभूषण में हीरा, टन,ना, माणिक, मोती या अन्य नगीने जड़ता है।सैटिंग वाले बिना जड़ाई नंग लगाते हैं। मीनाकार भांति भांति के रंग भरकर उसे सजाते हैं। बेल पत्ती, सीन, सीनरी मानव आकृति चित्रित करते हैं। जड़ाई के लिये कुंदन वाले कुंदन बनाते हैं। पाती पत्तर खिंचने के वाले मशीनों का सहारा लेते हैं। सोना चांदी इकट्ठा गाळने वाले इसी एक काम से गुजर कर लेते हैं। सोना शुद्ध करने वाले तेजाब निकालते हैं। क‌ई नगीनों का व्यापार करते हैं। छिलाई, डैमस कटाई आदि क‌ई तरह के काम है। 

जयपुर और बनारस कुंदन और जड़ाई का काम किसी जमाने में मशहूर था। धीरे धीरे बीकानेर ने उन्नति की। श्री रामप्रसाद जी आज भी विद्यमान है(ये आलेख 1986+87 के आसपास लिखा गया था तब विद्यमान होने की बात लिखी गयी है) सत्यासी वर्ष की वय में आज भी सारे अंग प्रत्यंग ठीक है। ये जड़ाई के नामी कारीगर थे। इन के भतीजे मूलचंद्र जी चल बसे। वे भी चल बसे। वे भी निपुण थे और पुत्र मदनलाल जी जयपुर में काम करते हैं। सरकार द्वारा जड़ाई के लिये ही पुरस्कृत हुये हैं।

मीने का काम भी विशिष्ट होता है। दूर दूर के बंधु मीना करवाने यहां आते हैं। सोने का तैयार काफी माल यहां से बाहर जाता है, अन्य प्रांतों में भी पहुंचता है। पिंक मीनाकारी और पारदर्शक मीने का उत्कृष्ट काम यहां होता है। सोने और चांदी की जड़ाऊ और मीने की चीजों का बाजार राजस्थान से बाहर दक्षिण में गुजरात और चेन्नई (पहले मद्रास) में है। मुस्लिम देशों में भी इस की मांग है। यहां के बने एसे जेवर देश विदेश में लगने वाली औद्योगिक, व्यावसायिक और कलादीर्घाओं, प्रदर्शनियों एवं बाजारों में प्रदर्शित किये जाते हैं, बिकते भी है। यहां की कला निपुणता का बखान एक कवि ने इस दोहे में यों किया है :-


अमल, मिठाई, इस्तरी, सोनों, गहणों, साह।

मरु  धरा  में  नीपजे, वाह  बीकाणा  वाह।।


जेवरों की डिजाइन और हथौटी स्थान विशेष की अलग अलग होती है। इसी कारण गहना देखते ही जान लेते हैं कि यह वस्तु अमुक जगह बनी हुयी है। प्राचीन काल से चली आ रही इस स्वर्ण कला में भी क‌ई उतार चढ़ाव आते हैं। इस में अनेकानेक रासायणिक द्रव्यों और पदार्थों का प्रयोग होता है। रसायन शास्त्र जिस ने पढ़ा हो। वो प्रयुक्त पदार्थों के अलावा भी अन्य परीक्षणों द्वारा नये नये परिणाम निकाल सकता है। दु:ख इस बात का है, पढ़ लिख कर हर कोई नौकरी खोजता है। अपने पैतृक धन्धे को हीन समझ कर उस की ओर देखता तक नहीं। आज के वैज्ञानिक युग की मांग है। हमारे समाज के विज्ञान के छात्र इस विषय का अध्ययन करें और इस कला को समृद्ध श्रेष्ठ एवं उच्च स्तर की बनाने की दिशा में कार्य करें। जिस से समाज के बंधु लाभान्वित हो सकें।


सन 1963 में स्वर्ण नियंत्रण लागु होने के बाद इस कार्य में अनेकों उलझनें इस रही है। उस के लिये युवकों को प्राथमिकता से विचार करना होगा। ये चिंता का विषय है; सोने का भाव दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। दूसरी तरफ सरकार ने स्वर्ण नियंत्रण के बदले में आरंभ जो सुविधाएं दी थी। वे भी बंद करदी है।

(स्वर्ण लेखा से साभार)

1986 में बीकानेर में आयोजित ब्राह्मण स्वर्णकार सम्मेलन, जो की श्री अखिल भारतीय ब्राह्मण स्वर्णकार सभा के तत्वावधान में ता.13 से 15 सितंबर 1986 के दौरान हुआ था। तब ये स्वर्ण लेखा स्मारिका छपी थी। 

रविवार, सितंबर 3

स्वर्णकला और इस की प्राचीनता (भाग - 01)

 लेखक - श्री आशाराम सोनी

पुत्र रेखचंद जी

आसावत सोनारों की गवाड़

बीकानेर 

स्वर्णकला कितनी प्राचीन है - इस का उत्तर इतिहास देता है। राजा महाराजा और सम्राटों की वेश-भूषा, सिंहासन, राज महल, राज रानियों के अंग अंग में पहने आभूषणों एवं उन के पूजा गृह में स्थापित प्रतिमा, श्रंगार और स्वर्ण  मंडित व मणि-मुक्ता जड़ित द्वारों, उपकरणों तथा पूजा पात्रों के वर्णन में उल्लेखित है। महाभारत में जहां जहां राज्य वैभव दर्शाया गया है। सोने चांदी से बनी वस्तुओं की चर्चा है। दानी कर्ण का प्रतिदिन स्वर्ण दान का रोचक वर्णन है। इस से भी पूर्व वाल्मीकि रचित रामायण में महारानी कौशल्या, स्त्री रत्न सीता के स्वर्णाभरणों और लंका के धन वैभव में सोने की लंका की रोचकता चर्चित है। आदि ग्रंथ वेद में यज्ञ सर्वोपरि कर्म बताया गया है और यज्ञ कराने वाले पुरोहित को यजमान द्वारा दक्षिणा में स्वर्ण देने का आदेश है। 


पुरानी संस्कृति के प्रतीक समस्त एतिहासिक मंदिरों में देव प्रतिमाएं विविध आभूषणों से  श्रृंगारित है। उन के पात्र सोने चांदी से बने हैं। सोमनाथ मंदिर से सोने चांदी की वस्तुएं लूटी गयी। तिरुपति बालाजी में स्वर्ण प्रतिमाएं और छतें व गुंबज भी स्वर्ण मंडित व हीरे आदि रत्नों से जड़ित है। कन्याकुमारी का मीनाक्षी मंदिर भी इस का साक्षी है। पंजाब का स्वर्ण मंदिर तो सोने की खान ही हैं। राजस्थान के मंदिरों में भी अतुल सोना चांदी भरा पड़ा है। बीकानेर के प्रसिद्ध प्राचीन मंदिर भांडासर, करणी जी, नागणेची, लक्ष्मीनाथ जी और शिवबाड़ी आदि भी इस कथन के साक्षी हैं। 


आज से चार दशक पूर्व महिलाओं के अलावा पुरुष भी सोने चांदी से लदे फंदे होते थे। कानों में मुरकी या लोंग और भंवरिया, गळे में सांकळ, तोड़ा या लॉकेट, हाथों में कडे, अंगूठी, कमीज या चोळे में सोने के बटन, कमर में सोने या चांदी के करधनी और पैरों में सोने का कडा, विवाह के समय सिरपेच, बगल में चौबन्दी भी पहनते थे। राजाओं के आभूषण विशेष होते। थे।


स्त्रियों को जेवरों से विशेष मोह होता है। वे नख शिख आभूषणों को धारण करना चाहती है। सुहागिन घर और बाहर सिर पर हमेशा बोरिया बांधकर रखती है। उसे बोरिया विहीन देखते ही मन में आशंकाएं उठने लगती है। इस के अलावा रानियां सांकळ जोडी (मोर मींढी) और चांद सूरज भी सिर पर धारण किये जाते हैं। सकरपारा, तारा, शीशफूल श्रंगार पट्टी और हीरे जवाहरात युक्त स्वर्ण मुकुट पहनती थी। कानों में बालियां, सुरलिया-पत्ता व नाक में नथ, फीणी, तिनखा, दांतों में रवे, गले में ठुस्सी, तायतिया, तिमणिया, आड, हांस, गळपटियो, सिबी-सांकळ, चन्द्रहार, तख्त्यां, कांठळीयो, नेकलेस, हाथों में हाथीदांत के स्वर्ण-मंडित चूड़ी, मुठिया, पुरांची, आदि उंगलियों में अंगूठी, दावणों, छल्ले, कमर में सोने या चांदी का कन्दोळा व करधनी लटकण और पैरों में कड़ला, आंवला, टणका, हीरानामी, जिभ्यां, कड़ी, रमझोळ, जोड़-नेवरी और पायल पहनी जाती थी।

(अनुसंधान जारी है)

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स्वर्ण लेखा से साभार

1986 में बीकानेर में आयोजित ब्राह्मण स्वर्णकार सम्मेलन, जो की श्री अखिल भारतीय ब्राह्मण स्वर्णकार सभा के तत्वावधान में ता.13 से 15 सितंबर 1986 के दौरान हुआ था। तब ये स्वर्ण लेखा स्मारिका छपी थी।

श्री गुरु वंदना


माता पिता गुरु चरणों में प्रणवत बारम्बार

हम पर किया बड़ा उपकार, हम पर किया .......टेर।।


माता ने जो कष्ट उठाया, वह ॠण जाये ना कभी चुकाया

अंगुली पकडकर चलना सीखाया, ममता की दी शीतल छाया

जिन की गोद में पलकर हम, कहलाते हैं हुशियार

हम पर किया बड़ा उपकार.......।।1।।


पिता ने हम को योग्य बनाया, कमा कमाकर अन्न खिलाया

पढा लिखा गुणवान बनाया, जीवनपथ पर चलना सिखाया 

जोड जोड अपनी सम्पत्ति का, बना दिया हकदार

हम पर किया बड़ा उपकार......।।2।।


तत्वज्ञान गुरु ने बतलाया, अंधकार सब दूर भगाया

हृदय में भक्ति दीप जलाकर, हरिदर्शन का मार्ग बताया

बिना स्वार्थ ही कृपा करें ये, कितने। बड़े हैं उदार

हम पर किया बड़ा उपकार......।।3।।


प्रभु कृपा से नर तन पाया, संत मिलन का साज बजाया

बंद, बुद्धि और विद्या देकर सब जीवों में श्रेष्ठ बनाया

जो भी इन की शरण में आता, कर देता उद्धार

हम पर किया बड़ा उपकार......।।4।।


शुक्रवार, सितंबर 1

लीले री असवारी बाबो

 तर्ज - ब्याव बीनणी बिलखूं म्हें तो


लीले री असवारी बाबो अजमल घर अवतारी है

घट घट रो बासी बाबे ने ध्यावे दुनिया सारी है


1

कुं कुं रा पगल्या दरसाया अजमल घर आंगणिये में

द्वारका रा नाथ पधार्या अजमल घर आंगणिये में

मैणादे रा कंवर लाडला -2 भगतां रा हितकारी है

                             घट घट रो बासी बाबे ने ध्यावे 


2

आंख्या आंधे री खुल जावे बांझ्या पुत्र खिलावे है

कोढ़ी कंचन काया पाकर मन में सब हरसावे है

बाबा री दरगा में देखो दूर देशां सूं आवे है 

                            घट घट रो बासी बाबे ने ध्यावे 


3

चारों दिशा सूं संघ बनाकर आया दरसण पावण ने

मन इच्छा सब कारज सारो आया जात लगावण ने

थारे शरणे आया बाबा थांसु अरजी म्हारी है

                          घट घट रो बासी बाबे ने ध्यावे 


घास हरी या नीली

*घास हरी या नीली* *लघुकथा* एक बार जंगल में बाघ और गधे के बीच बहस हो गई. बाघ कह रहा था घास हरी होती है. जब की गधा कह रहा था. घास नीली होती है...