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सोमवार, अप्रैल 29

समाज निर्माण और राजनीति में शानदार भूमिका निभाने वाले बौद्धिक वर्ग की संकुचित होती भूमिका-

 समाज निर्माण और राजनीति में शानदार भूमिका निभाने वाले बौद्धिक वर्ग की संकुचित होती भूमिका-


        विश्व में होने वाली विविध क्रांतिओं और समय-समय पर होने वाले सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन और सामाजिक सुधारों की सफलता में उस समाज के बौद्धिक वर्ग की अग्रणी भूमिका रही है। दुनिया में समय-समय पर होने वाले इन समस्त सामाजिक परिवर्तनों,सामाजिक सुधारों और सुप्रसिद्ध क्रांतिओ का कुशलता पूर्वक मार्गदर्शन बौद्धिक वर्ग (चिंतक, विचारक, दार्शनिक, साहित्यकार इत्यादि) द्वारा ही किया गया और बौद्धिक समुदाय द्वारा ही इन क्रातियों और विविध परिवर्तनो के लिए आवश्यक आधार-भूमि,पृष्ठभूमि और भावभूमि तैयार की गई और बौद्धिक समुदाय के विचारों के फलस्वरूप ही क्रांतिओ और परिवर्तनों के लिए अनुकूल परिस्थितियां निर्मित हुई। इसके साथ ही साथ इन समस्त सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तनो,सामाजिक सुधारों और क्रांतिओ को मानसिक, मनोवैज्ञानिक और बौद्धिक प्रेरणा भी बौद्धिक वर्ग के महान विचारों और संघर्षों से मिली। स्वतंत्रता , समानता और बंधुत्व के नारे के साथ लडी गयी फ्रांसीसी क्रांति के वैचारिक बौद्धिक और दार्शनिक प्रणेता जीन जैक्स रूसो, मांटेस्क्यू और वाल्टेयर थे,अमेरिकन क्रांति के प्रणेता टामस जेफरसन,डिडेरो और फ्रेंकलिन थे,तथा सोवियत संघ में सम्पन्न होने वाली समाजवादी क्रांति को वैज्ञानिक समाजवाद के जन्मदाता कार्ल मार्क्स के क्रांतिकारी विचारों से प्रेरणा मिली थी। सातवीं शताब्दी से लेकर पन्द्रहवीं  शताब्दी तक पूरी तरह अंधकार में डूबे यूरोपीय महाद्वीप में पुनर्जागरण और जनमानस में आधुनिक ,तार्किक , वैज्ञानिक,, मानवतावादी और बौद्धिक चेतना का जन्म कोपरनिकस, कैपलर ,गैलीलियो , ब्रूनो जैसे अनगिनत दूरदर्शी साहसी चिंतको और विचारकों के महान विचारों और संघर्षों के फलस्वरूप हुआ । इन दूरदर्शी विचारकों के आधुनिक विचारों ने सातवीं शताब्दी से लेकर पन्द्रहवीं शताब्दी तक अंधकार में डूबे यूरोपीय महाद्वीप को आधुनिक , धर्मनिरपेक्ष ,लोकतांत्रिक और सभ्य समाज बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई कोपरनिकस ,कैपलर गैलीलियो के अतिरिक्त जिन अन्य महान विचारकों ने यूरोपीय महाद्वीप को बहुआयामी रूप से तरक्की की बुलंदी तक पहुँचाया उनमें जान लाॅक ,जरमी बेंथम,जान स्टुअर्ट मिल और कार्ल मार्क्स जैसे चिंतको विचारकों और दार्शनिकों के विचारों और संघर्षों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। सुकरात ,अरस्तू, प्लेटो ,पाइथागोरस इरेटास्थनीज जैसे अनगिनत दार्शनिकों विद्वानों और विचारकों की बहुलता के कारण ही प्राचीन यूनान को ज्ञान-बिज्ञान का पालना कहा गया।        

     इसी परम्परा में गुरु वशिष्ठ ,गुरु विश्वामित्र गुरु ,चाणक्य गुरु संदीपनी जैसे अपने श्रेष्ठ और महान गुरुओं और उनकी महान शिक्षाओ के कारण भारत वैश्विक स्तर पर विश्व गुरू के रूप में विख्यात रहा। गुरु विश्वामित्र गुरु संदीपनी जैसे श्रेष्ठ और महान गुरुओं के कुशल मार्गदर्शन में मर्यादा पुरुषोत्तम राम और योगीराज श्री कृष्ण जैसे युगों के महानायक अवतरित हुए और गुरु चाणक्य की महान शिक्षाओ ने चन्द्रगुप्त मौर्य जैसे महान चक्रवर्ती सम्राट को पैदा किया। इसी कडी में भारतीय स्वाधीनता संग्राम का महासंग्राम तत्कालीन भारतीय बौद्धिक वर्ग (शिक्षक वकील पत्रकार और प्रखर समाज सेवियों ) के मार्गदर्शन और नेतृत्व में लडा गया । स्वाधीनता संग्राम के दौरान शिक्षकों वकीलों और पत्रकारो द्वारा ही भारतीय जनमानस को स्वतंत्रता का अर्थ और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करना समझाया गया तथा स्वतंत्रता की महत्ता और स्वतंत्रता का मूल्य बोध भी शिक्षकों वकीलों और पत्रकारो द्वारा ही निराश हताश भारतीय जनमानस को कराया गया । भारतीय संविधान के निर्माण से लेकर स्वाधीन भारत के पुनर्निर्माण और विकास के लिए सर्वाधिक प्रयास और प्रयत्न भी भारत के बौद्धिक वर्ग द्वारा ही किया गया। स्वाधीनता उपरांत भारतीय जनमानस की आशाओं आकांक्षाओं और सपनों को होमी जहाँगीर भाभा विक्रम साराभाई महान  कृषि वैज्ञानिक स्वामीनाथन और वर्गीस कुरियन जैसे मेधावियों द्वारा अंतिम निष्कर्ष तक पहुँचाने और व्यवहारिक परिणति तक लाने के लिए ईमानदार प्रयास किए गए। स्वाधीनता उपरांत भारतीय शासन सत्ता के सर्वोच्च पदों को उस दौर के  उच्चकोटि के प्रतिभाशाली व्यक्तित्वो ने सुशोभित किया। डॉ राजेंद्र प्रसाद सर्वपल्ली राधा कृष्णन पंडित जवाहरलाल नेहरू कृष्णा मेनन डॉ भीम राव अंबेडकर इत्यादि सभी उच्चकोटि के प्रतिभाशाली थे। स्वाधीनता उपरांत भारतीय संसदीय राजनीति में योग्यता प्रतिभा सचरित्रता ईमानदारी और बचनबद्धता अनिवार्य और अपरिहार्य परिपाटी और परम्परा के रूप में स्थापित रही। गैर कांग्रेसी राजनीतिक पुरोधाओं डॉ राम मनोहर लोहिया आचार्य नरेन्द्र देव बलराज मधोक के अन्दर वैश्विक राजनीति की उच्चकोटि समझदारी और उत्कट मेधा शक्ति थी। प्रकारान्तर से योग्यता प्रतिभा मेधा हमारी राजनीतिक संस्कृति का अपरिहार्य तत्व थे। परन्तु जैसे जैसे सम्पन्न्नता बढी वैसे-वैसे प्रतिभाशाली बौद्धिक समुदाय जैसे     शिक्षक वकील पत्रकार और अन्य प्रखर पेशेवर बुद्धिजीवी भारतीय राजनीति में केन्द्रीय भूमिका से बाहर होते गए वर्तमान दौर में अपराधियों माफियाओ भ्रष्टाचारियो और धन्नासेठो ने इन्हें ढकेल कर परिधि पर खड़ा कर दिया हैं।1952 के प्रथम निर्वाचित संसद से लेकर वर्तमान संसद की डेमोग्रेफी का अध्ययन किया जाय स्थितियाँ बिल्कुल भयावह नजर आती हैं। 1952 की पहली लोक सभा में चुनकर जाने वाले सदस्यों में सबसे ज्यादा संख्या शिक्षकों वकीलों और पत्रकारो की थी परन्तु उत्तरोत्तर इनकी संख्या घटती गयी। वर्तमान समय में संसद और राज्यों की विधानसभाओं में शिक्षको वकीलों पत्रकारो और अन्य बौद्धिक वर्ग की संख्या लगभग नगण्य है।आज उनकी जगह धीरे-धीरे समाज के अपराधी माफिया बाहुबली भ्रष्टाचारी धन्नासेठ और घोर जातिवादी और साम्प्रदायिक लम्पट नेता संसद और विधानसभा के गलियारों में नजर आने लगे। यह सिलसिला निरंतर  आगे ही बढता रहा और अपराध और जरायम पेशे के लोगों के उत्तरोत्तर बढते हौसले और जनता के बीच उनके प्रति बढते आकर्षण ने चम्बल के बीहड़ो में दहशत और आतंक का पर्याय बन चुके चम्बल के डकैतो को भी चुनाव में किस्मत आजमाने का हौसला दे दिया ।

सदियों से भारतीय बसुन्धरा सम्पूर्ण विश्व में अपने ज्ञान,मेधा,चिंतन दर्शन और उत्कृष्ट शिक्षा और उच्चकोटि के दार्शनिकों तथा सर्वश्रेष्ठ गुरूओं के कारण ज्ञान-विज्ञान और दर्शन की भूमि के रूप में जानी जाती रही हैं। महात्मा बुद्ध महावीर जैसे दार्शनिकों न केवल भारत भूमि को अपितु अपने दार्शनिक एवम आध्यात्मिक विचारों से पूरी दुनिया को प्रभावित किया। इतिहास साक्षी है कि-भारतीय बसुन्धरा पर वही विभूतियाँ महिमामंडित होती रही हैं जिन्होंने अपनी प्रतिभा पराक्रम परिश्रम कुशलता कुशाग्रता हुनर और हौसले से सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तन लाया।  

           गुरु वशिष्ठ गुरू विश्वामित्र गुरू द्रोणाचार्य और आचार्य चाणक्य की वंश परंपरा के सच्चे ध्वजवाहक वर्त्तमान दौर के शिक्षकों, इंसाफ के मन्दिर में इंसाफ, इंसानियत और इंसानी हक हूकूक की खातिर काली कोट पहनकर बहस करने वाले वकीलों, लोकतंत्र के चौथे खम्भे के स्तम्भ माने जाने वाले पत्रकारों और देश के सच्चे सचेत जागरूक बुद्धिजीवियों को आज अपनी घटती गिरती उत्तरोत्तर राजनीतिक सामाजिक हैसियत पर गहराई से आत्म-चिंतन आत्म-विश्लेषण और आत्म-मंथन  करने की आवश्यकता है । लगभग दो सौ वर्षों तक पराधीनता के दौरान इस देश के जनमानस के पराधीन मन मस्तिष्क को स्वाधीनता का अर्थ और स्वाधीनता के लिए संघर्ष  करना शिक्षकों वकीलों पत्रकारों और उस दौर के सचेत बुद्धिजीवियों ने ही बताया और समझाया।आजादी के दौरान होने वाले हर तरह के आन्दोलन का नेतृत्व शिक्षकों वकीलों पत्रकारों और बुद्धिजीवियों ने ही किया था ।इसलिए स्वाधीनता उपरांत इस देश के जनमानस ने सबसे ज्यादा भरोसा विश्वास इन्हीं शिक्षकों वकीलों पत्रकारों और बुद्धिजीवियों पर जताया  और इसीलिए सत्तर के दशक तक इस देश की संसद और राज्यों की विधानसभाओ में जनता ने अपने प्रतिनिधि के रूप में चुनकर अवसर दिया। परन्तु जैसे जैसे आजादी के जश्न की ढोल नगाड़ो की थाप मद्धम पडती गई वैसे वैसे शिक्षक वकील पत्रकार और बुद्धिजीवी राजनीतिक शक्ति सत्ता और प्रभाव की मुख्य धुरी या केन्द्रीय स्थिति से परिधि पर या हासिए पर धकेल दिए गए ।नब्बे के दशक तक आते-आते कास्ट क्राइम और कैश का जादू सिर चढकर बोलने लगा । जाति धर्म की बुनियाद पर सामाजिक अभियांत्रिकी (सोशल इंजीनियरिंग)चुनाव जीतने का सबसे आसान और अचूक फार्मूला बन गया । इसी दौरान हर जातियाँ अपनी जाति के रॉबिनहुड स्टाइल के बाहुबलियों मे अपना नायक ढूँढने खोजने लगी और देखते ही देखते बाहुबली अपनी-अपनी जातियों के रहनुमा और मसीहा बन गए। जनमानस में वर्तमान दौर के  राजनेताओं की घटती लोकप्रियता विश्वसनीयता और आकर्षण ने राजनीतिक दलों को अपनी राजनीतिक रैलियां सफल बनाने के लिए रूपहले पर्दे के सितारों और सिने तारिकाओं की सहायता लेने के लिए मजबूर कर दिया।आज ग्लैमरस चेहरे राजनीतिक रैलियों के अनिवार्य अंग हो गए और अपने मजबूत राजनीतिक  प्रतिद्वंदियों को परास्त करने के लिए भी राजनीतिक दलो ने रूपहले पर्दे के चमकते दमकते चेहरों को बतौर उम्मीदवार चुनाव में उतारना आरम्भ कर दिया। इन बहुविवीध कारणों से भारतीय राजनीति संसदीय राजनीति की स्वस्थ्य परम्पराओं से दूर होती गई और और इक्सवी सदी के आरम्भ से ही देश की संसद और राज्यों की विधानसभाओ में सोच विचार शिष्टाचार और विषयवस्तु की दृष्टि से बहस का स्तर उत्तरोत्तर गिरता गया ।  यह सर्वविदित है कि संसद और विधान सभाओं में सुयोग्य सचरित्र ईमानदार के साथ साथ प्रतिभाशाली जब जनप्रतिनिधि बनकर संसद और विधानसभाओं में पहुँचेगे तभी देश की वास्तविक समस्याओं और जनता के बुनियादी मुद्दों पर धारदार बहस होगी और जब धारदार बहस होती है तभी जनता के पक्ष मे शानदार नीतियां बनती हैं और जनता के पक्ष में शानदार फैसले होते है। इसलिए आज शिक्षकों वकीलों पत्रकारों सहित सम्पूर्ण बौद्धिक तबके को अपनी घटती सामाजिक हैसियत और राजनीति भूमिका तथा जनमानस में उत्तरोत्तर बढती अस्वीकार्यता पर आत्म-मंथन करते हुए नये दौर की चुनौतियों के लिहाज से अपने को तैयार करना होगा ।प्रकारांतर से बौद्धिक समुदाय का सक्रिय हस्तक्षेप स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिए आवश्यक है। 


मनोज कुमार सिंह 

लेखक/ साहित्यकार/ उप सम्पादक कर्मश्री मासिक पत्रिका।

मंगलवार, अप्रैल 23

घास हरी या नीली

*घास हरी या नीली*

*लघुकथा*

एक बार जंगल में बाघ और गधे के बीच बहस हो गई. बाघ कह रहा था घास हरी होती है. जब की गधा कह रहा था. घास नीली होती है. काफी देर बहस चली. निर्णय नहीं हुआ. तब दोनों जंगल के राजा बब्बर शेर के पास गए. दोनों ने पूरी बात बता कर निर्णय देने के लिए कहा. बब्बर शेर ने पूरी बात सुनने के बाद बाघ को करारा थप्पड़ जड़ दिया और कहा. घास नीली होती है. बाघ बेचारा चुप हो गया. जब की गधा निर्णय सुनकर उछलने कूदने लगा. थोड़ी देर बाद चला गया. उस के जाने के बाद बब्बर शेर ने बाघ से कहा. घास हरी होती है. तब बाघ ने पूछा. महाराज आपने ये सच गधे के सामने क्यों नहीं बोला. मुझे क्यों थप्पड़ मारा? सुनकर बब्बर शेर ने कहा. तुझे थप्पड़ इसलिए मारा की वो तो गधा है और तूने गधे से जिद बहस की?!  मेरे बाद तू जंगल का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है. सोच गधे से एसी बहस करने पर तेरी रेपुटेशन कितनी गिरी होगी. आज के बाद एसा मत करना. 

भारत की रचना


राजा महाराजाओं ने चूं की अंग्रेजों के आगे समर्पण किया था और अंग्रेज अब जाने वाले थे. सो, वे राजे महराजे समझे हम भी स्वतंत्र हो जाएंगे. उन की सोच टेक्निकली गलत भी नहीं थी. लेकिन युग बदल रहा था. राजाओं का युग अस्त हो रहा था. यहां सरदार पटेल ने राजाओं को साम दाम दंड भेद आदि से समझा बुझा कर भारत के एकीकरण के कार्य में अपने अपने राज्य सौंपने के लिए राजी किया. 

ये एकीकरण का कार्य सरल नहीं था. अखंड भारत से दो राष्ट्र बनने वाले थे. राजाओं के पास दो तीन विकल्प थे. एक भारत के साथ जुड़ें, दो पाकिस्तान के साथ जुड़ें, तीन पाकिस्तान के साथ जुड़ें. वर्तमान भारत की सीमा पर स्थित रजवाड़ों जोधपुर, अमरकोट, बीकानेर, जैसलमेर मेवाड़ को जिन्ना पाकिस्तान में मिलाना चाहता था. इस के लिए उस ने जी तोड़ कोशिश की. लेकिन एक अमरकोट के अलावा किसी को राजी नहीं कर सका. उस समय की एक रोचक घटना पढ़िए. 

भोपाल के नवाब को पाकिस्तान के साथ जुड़ना था. लेकिन भोपाल भावी पाकिस्तान की सरहद से दूर था. बीच में हिंदू रजवाड़े मेवाड़, जैसलमेर, जोधपुर आदि थे. भोपाल नवाब(सैफ अली खान के पूर्वज) ने सोचा मेवाड़ के राणा अगर तैयार हो जाए तो दूसरे भी हो जाएंगे. इस उद्देश्य को लेकर नवाब ने मेवाड़ के राणा भूपाल सिंह से मुलाकात की. लेकिन वो भूल गया था की मेवाड़ का राज परिवार वो राज घराना थे. जो पिछले लगभग एक हजार वर्षों से विदेशी आक्रांताओं से जूझ रहा था, लड़ रहा था. महाराणा कुम्भा, महाराजा सांगा, महाराणा प्रताप जैसे एक से बढ़कर एक मेवाड़ी शासकों से विदेशी मुस्लिम आक्रांताओं का डटकर मुकाबला किया था. लेकिन कभी उन के सामने समर्पण नहीं किया था.

भोपाल नवाब दूत को भेज कर गलती कर बैठा. महाराणा भूपाल सिंह आग बबूला हो गए. दूत जन राणा जी के दरबार से फौरन नौ दो ग्यारह हो गया. 

तो फिर मेवाड़ भारत में कैसे जुड़ा? 

रजवाड़ों को भारत में विलीन करने का मंत्रालय सरदार पटेल के पास था. सरदार पटेल ने भूपाल सिंह जी से मिलने की आज्ञा मांगी. राणा जी ने आज्ञा दी. सरदार पटेल राणा जी से मिलने के लिए गए. 

वो मुलाकात एसे हुई.

सरदार पटेल ने राणा जी के सामने उन के दरबार कर शिष्टाचार को पूरी तरह निभाते हुए प्रवेश किया. राणा जी अपने सिंहासन पर विराजमान थे. उन्होंने भी औपचारिक पारंपरिक रीत से स्वागत किया. थोडी देर औपचारिक बातें हुई. फिर राणा जी ने सरदार से आगमन का कारण पूछा. सरदार पटेल ने विनम्र लहजे में कहा *राणा जी, मैं आप को ससम्मान लेने आया हूं.  आप के वंश की आप के परिवार की सदियों की स्वतंत्रता प्राप्त करने की लड़ाई पूर्ण हुई है. अब आप दिल्ली चलिए और अपना राज्य संभालिए* 

क्या आप कल्पना कर सकते हैं. राणा जी की प्रतिक्रिया क्या हुई? 

शेषांश अगले लेख में

*कुमार अहमदाबादी*

इंदिरा गांधी की नीतियां

जहां तक मुझे याद है. राजा महाराजाओं के पक्ष का नाम स्वतंत्र पार्टी था. उस में राजा महाराजाओं के अलावा और भी व्यस्क्ति थे. लेकिन राजा महाराजाओं के होने के कारण पार्टी की एक विशेष पहचान हैं गई थी. पार्टी दिन ब दिन लोकप्रिय हो रही थी. जयपुर की महारानी गायत्री देवी जैसा करिश्माई व्यक्तित्व प्रजा को आकर्षित करता था. दूसरी तरफ राजा महाराजाओं को सरकार की तरफ से पेंशन मिलती थी. ये पेंशन उन की उस जमीन, आवक आदि के बदले में थी. जो राजाओं ने स्वतंत्रता के समय भारत के एकीकरण के लिए छोड़ दिए थे. नहीं तो स्वतंत्रता के समय तकनीकी रुप से परिस्थिति क्या होती? राजा महाराजा और नवाबों ने अंग्रेजों का आधिपत्य स्वीकार किया हुआ था. 1757 के प्लासी के युद्ध के बाद 1857 की क्रांति तक पूरे भारतवर्ष के राजा अंग्रेजों को सर्वोपरी मान कर उन के प्रतिनिधि के रुप में राज करते थे. समय समय पर अंग्रेजों की फौजी मदद करते थे. (यहां एक पूरक जानकारी दे दूं. बीकानेर राज्य के पास 1900 सदी के पहले या दूसरे दशक में अपनी वायु सेना थी. उस वायु सेना ने पहले विश्व युद्ध में हिस्सा लिया था. उस वायुसेना के तीन विमानों को मैंने भी बीकानेर गढ़ के अंदर पड़ा हुआ देखा है.) दरअसल उस समय प्रकार की शासन व्यवस्था थी. पहली जहां राजा महाराजा अंग्रेजों की प्रतिनिधि के रुप में शासन करते थे. जैसे बीकानेर, जोधपुर, भोपाल, हैदराबाद, कश्मीर, जयपुर आदि आदि. दूसरी व्यवस्था में अंग्रेज खुद शासन करते थे. जैसे अहमदाबाद, मुंबई(तब बॉम्बे था), मद्रास(अब चेन्नई है) कोलकाता, वगैरह वगैरह. 

लेख जारी है……. अगला प्रकरण अवश्य पढ़िएगा.

शनिवार, अप्रैल 20

बातचीत की कला


बातचीत करना एक विशेष कला है। हम कोई भी बात कहें या सुनें। वो कहने के अंदाज पर निर्भर करती है कि कितना असर करेगी। बात कयी तरह से कही जाती है; क्यों कि बात कहने के लिये कयी तरीके भी अपनाये जाते हैं। दो या दो से ज्यादा व्यक्तियों के बीच रोजमर्रा की बातचीत के अलावा बात कहने के लिये कोई विचार या भाव बताने के लिये ही साहित्य लिखा जाता है। लेकिन वो एक तरफा रास्ता है। उस में एक ही व्यक्ति कहता है। बाकी श्रोता होते हैं।

रोजमर्रा की या जब रुबरु बातचीत के बारे में बात करें तो, बात कहते समय सब से पहले ये देखना पडता है कि इस वक्त वो यानि सामनेवाला हमारी बात सुनना चाहता भी है या नहीं। उस के बाद तय किया जाता है कि बात करनी है या कहनी है या नहीं कहनी। कभी कहनेवाले का मुड एसा होता है कि वो सामनेवाले को कुछ 'सुनाना' चाहता है। अक्सर एसे व्यक्ति सुना भी देते हैं और सुना भी देनी चाहिये; सिवाय के कोई एकस्ट्रा ऑर्डिनरी परिस्थिति हो।


लेकिन सुनाने का मूड न होकर सिर्फ बात करने का मूड हो तब ये देखना पडता है। सामनेवाले का बात करने का मूड है या नहीं। मूड हो तो बात शुरु कर देनी चाहिये; लेकिन अगर मूड नहीं है तो पहले बात करने के लिये उस का मूड बनाना पडता है। उसे हमारी बात सुनने व समझने के लिये तैयार करना पडता है। लेकिन ये बात सुनने के लिये तैयार करनेवाला काम तब आसान हो जाता है; जब सामनेवाला नया हो या अपरिचित हो। परिचित व्यक्ति को बात सुनने के लिये तैयार करना मुश्किल होता है। क्यों कि वो आप से परिचित होता है। इसलिये जैसे ही आप उसे तैयार करनेवाली बातें करेंगे। वो समझ जायेगा। इसलिये वो सीधा ये कहेगा कि 'ये सब बातें छोडो। सीधा वो कहो। जो आप कहना चाहते हो' यहीं कडियां बिखर जाती है। सुननेवाला ये नहीं जानता की हर कार्य की एक तकनीक होती है।

जैसे रसोई करने की एक तकनीक है,

रसोई बनाने के लिये पूर्वतैयारी यानि पहले से कुछ तैयारी करनी पडती है। ये पूर्व तैयारी हर जगह हर काम के लिये होती है। हरी सब्जी बनानी हो तो सब्जी बनाने से पहले सब्जी को धोया जाता है; फिर काटा जाता है। काटने के बाद सब्जियों को फिर धोया जाता है। मसाले तैयार रखे जाते हैं। उस के बाद सब्जी बनायी जाती है। जडतर का काम करें तो उस के लिये भी कुछ तैयारी पहले से करनी पडती है। नंग तैयार करने पडते हैं। कुंदन तैयार करना या रखना पडता है। कविता लिखें तो कविता के लिये भाव और विषय चुनने पडते है। विषय के अनुरुप शब्द याद करने पडते हैं। गीत को स्वरबद्ध करें यानि संगीतबद्ध करें तो गीत के भाव के अनुसार राग ताल एवं लय का चयन करना पडता है।

इसी तरह जब हम ये चाहते हों किसी को बात कहें तो पहले सुननेवाले व्यक्ति को बात सुनने के लिये तैयार कर लेना चाहिये। दूसरी तरफ ये भी होना चाहिये की जब दूसरा व्यक्ति हम से कोई बात कहे तो हमें भी गौर से उस की बात सुननी चाहिये गौर से सुनने पर ही सामनेवाले की बात का अर्थ और बात के पीछे की गहरायी समझ में आयेगी। जब सुनेंगे ही नहीं तो उस की बात का मर्म कैसे समझेंगे?

सामने वाले द्वारा कही गयी। बात में कौन सा मुद्दा खास है। वो मुद्दा क्यों खास है। अगर उस की बात मान लेनी है तो ठीक है। लेकिन अगर उस की बात काटनी है; तो फिर ये देखना पड़ता है। उस की बात में उस के द्वारा कहे गये। मुद्दे में गलती कहां है? उस गलती को पकड़कर फिर आगे बात की जाती है।
एक दूसरे की समझने के लिये सार्थक बातचीत जरुरी है। हम सार्थक बातचीत कब कर सकते हैं? जब कुशलता से बातचीत कर सकेंगे। एक दूसरा की बात का मर्म समझेंगे।
और......जब हम उस की बात का मर्म समझेंगे ही नहीं तो सार्थक बातचीत कैसे होगी?

*महेश सोनी*

गुरुवार, अप्रैल 18

श्रृंगार

तुम अनुपम मनमोहक हो

ये मैं नहीं कहता

तुम्हारा मन लुभावन रुप 

तुम्हारा गंगा जैसा

पवित्र श्रंगार कहता है


वो श्रंगार ये भी कहता है

कि वो प्यार का प्यासा है 

वो श्रंगार चाहता है

उस का कोई दीवाना आये

आकर बांहों में भर ले

बल्कि बांहों में भींच ले

भींचकर धीरे धीरे

हौले हौले हाथों से

एक एक कर के

श्रंगार के ये उपकरण 

हटाने लगे और 

नये उपकरण पहनाने लगे

जैसे कि बांहों का हार

होठों से होठों का श्रंगार

और...

उस के बाद....

उसे तो सोचते ही

शरमा जाती हूं

कुमार अहमदाबादी  

मंगलवार, अप्रैल 9

અનુસરણ ના કરું તો શું કરું?

 અનુસરણ

હું જો અનુસરણ ન કરું તો કરું યે શું?
અહીંયા મરી જવાનો પ્રથમથી જ રિવાજ છે
જલન માતરી

વા...હ જલન સાહેબ વા...હ
મૃત્યુ સનાતન સત્ય છે. જલન સાહેબે આ વાત સાવ સરળ શબ્દોમાં કહી છે. સામાન્ય રીતે લોકો સારા કાર્યો કે સફળતાનું અનુસરણ કરે છે. આ વાતનો આધાર લઈને મૃત્યુનું સનાતન સત્ય રજૂ થયું છે. જે અવતરે છે નિશ્ચિત મૃત્યુ લઈને અવતરે છે. પણ નિશ્ચિત મૃત્યુને અનુસરણ સાથે સરખાવી શાયરે શેરને ઊત્તમ શ્રેણીનો બનાવી દીધો છે. જગતનો દરેક માનવી અન્ય કોઈ કાર્યનું અનુસરણ કરે કે ન કરે. મૃત્યુનું અનુસરણ જરૂર કરે છે.

દૈનિક 'જયહિંદ'માં તા.૧।૧।૨૦૧૨ ના દિવસે મારી કૉલમ 'અર્જ કરતે હૈં'માં છપાયેલા લેખનો અંશ
અભણ અમદાવાદી

रविवार, अप्रैल 7

सन्नारी (रुबाई)


 *रुबाई*

वो भोली कोमल औ' संस्कारी है
रिश्तेदारों को मन से प्यारी है
जल सी चंचल सागर सी गहरी औ'
गंगा सी वो पावन सन्नारी है
कुमार अहमदाबादी

सोमवार, अप्रैल 1

गणगौर

 अहमदाबाद और आसपास के शहरों में राजस्थान के विभिन्न नगरों और गांवों से रोजी रोटी के लिये आये लोग बसे हैं। वे यहां अपने व्रत और त्यौहार मनाते हैं। जिन में राजस्थान की सांस्कृतिक विविधता होती है। अगले कुछ महीनों में चैत्रीय नवरात्रि के साथ साथ होली, थापना, गणगौर, वगैरह त्यौहार हर्षॉल्लास से मनाए जाएंगे। वासणा, निर्णय नगर, साबरमती, गोता, शाहीबाग, भावसार हॉस्टल आदि विस्तारों में राजस्थानी लोगों ने धूलेटी से ही गणगौर की तैयारियां आरंभ कर दी है। 


चैत्रीय नवरात्रि के तीसरे दिन गणगौर उत्सव मनाया जाता है। उस के लिये राजस्थानी युवतियां व महिलाएं विशेष पूजा अर्चना आरंभ कर देती है। होलिका दहन की राख और मिट्टी में से सोलह दिन की सोलह पिंडियां बनाकर छबड़ी में रखकर उस की पूजा करती है। सातवें दिन शीतला सातम मनाती हैं। उसी दिन मकर दास जी यानि शिव व गौरी अर्थात मां पार्वती सहित कानीराम (इसर दास जी के भाई) रोवा बाई(इसर दास की बहन) और मालण यूं कुल मिलाकर मिट्टी की पांच मूर्तियां बनाकर गणगौर तक रोज सुबह *गौर हे गणगौर माता खोल किवाडी* भजन गाकर पूजा की जाती है। सोमवार को इन प्रतिमाओं को लेने भीड उमड़ पड़ती है।

अहमदाबाद और आसपास के शहरों में राजस्थान के विभिन्न नगरों और गांवों से रोजी रोटी के लिये आये हुए लोग बसे हैं। वे यहां अपने व्रत और त्यौहार मनाते हैं। जिन में राजस्थान की सांस्कृतिक विविधता होती है। अगले कुछ महीनों में चैत्रीय नवरात्रि के साथ साथ होली, थापना, गणगौर, वगैरह त्यौहार हर्षॉल्लास से मनाए जाएंगे। वासणा, निर्णय नगर, साबरमती, गोता, शाहीबाग, वाडज, भावसार हॉस्टल आदि विस्तारों में राजस्थानी लोगों ने धूलेटी से ही गणगौर की तैयारियां आरंभ कर दी है। 

चैत्रीय नवरात्रि के तीसरे दिन गणगौर उत्सव मनाया जाता है। उस के लिये राजस्थानी युवतियां व महिलाएं विशेष पूजा अर्चना आरंभ कर देती है। होलिका दहन की राख और मिट्टी में से सोलह दिन की सोलह पिंडियां बनाकर छबड़ी में रखकर उस की पूजा करती है। सातवें दिन शीतला सातम मनाती हैं। उसी दिन मकर दास जी यानि शिव व गौरी अर्थात मां पार्वती सहित कानीराम (इसर दास जी के भाई) रोवा बाई(इसर दास की बहन) और मालण यूं कुल मिलाकर मिट्टी की पांच मूर्तियां बनाकर गणगौर तक रोज सुबह  गौर हे गणगौर माता खोल किवाडी  भजन गाकर पूजा की जाती है। सोमवार को इन प्रतिमाओं को लेने भीड उमड़ पड़ेंगी।

शाहीबाग के पवित्रा बहन ढंढारिया ने उत्सव की विशेषता के बारे में बताते हुए कहा ‘दीवार पर कुमकुम, मेहंदी, और काजल के टीके लगाकर रोज पुजा की जाती है। इस त्यौहार को पीहर जाकर मनाने की परंपरा भी है। विशेष रुप से शादी के बाद पहले गणगौर उत्सव का महत्व है। युवतियां सोलह दिन पीहर में रहकर ये उत्सव मनाती है। इस दौरान फूलपत्ती का कार्यक्रम आयोजित किया जाता है। नन्हीं बालिकाओं को शिव पार्वती बनाकर उन का आशिर्वाद लिया जाता है। महिलाएं आटा गूंथ कर उस से विविधाकार के व्यंजन बनाती है। उन व्यंजनों का भोग लगाया जाता है। नवरात्रि के तीसरे गणगौर के दिन महिलाएं व्रत रखती है। 


अब कुछ जानकारी जो लेख में नहीं है। लेकिन मैंने अपने बीकानेर के बुजुर्गों से सुनी है। वो लिखता हूं। जब राजा शाही का युग था। तब नगर के हर इलाके से लोग गवर ईसर की शोभायात्रा निकालते थे। प्रत्येक शोभायात्रा राजा जी की गढ़ के सामने जाती थी। वहां महाराजा अपने हाथों से खोळा भरते थे एवं अन्य विधियां करते थे। स्वतंत्रता के बाद राज्य व्यवस्था बदलने से कुछ परिवर्तन हुए हैं। 

कुछ बातें बीकानेर से आकर अहमदाबाद में बसे स्वर्णकार समाज द्वारा मनाये जाने वाले उत्सव के बारे में,

अहमदाबाद में गणगौर मेले का आयोजन एक समिति करती है। ये आयोजन लगभग पिछले ढाई तीन दशकों से किया जा रहा है। ये आयोजन समाज के भवन पर किया जाता है। मेले वाले दिन शोभा यात्रा निकलती है। पहले के कुछ वर्ष शोभा यात्रा समाज भवन से प्रगति नगर कम्युनिटी हॉल जाती थी। समाज के कुछ लोग रास्ते में जुड़ते हैं। कुछ लोग सीधे कम्युनिटी हॉल पहुंचते हैं। शोभा यात्रा की विशेषता ऊंट गाडे होते हैं। जो वृद्ध व्यक्ति पूरी यात्रा में पैदल चल नही सकते। वे ऊंट गाड़े में बैठकर शोभा यात्रा के साथ जुड़े रहते हैं। 

गवर इसर को समाज की महिलाएं माथे पर रखकर भवन से कम्युनिटी हॉल तक ले जाती है। महिलाएं क्रमशः यानि एक के बाद एक माथे पर उखणती है। माथे पर रखने की कार्य को राजस्थानी भाषा में माथे पर उखणना कहते हैं। गवर इसर को उखणने के लिये महिलाओं में आपस में मीठी प्रतिस्पर्धा होती है। शोभा यात्रा के दौरान हर एक महिला जल्दी से जल्दी गवर इसर को माथे पर उखणना चाहती है। 

शोभा यात्रा कम्युनिटी हॉल पर पहुंचने के बाद वहां पूजा आरती खोळा भरना वगैरह विधियां होती है। महिलाएं घूमर खेलती हैं। पुरुष भी पारंपरिक राजस्थानी अंदाज में नृत्य करते हैं। 

कम्युनिटी हॉल में की सेवाभावी मित्र मंडलीयां विविध स्वयंभू(अपने आप अपनी मरजी से) सेवाएं देती हैं। कोई मित्र मंडली समाज के लोगों के लिये शरबत की व्यवस्था करती है तो कोई मित्र मंडली गोटों की व्यवस्था करती है। कोई फ्रूट क्रीम की व्यवस्था करती है। कोई गोटों की व्यवस्था करती है। वहां लगभग दो से तीन घंटे तक मेले की रौनक रहती है। लोग हर्षोल्लास से मिलते जुलते हैं। 

कुछ व्यक्ति अपने युवा बच्चों के लिये मेले में आये युवक युवतियों के वाणी वर्तन व व्यवहार पर नजर रखते हैं। उन की अनुभवी आंखें व सोच युवक युवतियों के वाणी व्यवहार से उन के व्यक्तित्व के बारे में अंदाजा लगाना शुरु कर देती है। 

बहरहाल,

दो तीन घंटों के बाद वापस गवर इसर को भवन पर लेकर आते हैं। कुछ समय वहां गीत गाये जाते हैं। उस के बाद गवर इसर को पूजा गृह में विराजमान किया जाता है; क्यों कि कुछ समय बाद धींगा गवर का आयोजन होता है। 

अनुवादक एवं लेखक - महेश सोनी 

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