भारत में भाषा के कारण अक्सर विवाद हो जाते हैं। गुजरात के पाडोशी राज्य महाराष्ट्र में बरसों हुए अक्सर ये मुद्दा को सुलग जाता है।
भाषा को प्रायः प्रांत से जोडकर देखा जाता है। एक दो किस्से में धर्म के साथ भी जोड दिया गया है।
एसा इसलिए होता है। लोग भाषा को दृढता से बल्कि जडतापूर्वक पकड़ लेते हैं। ये मान लेते हैं। हमारी भाषा ही सब से अच्छी व सब से बढ़िया है। इतना ही नहीं दूसरी भाषा को अपनी भाषा से कम आंकने लगते हैं। अपनी भाषा को श्रेष्ठ समझना बिल्कुल ग़लत नहीं है। दूसरों की भाषा को कम आंकना या अच्छी ना समझना गलत है।
प्रत्येक भाषा का अपना गौरव अपना इतिहास होता है। प्रत्येक भाषा अपने आप में एक पूरी संस्कृति को सहेजकर रखती है। इंसान जब एक नयी भाषा सीखता है तो वो सिर्फ भाषा ही नहीं सीखता। नयी भाषा उस के सामने एक नयी संस्कृति के द्वार खोलती है।
एक अनुवादक इस सत्य को की एक भाषा ‘नयी संस्कृति के द्वार खोलती है’ बहुत अच्छी तरह समझता है। जो इंसान एक से ज्यादा भाषाएं जानता हो वो भी बहुत अच्छी तरह जानता है की भाषा कैसे उसे एक नयी संस्कृति से परिचित करवाती है। भाषा सांस्कृतिक विविधताओं से भी परिचित करवाती है।
यहां मै दो व्यक्तियों का उल्लेख करुंगा। जिन्होंने विदेशी होते हुए भी भारतीय भाषाओं से भरपूर प्रेम किया। पहले व्यक्ति हैं टैस्सी टोरी, जो राजस्थानी भाषा सीखने के लिये यूरोप से राजस्थान आये थे। दूसरे व्यक्ति हैं फादर वालेस। जो लगभग पोर्तुगल से अहमदाबाद आये थे। फादर वालेस ने लगभग ५० वर्ष अहमदाबाद को कर्मभूमि बनाए रखा। आज भी गुजराती भाषा के बडे और विख्यात लेखकों में फादर वालेस को माना जाता है। टैस्सी टोरी राजस्थानी भाषा और साहित्य के अध्ययन के लिए जाने जाते हैं। यह नाम "टैस्सीटोरी प्रज्ञा-सम्मान" जैसे पुरस्कारों से भी जुड़ा है, जो प्रवासी राजस्थानी प्रतिभाओं को उनकी संस्कृति और भाषा में योगदान के लिए दिए जाते हैं।
भाषा उस की होती है। जो उस का उपयोग करता है। उस से प्रेम करता है। लेकिन एक सत्य कभी भूलना नहीं चाहिए। ये कभी नहीं मानना चाहिये की मेरी भाषा ही सब से अच्छी है। जैसे प्रत्येक भोजन का अपना अलग अलग स्वाद होता है; वैसे ही प्रत्येक भाषा की अपनी मिठास, अपना इतिहास व अपना गौरव होता है। प्रत्येक भाषा अपने आप में एक संस्कृति समेटे होती है।
कुमार अहमदाबादी
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