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शुक्रवार, जनवरी 11

ज्ञान गंगा

यहाँ की ज्ञान-गंगा में समंदर डूब जाते हैं
ये भारत है यहाँ आकर सिकंदर टूट जाते हैं

मधुशाला को शब्दों में मिलाकर जो पिलायेँ तो,
हठीले जुल्म के हाथोँ से खंजर छूट जाते हैं

कला की साधना का दौर ब्रह्मानंद देता है
सुहाने श्वेत काले सारे मंज़र छूट जाते हैं

स्वदेशी स्टोर में फल देशी मुझ को बेचकर, देखो
नफा सारा विदेशी बन के बंदर लूट जाते हैं
कुमार अहमदाबादी

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मुलाकातों की आशा(रुबाई)

मीठी व हंसी रातों की आशा है रंगीन मधुर बातों की आशा है  कुछ ख्वाब एसे हैं जिन्हें प्रीतम से मदमस्त मुलाकातों की आशा है  कुमार अहमदाबादी