महाभारत का युद्ध चल रहा था। कौरवों और पाण्डवों के बीच घमासान युद्ध चल रहा था। कर्ण और अर्जुन के बीच आपस में भयंकर बाणवर्षा हो रही थी।
अवसर देखकर एक भयंकर सर्प कर्ण के तुणीर में घुस गया। कर्ण ने बाण निकाला तो स्पर्श कुछ अनोखा सा लगा। कर्ण देखा तो सर्प विराजमान था। कर्ण ने सर्प को देखते ही आश्चर्य से पूछा 'तुम यहाँ किस प्रकार आ गये हो?'
सर्प ने कहा 'अर्जुन ने एक बार खाण्डव वन में आग लगा दी थी। उस में बेटी मात जल गयी। तब से मेरे मन में प्रतिशोध की ज्वाला जल रही है। मैं अवसर की तलाश में था। कब अवसर मिले और अर्जुन के प्राण हर लूं। आप मुझे बाण के बदले बाण के स्थान से मुझे चला दें। मैं अर्जुन को छूते ही उसे डस लूंगा। आप का शत्रु मर जायेगा और मेरे प्रतिशोध की ज्वाला भी बुझ जायेगी।
कर्ण ने कहा 'नहीं, अनैतिक उपाय से सफलता प्राप्त करने का तनिक भी विचार नहीं है। सर्प देव, आप सकुशल वापस लौट जायें।
आर. डी. तापड़िया( अनमोल खजाने के बिखरे मोती से साभार)
*गुर्जर राष्ट्रवीणा के अंक अप्रैल-जून 2018 से साभार*
साहित्य की अपनी एक अलग दुनिया होती है। जहां जीवन की खट्टी मीठी तीखी फीकी सारी भावनाओं को शब्दों में पिरोकर पेश किया जाता है। भावनाओं को सुंदर मनमोहक मन लुभावन शब्दों में पिरोकर पेश करने के लिये लेखक के पास कल्पना शक्ति होनी जरुरी है। दूसरी तरफ रचना पढ़कर उस का रसास्वादन करने के लिये पाठक के पास भी कल्पना शक्ति होनी जरुरी है। इसीलिये मैंने ब्लॉग का नाम कल्पना लोक रखा है।
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मंगलवार, मार्च 1
नैतिकता कर्ण की
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