तुम अनुपम मनमोहक हो
ये मैं नहीं कहता
तुम्हारा मन लुभावन रुप
तुम्हारा गंगा जैसा
पवित्र श्रंगार कहता है
वो श्रंगार ये भी कहता है
कि वो प्यार का प्यासा है
वो श्रंगार चाहता है
उस का कोई दीवाना आये
आकर बांहों में भर ले
बल्कि बांहों में भींच ले
भींचकर धीरे धीरे
हौले हौले हाथों से
एक एक कर के
श्रंगार के ये उपकरण
हटाने लगे और
नये उपकरण पहनाने लगे
जैसे कि बांहों का हार
होठों से होठों का श्रंगार
और...
उस के बाद....
उसे तो सोचते ही
शरमा जाती हूं
कुमार अहमदाबादी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें