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मंगलवार, अप्रैल 23

घास हरी या नीली

*घास हरी या नीली*

*लघुकथा*

एक बार जंगल में बाघ और गधे के बीच बहस हो गई. बाघ कह रहा था घास हरी होती है. जब की गधा कह रहा था. घास नीली होती है. काफी देर बहस चली. निर्णय नहीं हुआ. तब दोनों जंगल के राजा बब्बर शेर के पास गए. दोनों ने पूरी बात बता कर निर्णय देने के लिए कहा. बब्बर शेर ने पूरी बात सुनने के बाद बाघ को करारा थप्पड़ जड़ दिया और कहा. घास नीली होती है. बाघ बेचारा चुप हो गया. जब की गधा निर्णय सुनकर उछलने कूदने लगा. थोड़ी देर बाद चला गया. उस के जाने के बाद बब्बर शेर ने बाघ से कहा. घास हरी होती है. तब बाघ ने पूछा. महाराज आपने ये सच गधे के सामने क्यों नहीं बोला. मुझे क्यों थप्पड़ मारा? सुनकर बब्बर शेर ने कहा. तुझे थप्पड़ इसलिए मारा की वो तो गधा है और तूने गधे से जिद बहस की?!  मेरे बाद तू जंगल का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है. सोच गधे से एसी बहस करने पर तेरी रेपुटेशन कितनी गिरी होगी. आज के बाद एसा मत करना. 

भारत की रचना


राजा महाराजाओं ने चूं की अंग्रेजों के आगे समर्पण किया था और अंग्रेज अब जाने वाले थे. सो, वे राजे महराजे समझे हम भी स्वतंत्र हो जाएंगे. उन की सोच टेक्निकली गलत भी नहीं थी. लेकिन युग बदल रहा था. राजाओं का युग अस्त हो रहा था. यहां सरदार पटेल ने राजाओं को साम दाम दंड भेद आदि से समझा बुझा कर भारत के एकीकरण के कार्य में अपने अपने राज्य सौंपने के लिए राजी किया. 

ये एकीकरण का कार्य सरल नहीं था. अखंड भारत से दो राष्ट्र बनने वाले थे. राजाओं के पास दो तीन विकल्प थे. एक भारत के साथ जुड़ें, दो पाकिस्तान के साथ जुड़ें, तीन पाकिस्तान के साथ जुड़ें. वर्तमान भारत की सीमा पर स्थित रजवाड़ों जोधपुर, अमरकोट, बीकानेर, जैसलमेर मेवाड़ को जिन्ना पाकिस्तान में मिलाना चाहता था. इस के लिए उस ने जी तोड़ कोशिश की. लेकिन एक अमरकोट के अलावा किसी को राजी नहीं कर सका. उस समय की एक रोचक घटना पढ़िए. 

भोपाल के नवाब को पाकिस्तान के साथ जुड़ना था. लेकिन भोपाल भावी पाकिस्तान की सरहद से दूर था. बीच में हिंदू रजवाड़े मेवाड़, जैसलमेर, जोधपुर आदि थे. भोपाल नवाब(सैफ अली खान के पूर्वज) ने सोचा मेवाड़ के राणा अगर तैयार हो जाए तो दूसरे भी हो जाएंगे. इस उद्देश्य को लेकर नवाब ने मेवाड़ के राणा भूपाल सिंह से मुलाकात की. लेकिन वो भूल गया था की मेवाड़ का राज परिवार वो राज घराना थे. जो पिछले लगभग एक हजार वर्षों से विदेशी आक्रांताओं से जूझ रहा था, लड़ रहा था. महाराणा कुम्भा, महाराजा सांगा, महाराणा प्रताप जैसे एक से बढ़कर एक मेवाड़ी शासकों से विदेशी मुस्लिम आक्रांताओं का डटकर मुकाबला किया था. लेकिन कभी उन के सामने समर्पण नहीं किया था.

भोपाल नवाब दूत को भेज कर गलती कर बैठा. महाराणा भूपाल सिंह आग बबूला हो गए. दूत जन राणा जी के दरबार से फौरन नौ दो ग्यारह हो गया. 

तो फिर मेवाड़ भारत में कैसे जुड़ा? 

रजवाड़ों को भारत में विलीन करने का मंत्रालय सरदार पटेल के पास था. सरदार पटेल ने भूपाल सिंह जी से मिलने की आज्ञा मांगी. राणा जी ने आज्ञा दी. सरदार पटेल राणा जी से मिलने के लिए गए. 

वो मुलाकात एसे हुई.

सरदार पटेल ने राणा जी के सामने उन के दरबार कर शिष्टाचार को पूरी तरह निभाते हुए प्रवेश किया. राणा जी अपने सिंहासन पर विराजमान थे. उन्होंने भी औपचारिक पारंपरिक रीत से स्वागत किया. थोडी देर औपचारिक बातें हुई. फिर राणा जी ने सरदार से आगमन का कारण पूछा. सरदार पटेल ने विनम्र लहजे में कहा *राणा जी, मैं आप को ससम्मान लेने आया हूं.  आप के वंश की आप के परिवार की सदियों की स्वतंत्रता प्राप्त करने की लड़ाई पूर्ण हुई है. अब आप दिल्ली चलिए और अपना राज्य संभालिए* 

क्या आप कल्पना कर सकते हैं. राणा जी की प्रतिक्रिया क्या हुई? 

शेषांश अगले लेख में

*कुमार अहमदाबादी*

इंदिरा गांधी की नीतियां

जहां तक मुझे याद है. राजा महाराजाओं के पक्ष का नाम स्वतंत्र पार्टी था. उस में राजा महाराजाओं के अलावा और भी व्यस्क्ति थे. लेकिन राजा महाराजाओं के होने के कारण पार्टी की एक विशेष पहचान हैं गई थी. पार्टी दिन ब दिन लोकप्रिय हो रही थी. जयपुर की महारानी गायत्री देवी जैसा करिश्माई व्यक्तित्व प्रजा को आकर्षित करता था. दूसरी तरफ राजा महाराजाओं को सरकार की तरफ से पेंशन मिलती थी. ये पेंशन उन की उस जमीन, आवक आदि के बदले में थी. जो राजाओं ने स्वतंत्रता के समय भारत के एकीकरण के लिए छोड़ दिए थे. नहीं तो स्वतंत्रता के समय तकनीकी रुप से परिस्थिति क्या होती? राजा महाराजा और नवाबों ने अंग्रेजों का आधिपत्य स्वीकार किया हुआ था. 1757 के प्लासी के युद्ध के बाद 1857 की क्रांति तक पूरे भारतवर्ष के राजा अंग्रेजों को सर्वोपरी मान कर उन के प्रतिनिधि के रुप में राज करते थे. समय समय पर अंग्रेजों की फौजी मदद करते थे. (यहां एक पूरक जानकारी दे दूं. बीकानेर राज्य के पास 1900 सदी के पहले या दूसरे दशक में अपनी वायु सेना थी. उस वायु सेना ने पहले विश्व युद्ध में हिस्सा लिया था. उस वायुसेना के तीन विमानों को मैंने भी बीकानेर गढ़ के अंदर पड़ा हुआ देखा है.) दरअसल उस समय प्रकार की शासन व्यवस्था थी. पहली जहां राजा महाराजा अंग्रेजों की प्रतिनिधि के रुप में शासन करते थे. जैसे बीकानेर, जोधपुर, भोपाल, हैदराबाद, कश्मीर, जयपुर आदि आदि. दूसरी व्यवस्था में अंग्रेज खुद शासन करते थे. जैसे अहमदाबाद, मुंबई(तब बॉम्बे था), मद्रास(अब चेन्नई है) कोलकाता, वगैरह वगैरह. 

लेख जारी है……. अगला प्रकरण अवश्य पढ़िएगा.

शनिवार, अप्रैल 20

बातचीत की कला


बातचीत करना एक विशेष कला है। हम कोई भी बात कहें या सुनें। वो कहने के अंदाज पर निर्भर करती है कि कितना असर करेगी। बात कयी तरह से कही जाती है; क्यों कि बात कहने के लिये कयी तरीके भी अपनाये जाते हैं। दो या दो से ज्यादा व्यक्तियों के बीच रोजमर्रा की बातचीत के अलावा बात कहने के लिये कोई विचार या भाव बताने के लिये ही साहित्य लिखा जाता है। लेकिन वो एक तरफा रास्ता है। उस में एक ही व्यक्ति कहता है। बाकी श्रोता होते हैं।

रोजमर्रा की या जब रुबरु बातचीत के बारे में बात करें तो, बात कहते समय सब से पहले ये देखना पडता है कि इस वक्त वो यानि सामनेवाला हमारी बात सुनना चाहता भी है या नहीं। उस के बाद तय किया जाता है कि बात करनी है या कहनी है या नहीं कहनी। कभी कहनेवाले का मुड एसा होता है कि वो सामनेवाले को कुछ 'सुनाना' चाहता है। अक्सर एसे व्यक्ति सुना भी देते हैं और सुना भी देनी चाहिये; सिवाय के कोई एकस्ट्रा ऑर्डिनरी परिस्थिति हो।


लेकिन सुनाने का मूड न होकर सिर्फ बात करने का मूड हो तब ये देखना पडता है। सामनेवाले का बात करने का मूड है या नहीं। मूड हो तो बात शुरु कर देनी चाहिये; लेकिन अगर मूड नहीं है तो पहले बात करने के लिये उस का मूड बनाना पडता है। उसे हमारी बात सुनने व समझने के लिये तैयार करना पडता है। लेकिन ये बात सुनने के लिये तैयार करनेवाला काम तब आसान हो जाता है; जब सामनेवाला नया हो या अपरिचित हो। परिचित व्यक्ति को बात सुनने के लिये तैयार करना मुश्किल होता है। क्यों कि वो आप से परिचित होता है। इसलिये जैसे ही आप उसे तैयार करनेवाली बातें करेंगे। वो समझ जायेगा। इसलिये वो सीधा ये कहेगा कि 'ये सब बातें छोडो। सीधा वो कहो। जो आप कहना चाहते हो' यहीं कडियां बिखर जाती है। सुननेवाला ये नहीं जानता की हर कार्य की एक तकनीक होती है।

जैसे रसोई करने की एक तकनीक है,

रसोई बनाने के लिये पूर्वतैयारी यानि पहले से कुछ तैयारी करनी पडती है। ये पूर्व तैयारी हर जगह हर काम के लिये होती है। हरी सब्जी बनानी हो तो सब्जी बनाने से पहले सब्जी को धोया जाता है; फिर काटा जाता है। काटने के बाद सब्जियों को फिर धोया जाता है। मसाले तैयार रखे जाते हैं। उस के बाद सब्जी बनायी जाती है। जडतर का काम करें तो उस के लिये भी कुछ तैयारी पहले से करनी पडती है। नंग तैयार करने पडते हैं। कुंदन तैयार करना या रखना पडता है। कविता लिखें तो कविता के लिये भाव और विषय चुनने पडते है। विषय के अनुरुप शब्द याद करने पडते हैं। गीत को स्वरबद्ध करें यानि संगीतबद्ध करें तो गीत के भाव के अनुसार राग ताल एवं लय का चयन करना पडता है।

इसी तरह जब हम ये चाहते हों किसी को बात कहें तो पहले सुननेवाले व्यक्ति को बात सुनने के लिये तैयार कर लेना चाहिये। दूसरी तरफ ये भी होना चाहिये की जब दूसरा व्यक्ति हम से कोई बात कहे तो हमें भी गौर से उस की बात सुननी चाहिये गौर से सुनने पर ही सामनेवाले की बात का अर्थ और बात के पीछे की गहरायी समझ में आयेगी। जब सुनेंगे ही नहीं तो उस की बात का मर्म कैसे समझेंगे?

सामने वाले द्वारा कही गयी। बात में कौन सा मुद्दा खास है। वो मुद्दा क्यों खास है। अगर उस की बात मान लेनी है तो ठीक है। लेकिन अगर उस की बात काटनी है; तो फिर ये देखना पड़ता है। उस की बात में उस के द्वारा कहे गये। मुद्दे में गलती कहां है? उस गलती को पकड़कर फिर आगे बात की जाती है।
एक दूसरे की समझने के लिये सार्थक बातचीत जरुरी है। हम सार्थक बातचीत कब कर सकते हैं? जब कुशलता से बातचीत कर सकेंगे। एक दूसरा की बात का मर्म समझेंगे।
और......जब हम उस की बात का मर्म समझेंगे ही नहीं तो सार्थक बातचीत कैसे होगी?

*महेश सोनी*

गुरुवार, अप्रैल 18

श्रृंगार

तुम अनुपम मनमोहक हो

ये मैं नहीं कहता

तुम्हारा मन लुभावन रुप 

तुम्हारा गंगा जैसा

पवित्र श्रंगार कहता है


वो श्रंगार ये भी कहता है

कि वो प्यार का प्यासा है 

वो श्रंगार चाहता है

उस का कोई दीवाना आये

आकर बांहों में भर ले

बल्कि बांहों में भींच ले

भींचकर धीरे धीरे

हौले हौले हाथों से

एक एक कर के

श्रंगार के ये उपकरण 

हटाने लगे और 

नये उपकरण पहनाने लगे

जैसे कि बांहों का हार

होठों से होठों का श्रंगार

और...

उस के बाद....

उसे तो सोचते ही

शरमा जाती हूं

कुमार अहमदाबादी  

मंगलवार, अप्रैल 9

અનુસરણ ના કરું તો શું કરું?

 અનુસરણ

હું જો અનુસરણ ન કરું તો કરું યે શું?
અહીંયા મરી જવાનો પ્રથમથી જ રિવાજ છે
જલન માતરી

વા...હ જલન સાહેબ વા...હ
મૃત્યુ સનાતન સત્ય છે. જલન સાહેબે આ વાત સાવ સરળ શબ્દોમાં કહી છે. સામાન્ય રીતે લોકો સારા કાર્યો કે સફળતાનું અનુસરણ કરે છે. આ વાતનો આધાર લઈને મૃત્યુનું સનાતન સત્ય રજૂ થયું છે. જે અવતરે છે નિશ્ચિત મૃત્યુ લઈને અવતરે છે. પણ નિશ્ચિત મૃત્યુને અનુસરણ સાથે સરખાવી શાયરે શેરને ઊત્તમ શ્રેણીનો બનાવી દીધો છે. જગતનો દરેક માનવી અન્ય કોઈ કાર્યનું અનુસરણ કરે કે ન કરે. મૃત્યુનું અનુસરણ જરૂર કરે છે.

દૈનિક 'જયહિંદ'માં તા.૧।૧।૨૦૧૨ ના દિવસે મારી કૉલમ 'અર્જ કરતે હૈં'માં છપાયેલા લેખનો અંશ
અભણ અમદાવાદી

रविवार, अप्रैल 7

सन्नारी (रुबाई)


 *रुबाई*

वो भोली कोमल औ' संस्कारी है
रिश्तेदारों को मन से प्यारी है
जल सी चंचल सागर सी गहरी औ'
गंगा सी वो पावन सन्नारी है
कुमार अहमदाबादी

घास हरी या नीली

*घास हरी या नीली* *लघुकथा* एक बार जंगल में बाघ और गधे के बीच बहस हो गई. बाघ कह रहा था घास हरी होती है. जब की गधा कह रहा था. घास नीली होती है...