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बुधवार, जून 13

माँ का घर

माँ का घर छूटा है जब से।
जग सारा रुठा है मुज से।


घर क्या छूटा दुनिया छूटी।
सुख दुख और खुशीयाँ रुठी।


सच कहता हूँ मैं ये माता।
रुठ गया है मुज से विधाता।


माँ .... मे........री माँ
माँ.... तू... है कहाँ

बाग रूठा, माली रूठा, गुलशन के सब फ़ूल रूठे
अपने रूठे, बेगाने भी, रूठ गए है अनजाने भी..माँ

सूरज रूठा, चन्दा रूठा, नभ के सारे तारे रूठे,
धरती रूठी, आसमाँ भी, रूठ गया है वो खुदा भी...माँ

संध्या रूठी, उषा रूठी, घडी के सारे कांटे रूठे,
रात रूठी, दोपहर भी, रूठ गई है देखो हवा भी,.......माँ

आग रूठी, पानी रूठा, साराजीवन-चक्र रूठा
मौत रूठी, जिंदगी भी,रूठ गई है बंदगी भी .. .......माँ
कुमार अहमदाबादी 

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