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बुधवार, सितंबर 6

गृहस्थ धर्म में नारी का दायित्व (भाग - 02)

लेखक - श्रीमती शांतिदेवी सोनी

कन्हैयालाल प्रकाश चन्द्र सोनी

आसावत सुनारों का मोहल्ला

बीकानेर

 श्रेष्ठ विचार, व्यवहार और आचरण नारी के एसे गुण हैं कि  जिस घर में एसी गृहिणी होती है। वह घर पृथ्वी पर ही स्वर्ग बन जाता है। गृहिणी की ममतामयी उदात्त भावनाओं से प्रेरित होकर गृहपति भी श्रद्धा से झुक जाता है। उस के सम्मुख आत्म समर्पण कर के कह उठता है  'गृहिणी गृहमुच्यते'  अर्थात 'घरवाली ही घर है'। एसी घरवाली वास्तव में अर्धांगिनी कहलाने की पूर्ण रूपेण अधिकारिणी होती है। जो हर सुख और दु:ख या कष्ट के समय हिम्मत से अपने पति के साथ डटी रहकर उस की सहायता करती है। उस में साहस का संचार करती है। आवश्यकता पड़ने पर वह अपने पति को मित्रवत सलाह भी देती है; उपदेश भी देती है। गृहिणी के इस प्रकार के आचरण से गृहपति अपनी असफलता से भी निराश नहीं होता। उस में विपत्तियों से जूझने का अदम्य साहस आ जाता है। 


इस के अतिरिक्त घर का पूरा प्रबंध और बच्चों की देखभाल आदि सभी कुछ नारी के दायित्व की सीमा में ही आते हैं। यदि नारी अपने दायित्व का पूर्ण निर्वाह करती है तो पुरुष निर्द्वन्द्व होकर बाहर के कार्य कर सकता है। अन्यथा बाहर भी उस को घर की चिन्ता परेशान करती रहेगी और वह धनोपार्जन आदि अपने दायित्व का पालन नहीं कर सकेगा और घुटन का अनुभव करता रहेगा। 


अंत: संक्षेप में मैं केवल यही कहना चाहती हूं कि अपने आचरण से नारी घर को स्वर्ग भी बना सकती है और नर्क भी। गृहिणी ही घर की केन्द्र-बिन्दु है, धुरी है और घर का कण-कण गृहिणी के कार्य कलापों से प्रभावित रहता है। इसलिये गृहस्थ धर्म में नारी का महत्वपूर्ण दायित्व है। इसे समझ कर और तदनुकूल आचरण कर न केवल हम सुखी हो सकते हैं अपितु सारे समाज को सुखानुभूति प्रदान कर सकते हैं। ........................................................................................................................................................

गृहस्थ धर्म में नारी का दायित्व (भाग - 01) का दूसरा पार्ट 

स्वर्ण लेखा से साभार

1986 में बीकानेर में आयोजित ब्राह्मण स्वर्णकार सम्मेलन, जो की श्री अखिल भारतीय ब्राह्मण स्वर्णकार सभा के तत्वावधान में ता.13 से 15 सितंबर 1986 के दौरान हुआ था। तब ये स्वर्ण लेखा स्मारिका छपी थी।


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