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बुधवार, सितंबर 6

गृहस्थ-धर्म में नारी का दायित्व (भाग - 01)


 लेखक - श्रीमती शांतिदेवी सोनी

कन्हैयालाल प्रकाश चन्द्र सोनी

आसावत सुनारों का मोहल्ला

बीकानेर


हमारे देश में गृहस्थ-जीवन अन्य देशों से कुछ भिन्न प्रकार का है। हमारे यहां दाम्पत्य-सूत्र-बन्धन एक पवित्र धार्मिक कर्म माना गया है, जो अजीवन पति पत्नी को निभाना पड़ता है। इस निर्वहन के द्वारा घर या गृहस्थी की गाड़ी सुचारु रुप से चलती रहती है। यदि इस में किसी प्रकार की कमी आ जाती है तो वहीं इस गृहस्थी की गाडी में रुकावट उत्पन्न होने लगती है। हमारी मान्यता और अनुभव है कि गृहस्थी की गाड़ी को सफलतापूर्वक चलाने के लिये पुरुष बाहर का कार्य(धनोपार्जन आदि) करे तथा नारी घर के आंतरिक कार्य करे। एसे गृहस्थों को अच्छे  गृहस्थ कहा जाता है; क्यों कि पति-पत्नी प्रेम, विश्वास और निष्ठापूर्वक गृहकार्य करते हैं। यदि आपसी प्रेम और विश्वास में कमी आ जाती है तो घर में अशांति उत्पन्न होकर गृहस्थ जीवन में कलह, दु:ख, क्रोध, घृणा, वैमनस्य आदि अनेक मानसिक और शारीरिक बीमारियां उत्पन्न हो जाती है। इस का दुष्प्रभाव गृहवासियों तक ही सीमित नहीं रहता अपितु पड़ोसियों तथा अन्य रिश्तेदारों पर भी पड़ता है। इस के विपरित पति पत्नी के आपसी प्रेम विश्वास और निष्ठा से घर तो सुधरता ही है। इस से पड़ोसियों गली-गांव वालों और बाहर के रिश्तेदारों के मन में भी आदर भाव उत्पन्न होता है और वे भी ऐसे सद-गृहस्थों के आदर्श को स्वयं ग्रहण करने हेतु प्रेरित होते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि पति पत्नी अपनी सीमाओं (मर्यादा) में सुचारु रुप से कार्य करते है तो उस का सभी पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। इस के विपरित कार्य करने पर बुरा प्रभाव पड़ता है। अब हमें नारी के दायित्व पर किंचित विचार करना है।

1987 में प्रकाशित किताब स्वर्ण लेखा में छपे आलेख का प्रथम पैराग्राफ

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स्वर्ण लेखा से साभार

1986 में बीकानेर में आयोजित ब्राह्मण स्वर्णकार सम्मेलन, जो की श्री अखिल भारतीय ब्राह्मण स्वर्णकार सभा के तत्वावधान में ता.13 से 15 सितंबर 1986 के दौरान हुआ था। तब ये स्वर्ण लेखा स्मारिका छपी थी।

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