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रविवार, सितंबर 3

स्वर्णकला और इस की प्राचीनता (भाग - 01)

 लेखक - श्री आशाराम सोनी

पुत्र रेखचंद जी

आसावत सोनारों की गवाड़

बीकानेर 

स्वर्णकला कितनी प्राचीन है - इस का उत्तर इतिहास देता है। राजा महाराजा और सम्राटों की वेश-भूषा, सिंहासन, राज महल, राज रानियों के अंग अंग में पहने आभूषणों एवं उन के पूजा गृह में स्थापित प्रतिमा, श्रंगार और स्वर्ण  मंडित व मणि-मुक्ता जड़ित द्वारों, उपकरणों तथा पूजा पात्रों के वर्णन में उल्लेखित है। महाभारत में जहां जहां राज्य वैभव दर्शाया गया है। सोने चांदी से बनी वस्तुओं की चर्चा है। दानी कर्ण का प्रतिदिन स्वर्ण दान का रोचक वर्णन है। इस से भी पूर्व वाल्मीकि रचित रामायण में महारानी कौशल्या, स्त्री रत्न सीता के स्वर्णाभरणों और लंका के धन वैभव में सोने की लंका की रोचकता चर्चित है। आदि ग्रंथ वेद में यज्ञ सर्वोपरि कर्म बताया गया है और यज्ञ कराने वाले पुरोहित को यजमान द्वारा दक्षिणा में स्वर्ण देने का आदेश है। 


पुरानी संस्कृति के प्रतीक समस्त एतिहासिक मंदिरों में देव प्रतिमाएं विविध आभूषणों से  श्रृंगारित है। उन के पात्र सोने चांदी से बने हैं। सोमनाथ मंदिर से सोने चांदी की वस्तुएं लूटी गयी। तिरुपति बालाजी में स्वर्ण प्रतिमाएं और छतें व गुंबज भी स्वर्ण मंडित व हीरे आदि रत्नों से जड़ित है। कन्याकुमारी का मीनाक्षी मंदिर भी इस का साक्षी है। पंजाब का स्वर्ण मंदिर तो सोने की खान ही हैं। राजस्थान के मंदिरों में भी अतुल सोना चांदी भरा पड़ा है। बीकानेर के प्रसिद्ध प्राचीन मंदिर भांडासर, करणी जी, नागणेची, लक्ष्मीनाथ जी और शिवबाड़ी आदि भी इस कथन के साक्षी हैं। 


आज से चार दशक पूर्व महिलाओं के अलावा पुरुष भी सोने चांदी से लदे फंदे होते थे। कानों में मुरकी या लोंग और भंवरिया, गळे में सांकळ, तोड़ा या लॉकेट, हाथों में कडे, अंगूठी, कमीज या चोळे में सोने के बटन, कमर में सोने या चांदी के करधनी और पैरों में सोने का कडा, विवाह के समय सिरपेच, बगल में चौबन्दी भी पहनते थे। राजाओं के आभूषण विशेष होते। थे।


स्त्रियों को जेवरों से विशेष मोह होता है। वे नख शिख आभूषणों को धारण करना चाहती है। सुहागिन घर और बाहर सिर पर हमेशा बोरिया बांधकर रखती है। उसे बोरिया विहीन देखते ही मन में आशंकाएं उठने लगती है। इस के अलावा रानियां सांकळ जोडी (मोर मींढी) और चांद सूरज भी सिर पर धारण किये जाते हैं। सकरपारा, तारा, शीशफूल श्रंगार पट्टी और हीरे जवाहरात युक्त स्वर्ण मुकुट पहनती थी। कानों में बालियां, सुरलिया-पत्ता व नाक में नथ, फीणी, तिनखा, दांतों में रवे, गले में ठुस्सी, तायतिया, तिमणिया, आड, हांस, गळपटियो, सिबी-सांकळ, चन्द्रहार, तख्त्यां, कांठळीयो, नेकलेस, हाथों में हाथीदांत के स्वर्ण-मंडित चूड़ी, मुठिया, पुरांची, आदि उंगलियों में अंगूठी, दावणों, छल्ले, कमर में सोने या चांदी का कन्दोळा व करधनी लटकण और पैरों में कड़ला, आंवला, टणका, हीरानामी, जिभ्यां, कड़ी, रमझोळ, जोड़-नेवरी और पायल पहनी जाती थी।

(अनुसंधान जारी है)

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स्वर्ण लेखा से साभार

1986 में बीकानेर में आयोजित ब्राह्मण स्वर्णकार सम्मेलन, जो की श्री अखिल भारतीय ब्राह्मण स्वर्णकार सभा के तत्वावधान में ता.13 से 15 सितंबर 1986 के दौरान हुआ था। तब ये स्वर्ण लेखा स्मारिका छपी थी।

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