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सोमवार, सितंबर 4

स्वर्ण कला और इस की प्राचीनता (भाग -02)

लेखक - श्री आशाराम सोनी

पुत्र  रेखचंद जी

आसावत सोनारों की गवाड़


स्वर्ण कला में अनेक विधाएं हैं। घडिया सोना घड़ता है। जड़िया घड़े हुये आभूषण में हीरा, टन,ना, माणिक, मोती या अन्य नगीने जड़ता है।सैटिंग वाले बिना जड़ाई नंग लगाते हैं। मीनाकार भांति भांति के रंग भरकर उसे सजाते हैं। बेल पत्ती, सीन, सीनरी मानव आकृति चित्रित करते हैं। जड़ाई के लिये कुंदन वाले कुंदन बनाते हैं। पाती पत्तर खिंचने के वाले मशीनों का सहारा लेते हैं। सोना चांदी इकट्ठा गाळने वाले इसी एक काम से गुजर कर लेते हैं। सोना शुद्ध करने वाले तेजाब निकालते हैं। क‌ई नगीनों का व्यापार करते हैं। छिलाई, डैमस कटाई आदि क‌ई तरह के काम है। 

जयपुर और बनारस कुंदन और जड़ाई का काम किसी जमाने में मशहूर था। धीरे धीरे बीकानेर ने उन्नति की। श्री रामप्रसाद जी आज भी विद्यमान है(ये आलेख 1986+87 के आसपास लिखा गया था तब विद्यमान होने की बात लिखी गयी है) सत्यासी वर्ष की वय में आज भी सारे अंग प्रत्यंग ठीक है। ये जड़ाई के नामी कारीगर थे। इन के भतीजे मूलचंद्र जी चल बसे। वे भी चल बसे। वे भी निपुण थे और पुत्र मदनलाल जी जयपुर में काम करते हैं। सरकार द्वारा जड़ाई के लिये ही पुरस्कृत हुये हैं।

मीने का काम भी विशिष्ट होता है। दूर दूर के बंधु मीना करवाने यहां आते हैं। सोने का तैयार काफी माल यहां से बाहर जाता है, अन्य प्रांतों में भी पहुंचता है। पिंक मीनाकारी और पारदर्शक मीने का उत्कृष्ट काम यहां होता है। सोने और चांदी की जड़ाऊ और मीने की चीजों का बाजार राजस्थान से बाहर दक्षिण में गुजरात और चेन्नई (पहले मद्रास) में है। मुस्लिम देशों में भी इस की मांग है। यहां के बने एसे जेवर देश विदेश में लगने वाली औद्योगिक, व्यावसायिक और कलादीर्घाओं, प्रदर्शनियों एवं बाजारों में प्रदर्शित किये जाते हैं, बिकते भी है। यहां की कला निपुणता का बखान एक कवि ने इस दोहे में यों किया है :-


अमल, मिठाई, इस्तरी, सोनों, गहणों, साह।

मरु  धरा  में  नीपजे, वाह  बीकाणा  वाह।।


जेवरों की डिजाइन और हथौटी स्थान विशेष की अलग अलग होती है। इसी कारण गहना देखते ही जान लेते हैं कि यह वस्तु अमुक जगह बनी हुयी है। प्राचीन काल से चली आ रही इस स्वर्ण कला में भी क‌ई उतार चढ़ाव आते हैं। इस में अनेकानेक रासायणिक द्रव्यों और पदार्थों का प्रयोग होता है। रसायन शास्त्र जिस ने पढ़ा हो। वो प्रयुक्त पदार्थों के अलावा भी अन्य परीक्षणों द्वारा नये नये परिणाम निकाल सकता है। दु:ख इस बात का है, पढ़ लिख कर हर कोई नौकरी खोजता है। अपने पैतृक धन्धे को हीन समझ कर उस की ओर देखता तक नहीं। आज के वैज्ञानिक युग की मांग है। हमारे समाज के विज्ञान के छात्र इस विषय का अध्ययन करें और इस कला को समृद्ध श्रेष्ठ एवं उच्च स्तर की बनाने की दिशा में कार्य करें। जिस से समाज के बंधु लाभान्वित हो सकें।


सन 1963 में स्वर्ण नियंत्रण लागु होने के बाद इस कार्य में अनेकों उलझनें इस रही है। उस के लिये युवकों को प्राथमिकता से विचार करना होगा। ये चिंता का विषय है; सोने का भाव दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। दूसरी तरफ सरकार ने स्वर्ण नियंत्रण के बदले में आरंभ जो सुविधाएं दी थी। वे भी बंद करदी है।

(स्वर्ण लेखा से साभार)

1986 में बीकानेर में आयोजित ब्राह्मण स्वर्णकार सम्मेलन, जो की श्री अखिल भारतीय ब्राह्मण स्वर्णकार सभा के तत्वावधान में ता.13 से 15 सितंबर 1986 के दौरान हुआ था। तब ये स्वर्ण लेखा स्मारिका छपी थी। 

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