गज़ल
ज़िद है ये बेकार की तू छोड़ दे
प्यार से संबंध सारे जोड़ ले
तू अकेला जी सकेगा ना कभी
यार तन्हाई से रिश्ता तोड़ दे
हो रहे बदलाव को स्वीकार कर
ज़िंदगी को इक नया तू मोड़ दे
क्यों बदलना चाहता है तू उसे
वो नहीं तैयार उस को छोड़ दे
गर मिले ना कोई तो आरोप का
प्रेम से मुझ पर तू मटका फोड़ दे
कुमार अहमदाबादी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें