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शनिवार, जून 15

इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होलकर



अहिल्याबाई होळकर (31 मई 1725 - 13 अगस्त 1795), मराठा साम्राज्य की प्रसिद्ध महारानी तथा इतिहास-प्रसिद्ध सूबेदार मल्हारराव होलकर के पुत्र खण्डेराव की धर्मपत्नी थीं। उन्होने माहेश्वर को राजधानी बनाकर शासन किया।

अहिल्याबाई ने अपने राज्य की सीमाओं के बाहर भारत-भर के प्रसिद्ध तीर्थों और स्थानों में मन्दिर बनवाए, घाट बँधवाए, कुओं और बावड़ियों का निर्माण किया, मार्ग बनवाए-काशी विश्वनाथ में शिवलिंग को स्थापित किया, भूखों के लिए अन्नसत्र (अन्यक्षेत्र) खोले, प्यासों के लिए प्याऊ बिठलाईं, मन्दिरों में विद्वानों की नियुक्ति शास्त्रों के मनन-चिन्तन और प्रवचन हेतु की।

अहिल्याबाई होळकर का जन्म चौंडी नामक गाँव में हुआ था जो आजकल महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के जामखेड में पड़ता है। दस-बारह वर्ष की आयु में उनका विवाह हुआ। उनतीस वर्ष की अवस्था में विधवा हो गईं। पति का स्वभाव चंचल और उग्र था। वह सब उन्होंने सहा। फिर जब बयालीस-तैंतालीस वर्ष की थीं, पुत्र मालेराव का देहान्त हो गया। जब अहिल्याबाई की आयु बासठ वर्ष के लगभग थी, दौहित्र नत्थू चल बसा। चार वर्ष पीछे दामाद यशवन्तराव फणसे न रहा और इनकी पुत्री मुक्ताबाई सती हो गई। 

अहिल्याबाई होळकर ने अपने राज्य की सीमाओं के बाहर भारत-भर के प्रसिद्ध तीर्थों और स्थानों में मन्दिर बनवाए, घाट बँधवाए, कुओं और बावड़ियों का निर्माण किया, मार्ग बनवाए-सुधरवाए, भूखों के लिए अन्नसत्र (अन्यक्षेत्र) खोले, प्यासों के लिए प्याऊ बिठलाईं, मन्दिरों में विद्वानों की नियुक्ति शास्त्रों के मनन-चिन्तन और प्रवचन हेतु की। और, आत्म-प्रतिष्ठा के झूठे मोह का त्याग करके सदा न्याय करने का प्रयत्न करती रहीं-मरते दम तक। ये उसी परम्परा में थीं जिसमें उनके समकालीन पूना के न्यायाधीश रामशास्त्री थे और उनके पीछे झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई हुई। अपने जीवनकाल में ही इन्हें जनता ‘देवी’ समझने और कहने लगी थी। इतना बड़ा व्यक्तित्व जनता ने अपनी आँखों देखा ही कहाँ था। जब चारों ओर गड़बड़ मची हुई थी। शासन और व्यवस्था के नाम पर घोर अत्याचार हो रहे थे। प्रजाजन-साधारण गृहस्थ, किसान मजदूर-अत्यन्त हीन अवस्था में सिसक रहे थे। उनका एकमात्र सहारा-धर्म-अन्धविश्वासों, भय त्रासों और रूढि़यों की जकड़ में कसा जा रहा था। न्याय में न शक्ति रही थी, न विश्वास। ऐसे काल की उन विकट परिस्थितियों में अहिल्याबाई ने जो कुछ किया-और बहुत किया। वह चिरस्मरणीय है।

इन्दौर में प्रति वर्ष भाद्रपद कृष्णा चतुर्दशी के दिन अहिल्योत्सव होता चला आता है। अहिल्याबाई होळकर जब 6 महीने के लिये पूरे भारत की यात्रा पर गई तो ग्राम उबदी के पास स्थित कस्बे अकावल्या के पाटीदार को राजकाज सौंप गई, जो हमेशा वहाँ जाया करते थे। उनके राज्य संचालन से प्रसन्न होकर अहिल्याबाई होळकर ने आधा राज्य देेने को कहा परन्तु उन्होंने सिर्फ यह माँगा कि महेश्वर में मेरे समाज लोग यदि मुर्दो को जलाने आये तो कपड़ो समेत जलाया

उनके मन्दिर-निर्माण और अन्य धर्म-कार्यों के महत्त्व के विषय में मतभेद है। इन कार्यों में अहिल्याबाई ने अन्धाधुन्ध खर्च किया और सेना नए ढंग पर संगठित नहीं की। तुकोजी होलकर की सेना को उत्तरी अभियानों में अर्थसंकट सहना पड़ा, कहीं-कहीं यह आरोप भी है। इन मन्दिरों को हिन्दू धर्म की बाहरी चौंकियाँ बतलाया है। तुकोजीराव होळकर के पास बारह लाख रुपए थे जब वह अहिल्याबाई होळकर से रुपए की माँग पर माँग कर रहा था और संसार को दिखलाता था कि रुपए-पैसे से तंग हूँ। फिर इसमें अहिल्याबाई का दोष क्या था ? हिन्दुओं के लिए धर्म की भावना सबसे बड़ी प्रेरक शक्ति रही है; अहिल्याबाई होळकर ने उसी का उपयोग किया। तत्कालीन अंधविश्वासों और रुढ़ियों का वर्णन उपन्यास में आया है। इनमें से एक विश्वास था मांधता के निकट नर्मदा तीर स्थित खडी पहाड़ी से कूदकर मोक्ष-प्राप्ति के लिए प्राणत्याग-आत्महत्या कर डालना


अहिल्याबाई होळकर के सम्बन्ध में दो प्रकार की विचारधाराएँ रही हैं। एक में उनको देवी के अवतार की पदवी दी गई है, दूसरी में उनके अति उत्कृष्ट गुणों के साथ अन्धविश्वासों और रूढ़ियों के प्रति श्रद्धा को भी प्रकट किया है। वह अँधेरे में प्रकाश-किरण के समान थीं, जिसे अँधेरा बार-बार ग्रसने की चेष्टा करता रहा। अपने उत्कृष्ट विचारों एवं नैतिक आचरण के चलते ही समाज में उन्हें देवी का दर्जा मिला।

साभार - गूगल


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