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मंगलवार, दिसंबर 14

अर्द्धांगिनी के सामने(गज़ल)

सौ बहाने थे किये अर्धांगिनी के सामने

एक भी पर ना चला उस मनचली के सामने

श्रीमती को तार सप्तक में बुलाना भूल थी
भूल मैं स्वीकार करता हूँ सभी के सामने

सूर्य की पहली कीरण को देखकर सब ने कहा
कालिमा की हार तय है रोशनी के सामने 




चुलबुली है मसखरी भी और जिम्मेदार भी
मुस्कुराती है सदा वो दिल्लगी के सामने

मौन सब से श्रेष्ठ है हथियार सुन ले ए कुमार
किसी की चलती नहीं है श्रीमती के सामने

वह ख़फा होती नहीं बस मुस्कुराती रहती है
चाहे कुछ भी कह दो मेरी चुलबुली के सामने
कुमार अहमदाबादी

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मीठी व हंसी रातों की आशा है रंगीन मधुर बातों की आशा है  कुछ ख्वाब एसे हैं जिन्हें प्रीतम से मदमस्त मुलाकातों की आशा है  कुमार अहमदाबादी