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मंगलवार, मई 21

कब बोलना और कब चुप रहना चाहिये?

 

कब बोलना और कब चुप रहना चाहिये?
वाणी इश्वर का वरदान है। हर इंसान को वाणी का महत्व समझना चाहिये। मीठी वाणी से बिगड़ते काम बन जाते हैं; जब की कड़वी वाणी से बनते काम बिगड जाते हैं। मीठी वाणी से बनते काम तो आपने बहुत देखे होंगे। यहां एक घटनाएं पेश करता हूं। जो अनुचित वाणी से बात बिगड़ने का उदाहरण है।
वर्ष 1825 में निकोलस प्रथम रशिया के सिंहासन पर विराजमान हुआ। लेकिन प्रजा उन का विरोध करने लगी। विरोधी चाहते थे की रशिया में भी अन्य युरोपीयन देशों की तरह बडे बडे उद्योग स्थापित किये जाएं।
विरोध को कुचलने के लिये निकोलस ने विरोधी नेता कोनरेती को मृत्युदंड की सजा सुना दी गयी। उसे फांसी देने के लिये फांसी के मंच पर खडा किया गया। लेकिन जैसे ही निकोलस को फांसी पर झूलाया गया। फांसी वाली रस्सी टूट गयी। निकोलस वहीं गिर पड़ा। वो उठा और उठकर बोला ‘देखा, रशिया को एक रस्सी तक बनाना नहीं आता।’
एसे अगर मुजरिम बच जाए तो उसे फांसी देने का दूसरा प्रयास नहीं किया जाता। मुजरिम को जीवनदान मिल जाता है।
संदेश वाहक ये समाचार लेकर सम्राट निकोलस के पास गया। उसने निकोलस को घटना की जानकारी दी एवं कहा कि अब कोनरेती को फांसी नहीं दी जा सकती। आप को उस के लिये माफीनामा लिखकर देना होगा। सम्राट कोनरेती ने माफीनामा लिख दिया। दूत को माफीनामा देते वक्त पूछा ‘इस घटना के बाद कोनरेती कुछ बोला था? दूत ने बता दिया की कोनरेती क्या बोला था। सुनकर निकोलस ने ये कहते हुए माफीनामा फाड़ दिया कि अब तो कोनरेती और प्रजा  को कोनरेती की बात को गलत साबित कर के ये बताना ही पडेगा की रशिया कितनी मजबूत रस्सी बनाता है।
कोनरेती को दूसरे दिन फिर फांसी के फंदे पर लटकाया गया। दूसरी बार रस्सी नहीं टूटी।
कुमार अहमदाबादी

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