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मंगलवार, फ़रवरी 13

दुर्गम पर्वत माला


 कामिनीकायकान्तारे

मा संचर मनःपांथ तत्रास्ते स्मरतस्करः।।५३।।

रे मुसाफिर मन, कामिनी के काया रुपी जंगल में स्तनो के रुप में जो दुर्गम पर्वतमाला है। वहां मत जाना। क्यों कि वहां कामदेव नाम का चोर बसता है। 


श्री भर्तुहरी विरचित श्रंगार शतक के तिरेपनवें श्लोक का मनसुखलाल सावलिया द्वारा किये गये गुजराती भावानुवाद का हिन्दी भावानुवाद 

भावानुवादक - कुमार अहमदाबादी 

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मुलाकातों की आशा(रुबाई)

मीठी व हंसी रातों की आशा है रंगीन मधुर बातों की आशा है  कुछ ख्वाब एसे हैं जिन्हें प्रीतम से मदमस्त मुलाकातों की आशा है  कुमार अहमदाबादी