मान या मत मान है गुलकंद जैसी
सभ्यताएं हैं पुराने ग्रंथ जैसी
कंकरों को छांटती है धान में से
यार ये चलनी है बिल्कुल छंद जैसी
कोयले सी हो गयी ये आज लेकिन
दौर था जब थी ये खादी हंस जैसी
प्रेमिका का काव्य झरना सूखने पर
काव्य धारा हो गयी आक्रंद जैसी
आंख जनता को बताता है जो राजा
उस की होती है दशा धननंद जैसी
विष के प्याले गट गटागट पी गया
इस की भूखी प्यास थी शिव कंठ जैसी
कुमार अहमदाबादी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें