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गुरुवार, फ़रवरी 10

गज़ल (क्रांति की लौ)

क्रांति की लौ को जलानेवाली है

हाथ में बंदूक आनेवाली है


भूख दो रोटी की थी जो ना मिली

रक्तगंगा वो बहानेवाली है


ये पतीली खाली थी एवं है पर 

दाल पूरी बस'ब आनेवाली है (बस अब)


रोटी मजदूरों के हक की छीन मत

देश का कल ये सजानेवाली है


भूख को बस लक्ष्य दिखता है 'कुमार'

भूख अब मंजिल को पानेवाली है

कुमार अहमदाबादी

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मीठी व हंसी रातों की आशा है रंगीन मधुर बातों की आशा है  कुछ ख्वाब एसे हैं जिन्हें प्रीतम से मदमस्त मुलाकातों की आशा है  कुमार अहमदाबादी