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बुधवार, फ़रवरी 16

माता का प्रसाद

छोटे भाई ने बडे भाई से पूछा 'भाईसाहब, आप हमारे गांव में स्थित कुलदेवी के मंदिर चलोगे?

बडे ने कहा 'नहीं, मेरी किताब पूरी होनेवाली है। प्रकाशन की तैयारियां आखिरी चरण में है। मैं नहीं आ सकता। वैसे मेरे लिये शब्दों की साधना ही  कुलदेवी के दर्शन के समान हैं।'

ये सुनकर छोटाभाई अकेला ही दर्शन के लिये चला गया। उसी रात लेखक ये सोचते सोचते सो गया कि 'अरे, मैं छोटे को ये कहना तो भूल ही गया कि तुम मेरे लिये कुलदेवी का प्रसाद लेते आना।'
तीन चार दिन बीत गये।

चौथे दिन रात को बडे को सपना आया। सपने में उसे कुलदेवी दिखी। कुलदेवी ने बडे से कहा 'तू नहीं आ सका। कोई बात नहीं। तू तेरी साधना को छोडना मत। करता रह। मैं तेरे लिये प्रसाद भेज रही हूँ। एसा कैसे हो सकता है बेटा साधना में डूबा हो और माता उस की भूख प्यास का ध्यान ना रखे।

पांचवें दिन शाम को बडे की पत्नी ने कहा 'सुनिये जी, मैं जरा व्यस्त हूँ। आप मंदिर में दीपक....
उस का वाक्य पूरा होने से पहले बडे ने कहा 'ठीक है'
बडे ने दीप प्रज्वलित करने के लिये मंदिर का दरवाजा खोला। खोलते ही उस की नजर एक कटोरी पर पडी। लेकिन उसने उसे अनदेखा कर के  दीप प्रज्वलित करने पर ध्यान दिया।
दीप प्रज्वलित करने के बाद बडे ने पत्नी से पूछा 'ये कटोरी में क्या है?'
पत्नी बोली 'अरे हां, मैं आप को बताना भूल गयी। देवर जी कुलदेवी का प्रसाद लाये हैं। लेकिन कटोरी में वही है...और अश्रु गंगा बह निकली।
*कुमार अहमदाबादी*

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मीठी व हंसी रातों की आशा है रंगीन मधुर बातों की आशा है  कुछ ख्वाब एसे हैं जिन्हें प्रीतम से मदमस्त मुलाकातों की आशा है  कुमार अहमदाबादी