तने से लिपटी ये बेल
बहुत बेचैन करती है
नभ में लहराता बादल
किनारों से खेलता सागर
थिरकता मचलता बहकता
गुनगुनाता मदमस्त आंचल
ये बसंत ये बहार नस नस
में उठी मदहोश तरंगे
ये उच्छृंखल भावनाएं
सब तृप्ति की बांहों में
मसले जाने के लिये
संघर्ष की मीठी क्षणों से
गुजरने के लिये
और उस के बाद पागल होकर
झूमने के लिये बेचैन है
कुमार अहमदाबादी
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