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शुक्रवार, फ़रवरी 11

पोस्ट बोक्ष कह रहा है

 



मैं सिर्फ लाल रंग का डिब्बा नहीं हूँ। भावनाओं का वाहक हूँ। संसार के नियम जो आयेगा। वो जायेगा के अनुसार मेरे जीवन के आखिरी वर्ष या महीने या फिर शायद दिन चल रहे हैं।
दुनिया जब से बनी है। डाक यानि पत्रों का आना जाना किसी न किसी रुप में किसी न किसी माध्यम के द्वारा होता रहा है। इंसानों के अलावा जानवरों और पक्षियों ने विशेष रुप से कबूतरों ने भी पत्र वाहक का कर्तव्य निभाया है।
बस इसी पत्रों के आवागमन को सुचारु रुप से करने के लिये मुझे जन्म दिया गया यानि मेरा आविष्कार किया गया।
पहला सार्वजनिक पत्रवाहक डिब्बा यानि लेटर बोक्स वर्ष ई.स. 1848 में रशिया के सेन्ट पीटर्सबर्ग शहर में रखा गया था। कुछ लोग ये भी कहते हैं कि ई.स. 1842 में पोलेन्ड देश के वोर्सो नगर में सब से पहला पोस्ट बोक्ष रखा गया था। कुल मिलाकर 1840 के दशक में हमारा उपयोग शुरु हुआ। हम अमरीका में ई.स. 1850 के दशक में सार्वजनिक रुप से काम करने लगे थे। हमारी रुप रेखा यानि आकार का निर्माण एन्थनी ट्रोलोप ने किया था।
ज्यादातर देशों में हम लाल रंग के होते हैं। इस का कारण है। लाल रंग बहुत दूर से दिखायी देता है। चूंकि हम जनभावनाओं से बहुत ही गहरे रुप से जुडे हैं। हम पत्रवाहकों को जल्दी दिखायी देने चाहिये ना, इसीलिये ज्यादातर देशों ने हमें लाल रंग में रंगा। वैसे लाल रंग से एक दूसरा मुद्दा भी याद आया। दुनिया में एक एसी विचारधारा भी जन्मी है। जिसे लाल रंग के साथ जोडा गया है।

 
बहरहाल, वापस मेरी कहानी पर आता हूँ।
एसा माना जाता है। भारत में डाक सेवा 1 अक्तूबर 1854 के दिन आरंभ हुयी थी। डाक विभाग सादा पोस्ट कार्ड, अंतरदेशीय पत्र, तार यानि टेलिग्राम व रजिस्टर्ड पत्र एवं पार्सल सेवा द्वारा अपना कर्तव्य निमाता था व कुछ रुप में आज भी निभाता है। हालांकि आज तार सेवा बंद हो गयी है। चलती कलम आप को ये भी बता दूं। ईस्वीसन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अंग्रेजों ने हमारा बहुत उपयोग किया था। उस समय तार सेवा नयी नयी थी। वो सेवा सिर्फ अंग्रेज सरकार के पास थी। त्वरित सेवा थी। इसलिये क्रांतिकारीयों के पास तार की सेवा नहीं थी। जिस से वो संदेशे जल्दी भेज सकें।
समय बीतता गया, बीतता गया। समय के साथ नये साधन आने के बाद हमारा उपयोग कम होता गया। अब तो बहुत कम काम रह गया है। 
जब पीछे मुडकर देखता हूँ तो आत्मसंतोष से भरी एक मुस्कान चेहरे पर आ जाती है। हम हर तरह के साहित्य का हिस्सा बने है।
ये आखिरी वाक्य लिखकर पत्र समाप्त करता हूँ कि,
डाकिया डाक लाया, डाक लाया..................
*कुमार अहमदाबादी*

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