सम्राट में नहीं तथा दरवेश में नहीं
मेरी मनुष्यता किसी गणवेश में नहीं
जहाँ तक मुजे याद है। ये शेर भगवतीकुमार शर्मा के शेर का अनुवाद है। कवि कहते हैं कि करीब करीब समाज में सार्वजनिक सेवा से संबंधित हर व्यक्ति के लिये गणवेश यानि ड्रैस तय की गयी है। जब व्यक्ति कार्यरत होता है। तब वो अपनी ड्रेस यानि गणवेश में होता है। जैसे कि पुलिस के लिये खाकी,वकीलों के लिये काला कोट, डॉक्टर, नर्स के लिये सफेद रंग के वस्त्र, कुलीयों के लिये लाल रंग के वस्त्र तथा अन्य संस्थाओं के व्यक्तियों के लिये भी वस्त्र व रंग तय किये गये हैं। यहां तक की प्रत्येक पाठशाला भी अपने विद्यार्थीयों कः लिये तय करती है। आजकल तो ऑफिस व शॉरुम भी अपने कर्मचारियों को एक समान वस्त्र व रंग का तय करने लगे हैं।
ये सारे ड्रैस क्या दर्शाते हैं?
ये इंसान का व्यावसायिक दरज्जा, समाजिक आदि को दर्शाते हैं। लेकिन मानवता किसी ड्रैस की मोहताज नहीं है। वो एक सम्राट में भी हो सकती है और एक गरीब के पास भी हो सकती है।
बाहर के आवरण इंसान का सामाजिक दरज्जा बता सकते है। लेकिन एसे कोई भी वस्त्र नहीं है। जो उस की मानवता को व्यक्त कर सके।
किसी राग में नहीं है किसी द्वेष में नहीं
ये लोही है कि बरफ? जो आवेश में नहीं
कवि ने मानव स्वभाव की स्वाभाविकता को व्यक्त किया है। प्रत्येक मानव में राग, द्वेष, क्रोध, लोभ होते ही हैं। क्यों कि इंसान के शरीर में बरफ नहीं, खून दौडता है।जिस आदमी के लहू में आवेश हो, राग न हो, स्पर्धात्मकता न हो, वो बरफ समान होता है। जो कभी पिघल कर बह भी जाये तो भी कोई परवाह नहीं करता।
ता-29 - 03 - 2010 के दिन मेरी कॉलम में छपे लेख का अंशानुवाद
कुमार अहमदाबादी
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