केशानाकुलयन्दृशो मुकुलयन्वासो बलादाक्षिप-
न्नातन्वन्पुलकोद्गमं प्राकट्यन्नावेगकम्पं शनैः।
वारंवारमुदारसीत्कृतकृतो दन्तच्छदान्पीड्यन्
प्रायः शैशिर एष संप्रति मरुत्कान्तासु कान्तायते।।
।।१००।।
बाल को बिखेर देती है। आंखें बंद कर लेती है। वस्त्र को जोर से खिंच लेती है। आनंद विभोर होकर मस्ती से सिसकारे करती है। आनंद में डूब कर आवेग पूर्वक शरीर को कपकपाती है। थोडी थोडी देर में मीठी किलकारियां करती है। होठों को कुचलती है। इस शिशिर का वायु अभी यानि शिशिर में कांताओं के साथ यानि पत्नीयों, प्रेमिकाओं एवं सुंदर स्त्रियों के साथ एसा व्यवहार करता है।
श्री भर्तुहरी विरचित श्रंगार शतक के श्लोक के गुजराती भावानुवाद का हिन्दी अनुवाद
अनुवादक - कुमार अहमदाबादी
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