इह हि मधुरगीतं नृत्तमेद्रसोऽयं
स्फुरति परिमलोऽसौ स्पर्श एषस्तनानाम् ।
इति हतपरमाथैरिन्द्रियैर्भ्राम्यमाण:
स्वहितकरणधूतैंः पञ्चविभिर्वञ्चितोऽस्मि।। ५५।।
ये वास्तव में एक मधुर गीत है। ये नृत्य है। रस प्रकट हो रहा है। सुगंधित परिमल है और स्तनों का स्पर्श है। एसा मानकर सच्ची बात को दबाकर सिर्फ अपना भला करने में काबिल पांचों इन्द्रियों ने मुझे भरमाकर ठगा है।
श्री भर्तुहरी विरचित श्रंगार शतक के श्लोक के मनसुखलाल सावलिया द्वारा किये गुजराती में किये गये भावानुवाद का हिन्दी भावानुवाद
हिन्दी अनुवादक - कुमार अहमदाबादी
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