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बुधवार, जनवरी 24

बीत गई सो बात गई

वर्तमान में जीना जरुरी है. इस का मतलब ये नहीं की भूतकाल को भूल जाएं. लेकिन हर पल हर घड़ी भूतकाल की बातें करते रहना गलत है. 

आज ये बात क्यों छेड़ी? दरअसल आज के एक अखबार में एक लेख पढ़ा. उस लेख के आरंभ में एक बुजुर्ग की बात है. वो बुजुर्ग हमेशा अपने मित्रों के सामने ये रोना रोते रहते थे कि मेरे पिता ने हमेशा मेरे साथ अन्याय किया. हमेशा मेरे उस भाई का साथ दिया. उस के साथ ही सदा हमदर्दी रखी. 

ये बातें करने वाले मित्र रोज सुबह बागीचे में जाते तब बागीचे के अपने मित्रों के सामने ये बातें कहते थे, बल्कि कहना चाहिए. रोना रोते रहते थे. बागीचे के मित्र सुन लेते थे. कभी कुछ नहीं कहते थे. 

एक दिन एक मित्र ने पूछ लिया कि आप के पिता जी इस वक्त कितने वर्षों के हैं. तब रोतडु मित्र ने जवाब दिया कि उन्हें गुजरे पैंतीस वर्ष हो गए हैं. ये सुनकर एक बार तो बागीचे के मित्र को समझ नहीं आया की वो क्या कहें! लेकिन फिर उन्होंने कड़क शब्दों में मित्र को टोकते हुए कहा *आप को शर्म आनी चाहिए. जिस इंसान को गुजरे हुए पैंतीस वर्ष हो गए हैं. आज भी आप उन के प्रति एसी भावना रखते हैं. एसे विचार रखते हैं. वो भी उस व्यक्ति के लिए जो तुम्हारे पिता थे. आपने उन की उन बातों को याद रखा. जो आप को अच्छी नहीं लगी. लेकिन उस के अलावा उन बातों का कभी उल्लेख नहीं किया. जो आप को अच्छी लगी हो या उन कदमों का कभी जिक्र नहीं किया. जो उन्होंने आप के हितों के लिए उठाए थे. एसा तो संभव ही नहीं की आप के पिता ने आप के लिए कोई एसा कदम उठाया ही ना हो. जो आप को अच्छा ना लगा हो. आपने हमेशा पिता के वर्तन के एक पक्ष को ही देखा. बस उसी से चिपक गए. अपने मन में उन की एक छवि बना ली. उसी छवि के गीत गाते रहे. 

ये सुनकर वो बुजुर्ग आत्मग्लानि से भर गए. सिसक सिसक कर रोने लगे.

कई बार एसा होता है. व्यक्ति अपने किसी रिश्तेदार के व्यक्तित्व के एक ही वर्तन को पकड़ कर बैठ जाता है. उस व्यक्ति के अपने प्रति पूरे वाणी वर्तन का अभ्यास ही नहीं करता. बस किसी एक घटना या गुण के बारे में बातें करता रहता है. फलां ने मेरे साथ एसा किया.

अगर वास्तव में वैसा किया हो तो भी जब उस घटना को बीस तीस या चालीस वर्ष बीतने के बाद भी याद कर के उल्लेख करते रहना कहां तक उचित है? कतई उचित नहीं है. जो बीत गया वो बीत गया. वो अगर हमारे लिए अच्छा नहीं था तो उसे भूल जाना ही बेहतर है. ना भूलने पर वो घाव बन जाता है. जो कभी कभी बहुत तकलीफ देता है. हमारी सनातन संस्कृति में कहावत भी है कि*बीत गई सो बात गई*

कुमार अहमदाबादी

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मीठी वाणी क्यों?

  कहता हूं मैं भेद गहन खुल्ले आम  कड़वी वाणी करती है बद से बदनाम  जग में सब को मीठापन भाता है  मीठी वाणी से होते सारे काम  कुमार अहमदाबादी