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शुक्रवार, दिसंबर 20

नशा और भक्ति


मैंने अपनी आधी सदी से ऊपर के जीवन में कई एसे व्यक्ति देखे हैं. जो कुछ विशेष दिनों या तिथियों पर सामूहिक रुप से भजन करते हैं. उन में कई एसे होते है.जो भजन करते समय या भजन करने से पहले नशा करते हैं. कभी कभी मन में प्रश्न उठता है. क्या एसा करने से भजन अच्छी तरह होते हैं? ज्यादा तन्मयता से होते हैं? क्या उस परिस्थिति में परमात्मा से साक्षात्कार भी हो सकता है? एक क्षण के लिए मान लें. परमात्मा से साक्षात्कार हो जाता है. तो क्या भजन करने वाला नशे की हालत में परमात्मा से नजर मिला सकता है? 

सब से महत्वपूर्ण प्रश्न है. परमात्मा के भजन गाने के लिए नशे की जरूरत पड़ती ही क्यों है? या कहीं एसा तो नहीं कि भजन करने वाले नशा करने के लिए भजन का सहारा लेते हैं? 

लेकिन मैं ये भी जानता हूं. एसे प्रश्नों के सटीक उत्तर कम ही बल्कि नहीं के समान होते हैं. वैसे ये साथ मिलकर समूह में भजन करने की आदत उस प्रसिद्ध वाक्य भजन और भोजन एकांत में होने चाहिए  के एकदम विपरीत है. जब ये वाक्य याद आता है तो लगता है. लोग नशा करने के लिए भजन करने की क्रिया का एक हथियार के रुप में उपयोग करते है

कुमार अहमदाबादी

गुरुवार, नवंबर 21

जब मिला था कली से(ग़ज़ल)


भ्रमर बाग में जब मिला था कली से

मिला था निराली मधुर जिंदगी से


सही और प्यारी सलाह दे रहा हूं

हुनर सीख चलने का चलती घडी से


कभी मैं कभी तू कभी ये कभी वो

मिलेंगे कसम से नयी रोशनी से 


जरा गौर कर तू वहां देख प्यारे 

खड़ा है सफल आदमी सादगी से


अगर मन में विश्वास श्रद्धा न होंगे 

मिलेगा न कुछ भी तुझे बंदगी से 

कुमार अहमदाबादी

सोमवार, नवंबर 18

अहमदाबाद का मिल उद्योग: एक संस्मरण

 *स्वतंत्रता से पहले अहमदाबाद में कपडे की ८० मिलें थीं*

(अनुवादित व संकलित)

*अनुवादक व संकलक - कुमार अहमदाबादी*

अहमदाबाद के मिल उद्योग के पितामह माने जानेवाले रणछोड लाल छोटालाल ने अहमदाबाद ने सूती कपडे की पहली मिल शुरु की थी। उन के साहस ने नगर के कई सेठों को मिल उद्योग ने आकर्षित किया था। रणछोड़ लाल छोटालाल ने १८६१ में एक लाख की पूंजी लगाकर पहली मिल आरंभ की थी। १८७७ में दूसरी मिल आरंभ की। 

इस के फलस्वरूप पहले ३६ वर्ष में अहमदाबाद में ९,  अगले दस वर्ष में १८, अगले पच्चीस वर्ष में २३, अगले १० वर्ष में १९ मिलाकर कुल ८०(अस्सी) मिलें शहर में शुरु हुई थी। कपड़े की मांग बढ़ने के कारण ये सारी मिलें चौबीस घंटे चलती थी। ये मिलें ८-८ घंटे की तीन शिफ्ट में काम करती थी; अर्थात हर ८ घंटे बाद मजदूर बदलते थे। 

मिल उद्योग के कारण ही अहमदाबाद को भारत का मान्चेस्टर कहा जाता था। आप सोचते होंगे। मान्चेस्टर क्यों कहा जाता था? मांचेस्टर इंग्लैंड का शहर है। वो अपने मिल उद्योग के कारण विख्यात एवं समृद्ध था। जब मिल उद्योग अपने चरम पर था। तब मांचेस्टर में ९९(निन्यानवे) मिलें काम करती थी। 


अहमदाबाद में पहली मिल १८५७ की क्रांति के तीन वर्ष बाद आरंभ हो गयी थी। हालांकि रणछोड़लाल छोटालाल का प्रथम प्रयास विफल हुआ था। लेकिन रणछोड़लाल ने हिंमत नहीं हारी; दुबारा प्रयास किया। इस बार वे सफल हुए। ३० मई १८६१ के दिन अहमदाबाद के शाहपुर विस्तार में सूती कपडे की पहली मिल आरंभ हुई। शाहपुर विस्तार में जहां ये मिल थी। वो आज भी शाहपुर मिल कम्पाउन्ड नाम से जाना जाता है। हालांकि अब तो वहां सोसायटी, फ्लैट, दुकानें बन गयी है। लेकिन नाम आज भी शाहपुर मिल कंपाउंड है। जैसे नटराज थियेटर टूटे एक दो दशक हो गये हैं। लेकिन उस के पास जो ए.एम.टी.स.(अहमदाबाद म्युनिसिपल टांसपोर्ट सर्विस) का बस स्टेन्ड है। उस का नाम आज भी नटराज सिनेमा या जुनु नटराज सिनेमा है। 

वापस मिलों पर लौटते हैं। 

स्वतंत्रता से पहले अहमदाबाद में अस्सी (८०) मिलें चलती थीं। मिलों की एक व्यवस्था थी। जब मजदूरों की आठ(८) घंटे की शिफ्ट पूरी होती थी। तब शिफ्ट पूरी होने का सिग्नल मिल की सीटी बजाकर दिया जाता था। वो सीटी बहुत तेज यानि तीव्र आवाज में बजती थी। उस समय अहमदाबाद के रोजमर्रा के जीवन में मिल की उस सीटी का कितना महत्व था। इसे आप अविनाश व्यास द्वारा लिखित गीत *हुं अमदावाद नो रिक्षावाळो* की इस पंक्ति *ज्यां पहेला मिल नुं भूंगळु(भूंगळु यानि सीटी) पछी बोलतो कूकडो( मुरगी को गुजराती में कूकडो कहते हैं)* से लगा सकते हैं। मिल की सीटी से लोगों को समय का पता चलता था कि अब इतने बजे हैं। मिलों के आसपास रहनेवालों की पूरी दिनचर्या मिल की सीटी पर आधारित थी। ये बात मैं दावे से कह सकता हूं; क्यों कि हम रायखड में जिस घर में रहते थे। उस के सामने ही बेचरदास मिल थी।

उस समय नरोडा रोड पर ८ सरसपुर में ८ कालुपुर दरवाजे के बाहर १ जमालपुर दरवाजे के बाहर १ रायखड में १ रायपुर दरवाजे के बाहर १ खोखरा महेमदावाद में ५ मीठीपुर में ३ गोमतीपुर पुल से रखियाल रोड १२ प्रेम दरवाज़ा तरफ ९ असारवा तरफ ४ शाहीबाग तरफ २ और दूधेश्वर रोड पर ३ मिलें थी। 

१९४८ में मिलों में कुल १,३०,०६१(एक लाख तीस हजार इकसठ मजदूर) काम करते थे। इन में ८८२९(आठ हजार आठ सौ उनतीस) महिलाएं थीं। इन में से कई शहर के आसपास के छोटे कस्बों, गांवों से रोज आवागमन करते थे।

*अनुवादक व संकलक - कुमार अहमदाबादी*

रविवार, नवंबर 17

ज़िंदगी में फूल को जो भी सताएगा(ग़ज़ल)


ज़िंदगी में फूल को जो भी सताएगा

ज़िंदगी को वो जहन्नुम ही बनाएगा 


तू डराना चाहता है मौत को प्यारे 

ये बता तू मौत को कैसे डराएगा 


बावली सी हो गयी मैं जानकर ये की

आज बेटा शौक से खाना पकाएगा 


मानता हूं तू बहुत नाराज़ है लेकिन 

भाई के बिन जश्न तू कैसे मनाएगा


वो बहुत ही हंँसमुखा इंसान है यारों

मौत को हंँसकर गले से वो लगाएगा

कुमार अहमदाबादी

नेक गुण आदमी में है ही नहीं(ग़ज़ल)

 

नेक गुण आदमी में है ही नहीं

साफ़ पानी नदी में है ही नहीं 


हाथ को जोडकर खड़ा है पर

सादगी आदमी में है ही नहीं


फूल ताज़े हैं पर है ये हालत

शुद्धता ताज़गी में है ही नहीं 


मूर्ति के सामने खड़ा है पर

भावना बंदगी में है ही नहीं 


नाम उस का है चांदनी लेकिन 

रोशनी चांदनी में है ही नहीं 

कुमार अहमदाबादी


शनिवार, नवंबर 16

बहाना जो किया तूने (ग़ज़ल)


बहाना जो किया तूने बहुत प्यारा बहाना है

मुझे तेरे बहाने को हकीकत से सजाना है


आयी है जब जवानी स्वप्न आयेंगे जवानी के

मुझे आगे का जीवन उन्हीं के साथ बिताना है


कभी रोड़ा कभी गाली मिलेंगे रास्ते में पर 

सफ़र रोके बिना प्रत्येक अड़चन को हटाना है


हे भगवन क्यों नहीं लेते परीक्षा कभी तुम मेरी

मुझे मेरे अटल विश्वास को अब आजमाना है


उसे कुदरत ने सब कुछ दे दिया है इक कलम देकर 

वो है कविराज उस के पास शब्दों का खज़ाना है

कुमार अहमदाबादी


मंगलवार, नवंबर 12

ग़ज़ल (सजन के धैर्य को मत


सजन के धैर्य को मत आजमाओ

वदन से ज़ुल्फ को तुम मत हटाओ


शरारत मत करो जी मान जाओ

अधर प्यासे हैं ज्यादा मत सताओ


सताया स्पर्श से तो बोल उठा मन

मज़ा आया मुझे फिर से सताओ


मुझे मालूम है तुम हो अदाकार 

अदाकारी के कुछ जलवे दिखाओ


अगर विश्वास है खुद पर व मुझ पर

जरा सा हाथ तुम आगे बढाओ

कुमार अहमदाबादी


सोमवार, अक्टूबर 14

मस्त हरा रंग सजा बाग में (ग़ज़ल)

 मस्त हरा रंग सजा बाग में 

एक नया फूल खिला बाग में 


फूल कली चांद एवं चांदनी

ने है किया प्रेम नशा बाग में 


साज नये शब्द नये भाव का

प्रेम भरा गीत सुना बाग में 


मौन दबी चीख घुटी वेदना

प्रेम से क्या क्या न मिला बाग में 


तान मिली ताल से मन जो मिले

गीत मधुर गूंज गया बाग में 


भूल गया शब्द बुरे और वो

आस लिये लौट गया बाग में 


टूट चुके नष्ट हुए स्वप्न का

बोझ उठाया न गया बाग में 

कुमार अहमदाबादी

मंगलवार, अक्टूबर 8

प्रेम कभी झूठ नहीं बोलता (ग़ज़ल)


*ग़ज़ल*

बहरे सरीअ

(गाललगा गाललगा गालगा)

प्रेम कभी झूठ नहीं बोलता

ना ही किसी का वो बुरा सोचता


शांत कुशल सौम्य एवं संयमी

शब्द बिना मौन से है बोलता


साथ की आदत है एसी पड़ गयी

पल भी अकेला वो नहीं छोड़ता 


दूर ही रहता है विवादों से वो

फूट चुकी मटकी नहीं फोड़ता 


यार सृजनशील है सपने में भी

खंडहरो को वो नहीं तोड़ता 

कुमार अहमदाबादी

सोमवार, अक्टूबर 7

कला की साधना के प्राण (अनूदित)

कला की साधना के प्राण 

 (अनूदित)

लेखक - कुमारपाळ देसाई
अनुवादक - कुमार अहमदाबादी
ता.24-07-2024 बुधवार के दिन गुजरात समाचार की शतदल पूर्ति में कॉलम झाकळ बन्युं मोती में छपे लेख का अनुवाद 


एक विख्यात संगीताचार्य के पास संगीत की शिक्षा प्राप्त करने के लिये समग्र भारतवर्ष से कला रसिक आते थे। संगीताचार्य पूरी श्रद्धा मेहनत व लगन से उन्हें संगीत की शिक्षा देते थे। उन के कई शिष्य विख्यात होकर उन की कला साधना में चार चांद लगा रहे थे।
एक दिन एक कला रसिक उन के पास आया। उसने कहा 'मैं आप की ख्याति सुनकर संगीत की शिक्षा प्राप्त करने आप के पास आया हूं। आप से संगीत सीखने की मेरी प्रबल इच्छा है।'
संगीताचार्य द्वारा उस की विनती स्वीकार किये जाने पर उसने पूछा ‘आचार्य श्री, मुझे पुरस्कार स्वरूप आप को क्या देना होगा?
संगीताचार्य बोले ‘ज्यादा कुछ नहीं सिर्फ सौ स्वर्ण मुद्राएं देनी होगी।'
कला रसिक ने हैरान होकर पूछा सौ स्वर्ण मुद्राएं! ये जरा ज्यादा है। एसा क्यो? जब कि मुझे  संगीत का ठीक-ठाक ज्ञान है। आज अन्य कला रसिक भी मुझे आदर देते हैं, सम्मान देते हैं।  मैं संगीत का जानकार होने के कारण आप को ज्यादा परिश्रम भी नहीं करना पड़ेगा। कार्य कम और कीमत ज्यादा?
आचार्य ने कहा ‘काम कम नहीं बल्कि ज्यादा है। क्यों कि पहले वो सब भुलाना पड़ेगा। जो तूने सीखा है। तुझे नये सिरे से सीखने की शुरुआत करनी पड़ेगी। क्यों कि पहले से भरे हुए पात्र को और भरना असंभव है। उस में कुछ भरना हो तो पहले खाली करना पड़ता है।

कला रसिक को ये बात समझ में नहीं आयी सो वो चला गया। जब की आचार्य के पास बैठे दूसरे शिष्य को आचार्य की बात सुनकर आश्चर्य हुआ।
उस के जाने के बाद आचार्य के पास बैठे अन्य शिष्य ने आचार्य से एसा करने का कारण पूछा तो आचार्य बोले ‘मैंने सोच समझकर उसे एसा कहा है; क्यों कि उस में ज्ञान होने का गर्व था घमंड था। जब की कला की साधना के लिये विनम्रता, कोमलता आवश्यक है।

વિનમ્રતા કલાની સાધનાના પ્રાણ છે

વિનમ્રતા કલાની સાધનાના પ્રાણ છે

એ ક વિખ્યાત સંગીતાચાર્ય પાસે સંગીત શીખવા માટે સમગ્ર ભારતવર્ષમાંથી કલારસિકો આવતા હતા. સંગીતાચાર્ય ખૂબ મહેનત અને પૂરી લગનથી એમને સંગીત-શિક્ષણ આપતા હતા, એથી એમના ઘણા શિષ્યો આ ક્ષેત્રમાં પ્રસિદ્ધિ પામ્યા હતા. એક કલારસિક સંગીતમાં નિપુણતા પ્રાપ્ત કરવા માટે સંગીતાચાર્ય પાસે આવ્યો અને બોલ્યો,

'આપના જેવા સંગીતાચાર્યની ખ્યાતિ સાંભળીને અહીં આવ્યો છું, આપની પાસેથી સંગીતની શિક્ષા મેળવવાની મારી ઈચ્છા છે.'

સંગીતાચાર્યે એની વિનંતીનો સ્વીકાર કરતાં કલારસિકે પૂછ્યું,

'આચાર્યશ્રી, આ સંગીતની શિક્ષા માટે મારે આપને પુરસ્કાર રૂપે શું આપવું પડશે ?'


'ખાસ કંઈ નહીં, માત્ર એકસો સુવર્ણમુદ્રા આપવી પડશે.'


કલારસિકે કહ્યું, 'એકસો સુવર્ણમુદ્રા ! આ જરા વધારે છે, એનું કારણ એ કે મને આમ તો સંગીતનું સારું એવું જ્ઞાન છે. કલારસિકો આજે મારી સંગીતકલાને આદર-સન્માન પણ આપે છે.'


'આચાર્યશ્રી, આ સંગીતની શિક્ષા માટે મારે આપને પુરસ્કાર રૂપે શું આપવું પડશે ?'


'ખાસ કંઈ નહીં, માત્ર એકસો સુવર્ણમુદ્રા આપવી પડશે.'


કલારસિકે કહ્યું, 'એકસો સુવર્ણમુદ્રા ! આ જરા વધારે છે, એનું કારણ એ કે મને આમ તો સંગીતનું સારું એવું જ્ઞાન છે. કલારસિકો આજે મારી સંગીતકલાને આદર-સન્માન પણ આપે છે.'


આ સાંભળી સંગીતાચાર્યે કહ્યું, 'જો આવું જ હોય તો તારે બસો સુવર્ણમદ્રા આપવી પડશે.'


કલારસિક પરેશાન થઈ ગયો. એણે પૂછ્યું, 'આચાર્યશ્રી, આવું કેમ ? આપની વાત હું સહેજે સમજી શકતો નથી. હું સંગીતનો જાણકાર છું, તેથી આપને શીખવવામાં બહુ સમય નહીં લાગે. ઘણી ઓછી મહેનત કરવી પડશે. કામ ઓછું અને પુરસ્કાર કેમ વધારે ?'


આચાર્યશ્રીએ ઉત્તર આપ્યો, 'કામ ઓછું નથી, બલ્કે વધુ છે. 


પહેલાં તને જે શીખવ્યું છે, તે ભૂંસવું અને ભુલાવવું પડશે. તારે નવેસરથી શીખવાનો પ્રારંભ કરવો પડશે, કારણ કે પહેલેથી જ ભરાયેલા પાત્રમાં કશું વિશેષ નાખવું અસંભવ છે.'


કલારસિકને આ વાત સમજાઈ નહીં, એથી એ ચાલ્યો ગયો, પરંતુ નજીકમાં ઊભેલા આચાર્યશ્રીના શિષ્યને આ સાંભળીને આશ્ચર્ય થયું. એણે આમ કરવાનું કારણ પૂછ્યું.


આચાર્યે કહ્યું, 'મેં સમજી વિચારીને આમ કહ્યું, કારણ કે મને એનામાં જ્ઞાનના ગર્વનો અનુભવ થયો, કલાની સાધના માટે વિનમ્રતા જરૂરી છે.'

તા.24-07-2024 ના દિવસે ગુજરાત સમાચાર કી કોલમ માં છપાયેલો લેખ

કુમારપાળ દેસાઈ



रविवार, अक्टूबर 6

આવ્યા છે આવ્યા છે આવ્યા છે (ગરબો)


આવ્યા છે આવ્યા છે આવ્યા છે એ

આવ્યા છે આવ્યા છે આવ્યા છે એ......

ગરબે રમવા  અંબા આવ્યા છે........હે આવ્યા છે આવ્યા છે આવ્યા છે.......... ગરબે રમવા અંબા આવ્યા છે


લહાવો છે લહાવો લો ખેલૈયાઓ 

અંબા ની સાથે ગરબે રમીને 

ગરબે રમવા ચંદ્રઘંટા આવ્યા છે......હે..આવ્યા છે આવ્યા છે આવ્યા છે..........ગરબે રમવા માં દુર્ગા આવ્યા છે


ધન્ય એનું જીવન આજે થઈ જશે 

માતાની સાથે જેઓ ગરબે રમશે

દુર્ગા માંની સાથે આવ્યા છે કોણ 

અંબાની સાથે ગરબે ઘૂમી લો....હે.. આવ્યા છે આવ્યા છે આવ્યા છે..............ગરબે રમવા મહાલક્ષ્મી આવ્યા છે

અભણ અમદાવાદી

आखिरी पलों का सहारा

फर्ज पर हाजिर नहीं नर्स चिंताग्रस्त युवा मेजर को अस्पताल के बिस्तर पर सोये दर्दों के पास ले गयी: और बहुत कोमल स्वर में बोली 'आप का पुत्र आया है' 

कयी बार पुकारे जाने के बाद दर्दों ने आंख खोली। 

दर्दी को हार्ट अटेक आया हुआ था, इसलिये दर्दशामक दवाइयां दी गयी थी। उन दवाईयों के नशे के कारण दर्दी ने दो चार बार पुकारने के बाद आंखें खोली। उसे सब कुछ धुंधला दिखायी दे रहा था। उसने देखा की आर्मी का मेजर अपनी पोशाक में खडा है। बहुत मुश्किल से उसने हाथ को बढाया।

मेजर ने बडे हुये हाथ को थामा। हाथों के स्पर्श से आपस में भावनाओं की स्पर्शगंगा बहने लगी।  

इस ह्रदयस्पर्शी दृश्य को देखकर नर्स की आंखें भी भीग गयी। मेजर बैठकर बात कर सके इसलिये नर्स एक कुर्सी ले आयी। मेजर ने आभार व्यक्त किया और कुर्सी पर बैठ गया।

रात बीतने लगी। वार्ड में प्रकाश बहुत कम था। युवा मेजर दर्दों का हाथ थामे बातें करता रहा। 

दर्द को हिंमत देता रहा।मेजर की बातों से अपनेपन, सहानुभूति, प्रेम की धारा बहती रही। 

नर्स थोडी थोडी देर में वहां आकर युवा दोनों का ध्यान रखती रही। मेजर को थोडी देर आराम करने के लिये सलाह भी दी। लेकिन मेजर ने हर बार नम्रतापूर्वक इन्कार कर दिया। वर्दी के हाथ को थामे वहीं बैठा रहा। 

रात की शांति को चीरकर आसपास के वातावरण से अन्य आवाजें आती रही। दर्दियों की सेवा करते करते बीच बीच के समय में एक दूसरे से बातचीत कर के समय व्यतीत कर रहे नाइट स्टाफ की आवाजें भी आती रहती थी।

लेकिन युवा मेजर को कुछ भी सुनायी नहीं देता था। नर्स देख रही थी कि मेजर दर्दों से बहुत ही प्यारी और मीठी बातें कर रहा है। 

 जब की मृत्यु शैया पर सोया दर्दी एक भी अक्षर नहीं बोल रहा था। उसने तो बस मेजर का हाथ कसकर पकड़ रखा था। 

भोर हुयी और वृद्ध ने सदा के लिये आंखें बंद कर ली। वृद्ध की आत्मा अनंत के प्रवास पर रवाना हो गयी। मेजर ने धीरे से वृद्ध के हाथ से अपना हाथ खिंचा। वृद्ध के अनंत प्रवास के समाचार नर्स को दिये। 

नर्स ने आकर शरीर से जुडे मेडिकल उपकरण हटाये। सफेद चादर द्वारा सन्मानपूर्वक देह को ढका। 

मेजर थोडी दूर शिस्तबद्ध खडा रहा।

नर्स मेजर के पास गयी। सहानुभूति देने लगी। लेकिन मेजर ने नर्स को रोककर पूछा 'ये वृद्ध कौन थे?'

नर्स दो पल के लिये आश्चर्य के सागर में डूब गयी। उसने आश्चर्य से पूछा 'क्या! क्या ये आप के पिता नहीं थे?

मेजर ने कहा 'नहीं, ये मेरे पिता नहीं थे। मैं जीवन में आज पहली बार इन्हें मिला हूँ। 

नर्स उलझ गयी। उसने फिर पूछा 'तो फिर जब मैं आप को वृद्ध के पास लायी तब आपने क्यों कुछ भी नहीं कहा।

मेजर ने जवाब दिया 'आप जिस पल मुजे वृद्ध के पास ले गयीं। उसी पल मैं समझ गया की कुछ भूल हो रही है। लेकिन मैं ये भी समझ गया की मृत्यु शैया पर सोये इस वृद्ध को अपने पुत्र की प्रतीक्षा है; और पुत्र यहां नहीं है। 

नर्स नि:शब्द थी। 

मेजर ने आगे कहा 'जब मैंने पाया की वे इतने होश में भी नहीं है की ये समझ सके की मैं उन का पुत्र नहीं हूँ। तब मुजे समझ में आया की उन्हें मेरी उपस्थिति की कितनी जरुरत है। इसलिये मैं बैठा रहा। उन का हाथ हाथों में लेकर बातें करता रहा। उन के आखिरी समय में पुत्रवियोग का अहसास नहीं होने देना चाहता था। 

नर्स की आंखें भी भीग गयी थी। वो भीगी आंखों से बोली 'तो फिर आप .... यहां किस से मिलने के लिये आये थे?

मेजर बोला 'मैं यहाँ मिस्टर सलारिया से मिलने आया था। कल उन का पुत्र करण जम्मु कश्मीर में शहीद हो गया है। मुजे ये खबर उन्हें देनी थी। 

नर्स अवाचक थी। दो पल के बाद वो बोली 'आप सारी रात जिन का हाथ पकड़कर बैठे बातें करते रहे। वही मेजर सलारिया थे। 

सुनकर मेजर मौन हो गये। 

(वॉट्स'प पर मिली गुजराती पोस्ट का हिन्दी भावानुवाद)

भावानुवादक- महेश सोनी

शनिवार, अक्टूबर 5

ગરબે રમવા આવો મા અંબા (ગરબો) નો ડૉ. સ્નેહલ કુબાવત દ્વારા ભાવાર્થ

 મન અંજુમન 

ડૉ. સ્નેહલ નિમાવત કુબાવત 

9429605924


ગરબે રમવા આવો મા અંબા (ગરબો)


ગરબે રમવા આવો મા અંબા નોરતાની રાત છે

રાસ પણ રમીશું સાથે  નોરતાની રાત છે,

આની સાથે એની સાથે મારી સાથે તેની સાથે

ગરબે રમવા આવો મા અંબા......નોરતાની રાત છે.



ઝમક્યું રે ઝમકયું માં નું મા નું ઝાંઝર ઝમક્યું રે

ચમકી રે ચમકી માની ચુંદલડી ચમકી રે,

આની સાથે મારી સાથે મારી સાથે આની સાથે

ગરબે રમવા આવો મા ચામુંડા.....નોરતાની રાત છે


રઢિયાળી રાત છે તારાઓ સાથે છે

મોજીલી રાત છે ચાંદલિયો સાથે છે,

આની સાથે મારી સાથે મારી સાથે આની સાથે

ગરબે રમવા આવો મા દુર્ગા........ નોરતાની રાત છે



શેરીઓ શણગારી છે શણગાર્યા ચોક છે

સોસાયટી આખે આખી અમે શણગારી છે,

આની સાથે મારી સાથે મારી સાથે આની સાથે

ગરબે રમવા આવો મા નવદુર્ગા..... નોરતાની રાત છે

 અભણ અમદાવાદી


    મહેશ સોની અભણ અમદાવાદીના નામથી કવિતા લખે છે. તેમની કવિતા લાગણી અને વાસ્તવિકતા થી સભર હોય છે. મા  અંબાનો ગરબો મા પ્રત્યેની શ્રધ્ધા અને આસ્થા દર્શાવે છે. 

     નવલી નવરાત્રી મા આંબાની ભક્તિનો તહેવાર છે. શક્તિના પ્રતીક રૂપ આ તહેવારમાં મા ની આરાધના કરવામાં આવે છે. ભક્તિથી તરબોળ આ તહેવારમાં મા આપણા જીવનમાં નવી ઊર્જા ભરે છે. નવેસરથી જીવવા પ્રેરણા આપે છે. તકલીફ સામે લડવાની હિંમત આપે છે. 

    જીવનમાં છવાયેલા અંધકારને હિંમતથી દૂર કરવાની અનોખુ બળ મળે છે. ગરબે ઘૂમીને આપણે આપણી પોતાની અંદર નવી ઊર્જા અનુભવીએ છીએ. દર વરસે નવી જ શક્તિ મનને આ તહેવાર ઉજવીને મળે છે. જેમ દશેરાના દિવસે આપણે રાક્ષસ મહિષાસુર પર દેવી દુર્ગાના વિજયનો ઉત્સવ મનાવીએ છે.  દશેરાના દિવસે  "રામલીલા" ના અંતને દર્શાવી અને રાવણ પર ભગવાન રામની જીતને યાદ કરીએ છીએ. 

      આજે આપણે બુરાઈ પર સત્યની જીત થતા જોઈએ છીએ. મન પાસે એટલી શક્તિ છે કે આપણે ધારીએ એ કામ કરી શકીએ છીએ. નવરાત્રિના દિવસોમાં મનને નવું જોમ મળે છે નવો ઉત્સાહ મળે છે અને તકલીફો સામે લડવાની નવી તાકાત મળે છે.  

      પ્રસ્તુત ગરબામાં આંબામા, ચામુંડામા, દુગમા, અને નવદુર્ગામા 

ની ભક્તિ અને આરાધનાનું ગાન ગવાયું છે. 

       નવરાત્રિના દિવસોમાં આબોહવામાં વસંત અને પાનખર જેવા બે મહત્વના સંગમોની શરૂઆત થાય છે અને સૂર્યનો પ્રભાવ પણ રહે છે. માતૃદેવીની પૂજા માટે આ બે સમયગાળાને એક પવિત્ર તક તરીકે ગણવામાં આવે છે. ચંદ્ર આધારીત પંચાંગ પ્રમાણે આ ઉત્સવની તારીખો નક્કી કરવામાં આવે છે. નવરાત્રી દેવી દુર્ગાના ઉત્સવનું પ્રતીક છે, જે દેવીને શક્તિ (ઊર્જા)ના સ્વરૂપે વ્યક્ત કરે છે. દશેરા એટલે કે 'દસ દિવસ' એ નવરાત્રી પછીનો દીવસ છે. નવરાત્રી ઉત્સવ કે નવ રાત્રીઓનો આ ઉત્સવ હવે તેના છેલ્લા દિવસને જોડીને દસ દિવસનો ઉત્સવ બની ગયો છે, જેને વિજયાદશમી કહેવાય છે, જે આ ઉત્સવનો અંતિમ દિવસ છે, આ દસ દિવસોમાં, માતા મહિષાસુર-મર્દીની (દુર્ગા)ના વિવિધ રૂપોનું ઉત્સાહ અને ભક્તિથી પૂજન કરવામાં આવે છે.

    નવરાત્રી દરમ્યાન શક્તિના નવ સ્વરૂપોની પૂજા થાય છે. દેવીની પૂજા પ્રદેશની પરંપરાના પર આધારિત હોય છે.દુર્ગા, જે અપ્રાપ્ય છે તે,  ભદ્રકાલી,  અંબા કે જગદંબા, વિશ્વમાતા, અન્નપૂર્ણા, જે અનાજ (અન્ન)ને મોટી સંખ્યામાં (પાત્રનો ઉપયોગ હેતુલક્ષી રીતે થયો છે) સંઘરીને રાખે છે તે., સર્વમંગલા, જે બધાને (સર્વને) આનંદ (મંગલ) આપે છે તે,  ભૈરવી, ચંદ્રિકા કે ચંડી, લલિતા, ભવાની, મોકામ્બિકા.

     આ નવરાત્રિનું પર્વ આપણા સૌ માટે ભક્તિસભર બની રહે એવી શુભેચ્છાઓ. નવરાત્રીનો તહેવાર આપણે પોતિકાઓ સાથે ઉજવીએ અને અજાણ્યાથી દૂર રહીએ. સજજ થઈને નવરાત્રી ઉજવીએ પણ નવરાત્રી દરમ્યાન દૂષણોથી દૂર રહીએ અને આપણું ધ્યાન રાખીએ..

ટૂંકું ને ટચ 

    ભક્તિના પાવન પ્રસંગે મા ને યાદ કરી પવિત્ર મનથી આરાધના કરીએ..

शुक्रवार, अक्टूबर 4

ब्रह्मचारिणीः संयम सदाचारिता साधना

 

ब्रह्मचारिणीः संयम सदाचारिता साधना

मां ब्रह्मचारिणी का ध्यान मंत्र है
दधाना करपद्माभ्यामक्षमाला कमण्लु।
देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा।।
ब्रह्म दो प्रकार से समझा जा सकता है।
(१) वेदशास्त्रों में जिसे परब्रह्म अर्थात सर्वोच्च निराकार परम ज्ञान की उपमा दी गयी है वो प्रचंड उर्जा।
(२) तपस्या सा साधना
ब्रह्मचारिणी अर्थात तपस्या में लीन रहने वाला या अपने अस्तित्व को निरंतर ब्रह्म में स्थिर रखने वाला। ब्रह्मचारिणी माता का स्वरुप पूर्ण ज्योतिर्मय और भव्य है। उन्होंने मंत्र जाप करने के लिये अपने दायें हाथ में अक्षमाळा और बायें कमंडल धारण किया है।
पूर्व जन्मों में हिमालय के घर में पुत्री स्वरुप में जन्म लेने के पश्चात उन्होंने देवर्षि नारद द्वारा दिये गये उपदेश के कारण देवाधिदेव महादेव को प्राप्त करने के लिये कठोर तप किया था। दुष्करतप करने के कारण उन्हें ब्रह्मचारिणी के रुप में पहचान मिली।
पहले के समय में बच्चों को जन्म के कुछ समय बाद गुरुकुल में भेजा जाता था। जहां वे संयम और ब्रह्मचर्य के पाठ सीखते थे। साथ ही साथ विद्या और ज्ञान भी अर्जित करते थे। उस के लिये तब के नितांत आवश्यक माना जाता था।
ब्रह्मचारिणी माता सीखाती है कि संसार चक्र में रहकर भी उस से अलिप्त कैसे रहा जा सकता है। माता ये भी सीखाती है। माया रुप कीचड़ भरी फिसलन में रहकर भी कैसे ब्रह्मकमल की तरह खिला जा सकता है।
सुबह स्नानादि कर्म के पश्चात पूजाघर में अपने आसन पर बैठकर श्रद्धापूर्वक दीप के प्रकटाने के बाद ब्रह्मचारिणी माता के ध्यान मंत्र का उच्चारण करना चाहिए। मंत्रोच्चारण के बाद महादेवी को शक्कर अर्पण करनी चाहिये; एवं घर के सदस्यों में भी प्रसाद बांटना चाहिये। उस के बाद नीचे दिये आह्वान मंत्र से मां ब्रह्मचारिणी को प्रकट होने के लिये अरदास(प्रार्थना) करनी चाहिये।

मंत्र
ॐ भूर्भुवः स्वः ब्रह्मचारिणी इहागच्छ इहतिष्ठ ब्रह्माचारिण्यै नमः।
ब्रह्मचारिणीं आवाहयामि स्थापयामि नमः।।
पाद्यादिभिः पूजनम् विद्याय ॐ त्रिपुरा त्रिगुणधारा मार्गज्ञानस्वरुपिणीम्।
त्रैलोक्य वंदिता देवीं त्रिमूर्ति पूज्याम्यहम्।।
इतना करने के बाद निम्नलिखित नवार्ण मंत्र की माला फेर सकते हैं। महादेवी की साधना के लिये १०८ पंचमुखी रुद्राक्षधारी माला का उपयोग सर्वश्रेष्ठ माना गया है।

ॐ एं हृीं क्लीं चामुण्डाये विच्चे।।

यथाशक्ति अवसरानुकूल(अवसर के अनुकूल) नव वर्ण के इस अत्यंत प्रभावशाली मंत्र की १ माळा ३ माळा ५ माळा ५ माळा या १० माळा की जा सकती है। इस के लिये गुरुदीक्षा की आवश्यकता नहीं है। सूतक और मासिक धर्म के दौरान भी इस पूजा विधि के साथ नवरात्रि के दरम्यान जगदंबा की भक्ति की जा सकती है।
सूचना :-
नवरात्रि के तीसरे दिन जगत जननी जगदम्बा को दूध या दूध से निर्मित कोई व्यंजन (जैसे खीर) का भोग लगाया जाता है।
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गुजरात समाचार में चल रही नवदुर्गा श्रेणी में आज ता.०४-१०-२०२४ गुरुवार के दिन दूसरे पृष्ठ पर छपे लेख का आंशिक अनुवाद
लेखक -परख ओम भट्ट
अनुवादक - कुमार अहमदाबादी

बुधवार, अक्टूबर 2

शैलपुत्री: मूलाधार चक्र के साथ मंत्र साधना का मंगलाचरण

 मां शैलपुत्री का ध्यान मंत्र है

वन्दे वांच्छित लाभाय

चंद्रार्धकृतशेखराम्।

वृषारुढां शूलंधरा शैलपुत्री 

यशस्विनीम्।।

स्वयं की योगाग्नि द्वारा भस्मीभूत हुई देवी सती ने उस के बाद शैलराज हिमालय की पुत्री बनकर जन्म लिया। वहां वे शैलपुत्री के नाम से विख्यात हुई। उन्हें पार्वती एवं हेमवती के रुप में भी जाना जाता है। 

एक रहस्य शैलपुत्री के साथ जुडा हुआ है। वो ये कि उन की उपासना करते समय साधक अपने मन को मूलाधार चक्र में स्थित करता है। योग साधना और मंत्र साधना का आरंभ ही मूलाधार चक्र पर ध्यान केंद्रित करने के साथ होता है। हिमाचल प्रदेश में बसने वाले श्रीविधा के सिद्ध उपासक ओम शास्त्री ने ‘नवदुर्गा साधना’ के समय अत्यंत मार्मिक बात बताई थी कि नवदुर्गाओं का मनुष्य के जीवनकाल के साथ तुलनात्मक अध्ययन करना चाहिये। जिस से उस के मर्म की गहराई को समझा जा सके। शैलपुत्री माता को नवजात शिशु की तरह माना जा सकता है। उपासना के पथ पर आगे बढ़ने के बाद स्वयं के विकार और नकारात्मक वृत्तियों का दहन करने के बाद मनुष्य जिस तरह साधना में मनोयोग से जुड़ जाता है; उस घटना को मा शैलपुत्री के अवतरण के साथ जोडा जा सकता है। भगवाव शिव की आज्ञा का उल्लघंन करने के बाद देवी सती ने जि तरह से अपना सर्वस्व गंवा दिया। उसी तरह अहंकार, मद, मोह, कामवासना में अंध बना व्यक्ति अपना ही नुक्सान करता है। लेकिन नवदुर्गा की उपासना से उस के जीवन में एसा पडाव आता है। जिस मे वो अपने विकारों से मुक्त होकर धीरे धीरे उपासना के पथ पर आगे बढ़ता है; एवं शैलपुत्री की तरह नव जन्म धारण कर के अंत में शिव को प्राप्त करता है। 

लेखक - परख ओम भट्ट, अनुवादक - कुमार अहमदाबादी 

गुजरात समाचार में चल रही नवदुर्गा श्रेणी में आज ता.०३-१०-२०२४ गुरुवार के दिन दूसरे पृष्ठ पर छपे लेख का आंशिक अनुवाद 

(अनुवाद का अगला हिस्सा शाम तक पोस्ट करुंगा)


शुक्रवार, सितंबर 27

सनम मुझे मिलो कभी (ग़ज़ल)

सनम मुझे मिलो कभी

नदी बनो बहो कभी


अभी न जाओ छोड़कर 

सनम मुझे कहो कभी 


सनम के मौन प्यार की

पुकार तुम सुनो कभी 


कहे बिना सुने बिना 

झुके बिना झुको कभी 


बसे हो पत्थरों में तुम 

हृदय में भी बसो कभी


जुड़ो किसी से भी मगर 

स्वयं से भी जुड़ो कभी 


कभी कहो कुमार तुम 

नयी ग़ज़ल सुनो कभी 

कुमार अहमदाबादी

सोमवार, सितंबर 23

पास बैठो दो घड़ी मेरे सनम (ग़ज़ल)


पास बैठो दो घड़ी मेरे सनम

गर न बैठे तो तुम्हें दूंगी कसम


जिंदगी में मौज ही सब कुछ नहीं 

ध्येय को भी सामने रखना बलम


खुद के पैरों पर ही चलना ताकि ये

कह सको इस जग को हैं खुद्दार हम


मुस्कुराकर प्रेम से हर फर्ज को

गर निभाओगे सफल होगा जन्म


राक्षसों को चीरते हैं भारतीय 

थे व हैं नरसिंह के अवतार हम


चंद लोगों को मिली है ये सजा

हाथ में ही फट गये मैसेज बम

कुमार अहमदाबादी 


रविवार, सितंबर 22

निबंध पर एक निबंध

  निबंध का अर्थ है- विशेष रुप से बंध यानी एक ऐसी व्यवस्था जिसमें बंधकर हमारा कोई विषय चलता है। हमारा विचार , या हमारी घटना उसको अनुशासित करके लिखा जाता है। निबंध विस्तृत भी हो सकता है और संक्षिप्त भी। लेकिन निबंध एक अवतरण "नहीं हो सकता एक निबंध में कई अवतरण आ सकते हैं ।

निबंध अपने आप में एक पूर्ण अभिव्यक्ति है। 

हम किसी भी विचार ,भाव या वर्णन इन सब को व्यवस्थित ढंग से जब लिखते हैं तो निबन्ध हो जाता है।

 वैसे तो साहित्य को किसी नियम में नहीं बांध पाते न ही बांध सकते हैं ,न विधान है तथापि सुविधा के लिए हम प्रत्येक विधा को उनके तत्व में विभाजित कर देते हैं। इसी प्रकार निबंध के भी मुख्यतः तीन प्रकार हैं :

प्रथम भाव प्रधान दूसरा विचार प्रधान और तीसरा वर्णन प्रधान। अर्थात भाव प्रधान विषय जैसे संबंध सुख-दुख प्रेम आदि से संबंधित होते हैं । विचारप्रधान निबंध जिसमें तर्क वितर्क बुद्धि या विचार समायोजित होता है। इसमें विज्ञान, इतिहास ,भूगोल और अनेक प्रकार के बौद्धिक निबंध हो सकते हैं। इसके अलावा इसमें दार्शनिक निबंध भी शामिल किए जा सकते हैं। 

तीसरे प्रकार का निबंध है - वर्णन प्रधान । इनमें हम यात्रावृत्त, किसी का संस्मरण, घटना या प्रकृति चित्रण या किसी कथा पर आधारित निबंध को ले सकते हैं। 

विषय पर आधारित निबंध अर्थात कितने प्रकार के निबंध हो सकते हैं ::

विषय पर आधारित

 1.सामाजिक 

 2.राजनीतिक 

3.सांस्कृतिक 

 4..धार्मिक 

 5.दार्शनिक 

 6.आर्थिक और 

 7.प्राकृतिक।

यह सब विभिन्न विषयों पर आधारित निबंध के प्रकार हैं।

 अब हम बात करते हैं निबंध के अन्य प्रकार यानी निबंध के कई प्रकार और भी हैं निबंध का विस्तृत क्षेत्र है ।इसमें निबंध ही उनकी आत्मा है लेकिन उसके स्वरूप बदलते जाते हैं। थोड़ा परिवर्तन हो करके लेकिन आते हैं सभी निबंध की कोटि में। जैसे-- यात्रा वृत्त, संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ट ,जीवनी, परिचय ,डायरी लेखन, भाषण कला,, हास्य व्यंग्य आदि।

 अब हम निबंधों की भाषा पर बात करेंगे

 वैसे तो कोई भी विषय अपने आप में एक विशेष भाषा को खुद में ही समेटे होता है तथापि हम सुविधा के लिए यहां कुछ विभिन्न भाषा शैलियों का विश्लेषण करते हैं ,वर्णन करते हैं या उल्लेख करते हैं ।

 1 काव्य भाषा या काव्यात्मकता इसके अंतर्गत निबंध में विभिन्न अलंकारों ,विभिन्न बिंबो और विभिन्न प्रकार के संकेतों , प्रतीकों की सहायता से निबंध को आगे बढ़ाते हैं । जैसे जयशंकर प्रसाद की गद्य भाषा।

2.आत्मकथा शैली इसके अंतर्गत निबंध या किसी भी विधा को लीजिए मैं शैली का प्रयोग किया जाता है और उनका विषय भी आत्मपरक होता है । खुद का ही वर्णन होता है या फिर अपने द्वारा अनुभव जो होते हैं उन पर वह निबंध या कोई अन्य विधा होती मैं शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसको मैं शैली या आत्मकथा शैली कहते हैं।

3.प्रश्न शैली ,--खुद ही प्रश्न खड़े किए जाते हैं और खुद ही उनका सवाल दिया जाता है ,उनका जवाब दिया जाता है और कई बार निबंध के अंत में पाठकों के लिए लेखक संकेत के रूप में प्रश्न छोड़ देता है ।

4 समास शैली -

इसके अंतर्गत संक्षिप्त रूप से सांकेतिक रूप से भाषा को संश्लिष्ट संक्षिप्त करके लिखा जाता है । बाद में उसको व्याख्या करके समझा जा सकता है ।

5.व्यास शैली के अंतर्गत हम बात को उठाते हैं फिर उसको विस्तृत रूप देते हैं । कई ही बात को कई दोहराते हैं ताकि बात स्पष्ट हो जाए अपने विचार केआध्य से।

 6.व्यंग्य शैली :

हम हम इसी बात को व्यंगपूर्ण तरीके से कहते हैं ,भले ही वह बात सरल और मधुर दिखाई दे लेकिन उसके अंदर एक व्यंग छिपा रहता है। कई बार खुद पर भी व्यंग्य करके दूसरों पर करना होता है और कई बार सीधे-सीधे भी व्यंग्य किया जाता है। एक बात को घुमा करके व्यंग किया जाता है। प्रतीकों के माध्यम से व्यंग भी किया जाता है तो यहां पर व्यंग्य शैली का प्रयोग होता है।

 7.वर्णनात्मक ता शैली:

 इसके अंतर्गत हम किसी स्थान का घटना का बिना किसी पात्र, संवाद के अन्य शैली का प्रयोग किए सीधे वर्णन करते चले जाते हैं। जैसे कथा पढ़ते हैं ,कहानी पढ़ते हैं। 

 8.चित्रात्मकता शैली:

 बनता है कहां का वर्णन है कैसे वर्णन है चाहे ऐतिहासिक और सामाजिक संस्कृति को कोई भी हो सकता है या प्रकृति का चित्रण हो सकता है लेकिन हम सीधे-सीधे वर्णन करते चलते हैं यहां पर वर्णनात्मक शैली है। 9.संवाद शैली या नाटकीयता

 इस शैली के अंतर्गत लेखक कभी पाठक से संवाद करता नजर आता है तो कभी निबंध के अंदर ही दूसरे पात्र से कहता हुआ नजर आता है और कभी अकेला ही संवाद करता है और खुद ही जवाब देता है।

 यहां पर संवाद शैली होगी। यह शैली ज्यादातर नाटक और कहानियों में प्रयुक्त होती है ।

नाककिय की शैली कहीं-कहीं पर व्यंग या एक दूसरे के चरित्र को उद्घाटित करते हैं। इसका प्रयोग ज्यादातर कहानी और नाटकों में इसलिए इसका नाम नाट्य शैली है। इसमें चेस्टा मुद्राएं आदि का अधिक प्रयोग किया जाता है 10.विश्लेषण शैली -

हम किसी विषय को लेकर के उसकी विवेचना करते चलते हैं एक विषय को एक निबंध के अंदर एक एक विषय को लेते जाते हैं। उसका विस्तार उसका विश्लेषण करते जाते हैं। उस पर पूरा समझाते जाते हैं। वहां पर विश्लेषण शैली होती है।

 11.चित्रात्मक शैली::

 यह शैली है जिसमें वर्णन अधिक होता है लेकिन विशेष बात यह है कि इसमें दृश्य होते हैं। इसमें दृश्य वर्णन होता है , हम कहीं गए कहीं का वर्णन किया ,यह हमारे सामने चित्र प्रस्तुत हो जाता है जैसे कोई चलचित्र चल रहा है। ज्यादातर प्रसाद जी की के निबंधों में कहानियों में चित्रात्मक शैली का प्रयोग होता है।

 प्रकृति चित्रण में यह शैली अधिक महत्वपूर्ण होती है ।

 12.पांडित्य शैली:

 इसके अंतर्गत दर्शन तत्व मौजूद होते हैं, कभी-कभी फिलॉस्फी यानी दार्शनिकता के दर्शन होते रहते हैं ।

एक शब्द को लेकर के दूर तक चले जाते हैं। मान लीजिए शून्य शब्द का प्रयोग किया तो लेखक कहेगा शून्य और कुछ भी नहीं है सिवाय मोक्ष के। सिवाय ब्रह्म के। आदि। यानी दूर तक चला जाता है लेखक। सुख पर बताने लगा तो सुख के बारे में बहुत दूर तक। दर्शन, आत्मा ,परमात्मा आदि तक पहुंच जाएगा इसी प्रकार से पांडित्य शैली में एक नवीनता एक दंता विचारशीलता या होती निमग्न हो जाता है वहां पर पांडित्य शैली है।

13.तुलनात्मक शैली:

इसके अन्तर्गत डॉ विषयों , व्यक्तियों, दो वातावरण, दो संस्कृतियों का तुलनात्मक विश्लेषण किया जाता है।

इस प्रकार संक्षिप्त रूप में हमने यहां पर निबंध के बारे में रखा निबंध की कोटियां या उसके प्रकार इसे ही स्पष्ट होते हैं ।उच्चकोटि के निबंधके लिए जरूरी नहीं कि सभी प्रकार की शैलियों को लेकर चले ।सभी प्रकार के तत्वों को या विभिन्न प्रकार के विषयों को लेकर चले ।एक ही विषय का निबंध एक ही प्रकार की भाषा शैली भी उच्च कोटि की हो सकती है।  

यहां पर कुछ निबंध के तत्वों के बारे में हम जिक्र करेंगे। 

तत्व ::

1.निबंध में विषय होता है।

2 .फिर प्रकार होता है 

3. देशकल या वातावरण वर्णन

4.कोई भाषा शैली होती है ,

5.उद्देश्य

 5.उपसंहार के रूप में निष्कर्ष होता है।

 या फिर उपसंहार के रूप में लेखक संकेत छोड़ देता है, एक संदेश के रूप में एक उपहार के रूप में।

 - डॉ चन्द्रदत्त शर्मा रोहतक हरियाणा।

शनिवार, सितंबर 21

चिता सजानी है मुझे (रुबाई)

 

सीने की आग अब दिखानी है मुझे
घावों में आग भी लगानी है मुझे
जीवन से तंग आ गया हूं यारों
अब अपनी ही चिता सजानी है मुझे
कुमार अहमदाबादी

शुक्रवार, सितंबर 20

किस्मत की मेहरबानी (रुबाई)

 जीवन ने पूरी की है हर हसरत

मुझ को दी है सब से अच्छी दौलत

किस्मत की मेहरबानी से मेरे

आंसू भी मुझ से करते हैं नफरत

कुमार अहमदाबादी 


शरम आंख री छोड मत (राजस्थानी ग़ज़ल)


तूं शरम आंख री छोड मत

बात सुण सामने बोल मत


आठ दस कोस सूं लायी हूं

पोणी ने फालतू ढोळ मत


देख तूं होस में कोयनी

भाई री पोल तूं खोल मत


एकता घर री नींव है

बोल सूं नींव ने खोद मत


हाथ पग टूट जासी 'कुमार'

सामने ढाळ है दोड मत

कुमार अहमदाबादी

कमाल का है नख़रा (रुबाई)

सजनी तेरा कमाल का है नख़रा

चंचल कन्या की चाल सा है नख़रा 

पर जाने क्यों कभी कभी लगता है

इक मछुआरे की जाल सा है नख़रा 

कुमार अहमदाबादी 

बुधवार, सितंबर 18

पूजा का कक्ष

 पूजा का कक्ष

अनूदित

लेखक - वसंत आई सोनी, अनुवादक - कुमार अहमदाबादी 

अहमचंद नाम के आदमी ने व्यापार से बहुत धन कमाया। जैसे अक्सर लोग करते हैं। उसने नया भव्य महलनुमा बंगला बनवाया। बंगले की साज सज्जा पर भी खूब धन खर्च किया। रोज पूजा करने के लिये बंगले में तीसरी मंज़िल पर अलग से एक पूजा कक्ष भी बनवाया। पूजा का बनवाने के बाद पूजा का में पधारने के लिये भगवान को न्यौता दिया। 

भगवान के पधारने पर अहमचंद ने उन्हें रसोई गृह, भोजन कक्ष, मुख्य शयन कक्ष एवं अच्बंछी  तरह से सुशोभित बंगला बताया। पूरा बंगला बताने के बाद भगवान को पूजा का में ले गया। आसन बिछाकर भगवान को विराजमान होने के लिये कहा कि *आप को यहां विराजमान होना है। आप को अब यहीं रहना सोना उठना है। ये आप का कक्ष है। भगवान मंद मंद मुस्कुराये और बोले ठीक है जैसा तुम चाहो। 

नये बंगले का सुनकर एक दो दिन बाद वहां हाथ साफ करने के उद्देश्य से चोर आये। माल मिल्कत लूटने लगे। लेकिन थोडी ही देर में आवाजों से अहमचंद की आंख खुल गयी। वो चिल्लाने लगा। जिससे घर के दूसरे लोगों की भी आंखें खुल गयी। सब को जागते देखकर चोर हड़बड़ा गये व सबकुछ छोड़कर भाग खड़े हुए। 

अहमचंद ने दूसरे दिन सुबह भगवान को पूरी घटना सुनाकर पूछा। भगवान जब चोर आये तब आप मुझे मदद करने के लिये क्यों नहीं आये। भगवान पहले तो थोड़ा सा मुस्कुराये; फिर बोले। भाई, तुमने मुझे सिर्फ पूजा का कहना सौंपा है; इसलिये पूजा कक्ष का मालिक मैं हूं। बाकी सारे बंगले के मालिक तुम हो। तुमने मुझे पूरा बंगला बताया था जरुर मगर सिर्फ पूजा का कक्ष सौंपा था। चोर यहां आते तो मैं अवश्य सक्रिय होता। लेकिन चोर यहां आये नहीं सो मैं सक्रिय हुआ नहीं। रही बाकी बंगले की जिम्मेदारी तुम्हारी थी। 

ये मेरा, मेरा परिवार, मेरा घर, मेरी कार, मेरा धन इंसान हंमेशा मेरा मेरा में डूबा रहता है। अगर सबकुछ परमात्मा पर छोड़ दे तो सबकुछ परमात्मा संभाल लेता है। 

गीता के नवें अध्याय में कृष्ण ने कहा है  *जो भक्तजन परमेश्वर को निष्काम भाव से याद रखता है, पूजा करता है। इस सत्य को याद रखता है कि चिंतनशील भक्तों के योगक्षेम का वहन मैं करता हूं। उन के भय, चिंता, दुःख, निराशा के समय उन के साथ रहता हूं। प्रत्येक कार्य को पूर्ण करवाता हूं।*

गुजरात समाचार के ता.19-09-2024 गुरुवार की धर्मलोक पूर्ति के चौथे पृष्ठ पर छपे वसंत आई. सोनी के लेख का संक्षेपानुवाद

संक्षेपानुवादक -कुमार अहमदाबादी

रविवार, सितंबर 15

खूबसूरती री माया(राजस्थानी रुबाई)


मोसम सी फूटरी फरी है सजनी

चंचळ गोरी अलबेली है सजनी

मोसम री खूबसूरती री माया 

कवि रा सबदों ने लागी है सजनी 

कुमार अहमदाबादी


बुधवार, सितंबर 11

कान्हा खेले रास(रुबाई)


हैं कान्हा से अलबेले गोकुल में 

नवजीवन के हैं मेले गोकुल में 

मस्ती में झूमें नाचें गाएं रास 

राधा संग कान्हा खेले गोकुल में 

कुमार अहमदाबादी

गुरुवार, अगस्त 29

घटा की आकांक्षाएं (रुबाई)

 

नैनों में नृत्य कर रही इच्छाएं

सावन में गुनगुना रही आशाएं

अलबेले बादल से कह रही है तुम

समझो प्यासी घटा की आकांक्षाएं 

 कुमार अहमदाबादी

शनिवार, अगस्त 24

मन से आदर (रुबाई)

 

सब करते हैं इस का मन से आदर

पत्नी भरती है गागर में सागर

भोली है लेकिन है समझदार कुशल

अवसर अनुसार है बिछाती चादर

कुमार अहमदाबादी

मंगलवार, अगस्त 20

तू नहीं तो ये ऋत (सिने मैजिक) राग किरवाणी पार्ट - ०१

             दो तीन वर्ष पहले बीकानेर स्वर्णकार समाज के बीकानेर एवं अहमदाबाद के लोगों में एक पैरोडी गीत ‘होळी आई मस्तानी आजा’ बहुत लोकप्रिय हुआ था एवं आज भी लोकप्रिय है। 

        पैरोडी गीत उसे कहा जाता है। जो किसी गीत की धुन पर लिखा जाता व गाया जाता है। 

         होळी आई मस्तानी आजा गीत १९५४ में पेश हुयी। सुपर हीट म्यूजिकल मूवी नागिन के गीत मेरा दिल ये पुकारे आजा की धुन पर गाया गया था। 

          १९५४ में पेश हुई नागिन के लगभग सब गीतों ने धूम मचाई थी। ये मेरा दिल ये पुकारे आजा भी सुपर हीट था। इस गीत को राजेन्द्र कृष्ण ने लिखा था और हेमंत कुमार ने स्वरबद्ध किया था। 

           इस गीत को याद करते ही राग किरवाणी याद आता है। किर मूल संस्कृत शब्द है। कीर यानि शुक अर्थात तोता, पोपट। कहा जाता है इस राग की सरगम (वाणी - आवाज) पोपट की वाणी सी मधुर लगती है। 

            उत्तर भारत के संगीत में एसे राग बहुत कम नहीं के समान ही है। गांधार और धैवत दोनों कोमल स्वर हों। ये राग दक्षिण भारत का है। जो अदभुत करुण रस प्रधान राग है। हिंदी फिल्मों में इस राग पर आधारित सृजित गीतों में ९९ प्रतिशत गीत करुण रस प्रधान है। एक उदाहरण तो आप को नागिन के गीत का दे दिया है। 

एसा लगता है; धीमी गति के आठ मात्रा के कहरवा ताल मे लता मंगेश्कर ने इस गीत को गाते समय दिल निचोड़कर रख दिया है। 

पहले अंतरे के शब्द हैं, तू नहीं तो ये ऋत ये हवा क्या करु, क्या करुं, दूर तुझ से मैं रह के बता क्या करुं, क्या करुं...। 

दूसरे अंतरे के शब्द हैं, आंधियां वो चली आशियां लुट गया..लुट गया। गीत का फिल्मांकर भी अलौकिक है। एसा है जैसे सोेने में सुगंध मिल गयी। आप ये गीत कभी मेघ छायी रात को या भोर होने से एक दो घंटे पहले की नीरव शांति में ये गीत सुनियेगा। आप के रोएं खड़े हो जाएंगे; हृदय में हलचल मच जाएगी। एसा होने का कारण इस राग में बसा विषाद है। इस में बसा विषाद इस के प्रत्येक स्वर को हृदयस्पर्शी बनाता है। 

ता.२६-११-२०१० के दिन गुजरात समाचार की लेखक अजित पोपट द्वारा लिखित कॉलम सिने मैजिक में छपे लेख का संक्षेपानुवाद

अनुवादक - कुमार अहमदाबादी 


जो लिखा था आंसूओं के (सिने मैजिक) राग झिंझोटी पार्ट - ०३

सिने मैजिक

इक हवा का झोंका आया, टूटा डाली से फूल, ना चमन की ना पवन की, किस की है ये भूल, खो गयी खुशबू हवा में कुछ ना रह गया...जो लिखा था, आंसूओं के संग पर गया.... फिल्म कोरा कागज के इस गीत के संगीत निर्देशक संगीतकार कल्याणजी आनंदजी थे।  राग झिंझोटी पर आधारित इस गीत के स्वरों को सात मात्रा के रूपक ताल में बांधा गया था। इस गीत में गायक किशोर कुमार ने एसी पीडा भरी है। एकांत में सुनने वाले की आंखें अक्सर नम हो जाती है। 

दूसरी तरफ संगीतकारों ने इस गंभीर माने जाने वाले राग में हल्के फुल्के रोमांटिक गीत भी बनाये हैं। फिल्म चिराग में नायक द्वारा अपनी नायिका की कल्पना के भाव को मदन मोहन ने जिस गीत में व्यक्त किया है। उस का मुखड़ा तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है... क्या लाजवाब है। इस गीत मे आगे शब्दों का कमाल देखिए ‘ये उठे सुबह चले, ये झुके शाम ढले, मेरा जीना मरना इन्हीं आंखों के तले’। आगे के अंतरे के शब्द पर गौर कीजिए ‘इन में मेरे आने वाले जमाने की तस्वीर है...’ चाहत के काजल से लिखी हुयी तकदीर है, ये उठे सुबह चले, ये झुके शाम ढले.. ये मदन मोहन द्वारा स्वरबद्ध शास्त्रीय गीतों में अपना एक अलग ही स्थान रखता है।

ता.17-12-2010 के दिन अजित पोपट द्वारा गुजरात समाचार में लिखित कॉलम सिने मैजिक में छपे लेख का आंशिक अनुवाद 

अनुवादक - कुमार अहमदाबादी 

सोमवार, अगस्त 19

बन के टूटे यहां (सिने मैजिक) राग झिंझोटी पार्ट -01

१९५८ में रिलीज हुयी मूवी छोटी बहन का ये गीत "बन के टूटे यहां आरज़ू के महल, ये जमीं आसमां भी गये हैं बदल, कहती है जिंदगी इस जहां से निकल... जाऊं कहां बता ए दिल, दुनिया बडी है संगदिल, चांदनी आयी घर जलाने, सूझे न कोई मंजिल" संगीत के शौकीनों का लाडला गीत है। 

संगीतकार जोडी शंकर जयकिशन ने इस गीत को भारतीय राग मंजूषा के भंडार में से एक राग झिंझोटी में स्वरबद्ध किया है। अंतरे के शब्दों से जिस तरह गीत आगे बढता है, उस पर गौर करने से मालूम होता है। गीत के स्वरों को एसे गूंथा है कि सुनने वाला दोनों यानि बनने और बिगड़ने के भाव महसूस करता है। गीत सुनने में इतना खो जाता है। ये पता ही नहीं चलता की आठ मात्रा के कहरवा ताल में पिरोया ये गीत कब पूरा हो गया। एक राग दरबारी कानडा की बात की तब बताया था। कुछ राग व रागिनी एसे हैं कि संगीत की थोडी सी समझ या जानकारी रखने वालों रस के सागर में डुबो देते हैं। खुशी का गीत हो तो श्रोता झूमने लगता है और दर्द भरा गीत हो तो गमगीन हो जाता है, कभी कभी रोने भी लगता है। 

शास्त्र की परिभाषा में ये एक संपूर्ण राग है। अर्थात इस में सरगम के मूल सातों स्वर सा रे गा म प ध नी सां है। अवरोह में निषाद का स्वरुप कोमल हो जाता है। हमारे संगीतकारों ने संगीत के शौकीनों को सात स्वरों के सागर में से एसे एसे गीत मोती निकाले हैं कि मन सोचता है। किन शब्दों में प्रशंसा करुं!


किशोर कुमार जितनी स्वाभाविक तरीके से हास्य रस बिखेरते थे। उतनी ही स्वाभाविकता से दर्द भरे गीत भी गाते थे। 

एसे कुछ गीतों का उल्लेख करता हूं। 

आप को गीत "कोई हमदम ना रहा, कोई सहारा ना रहा" अवश्य याद होगा। उस मूवी में किशोर कुमार ने हास्यरस और करुण रस दोनों का प्रदर्शन किया था। इस गीत की आरंभिक धुन एवं मुकेश के जिस गीत का आलेख की शुरुआत है। दोनों को गुनगुनाइये। आप को राग झिंझोटी में व्यक्त हुयी वेदना का अहसास अवश्य होगा। गीत के अंतरे के लिखे गये। शब्दों 'शाम तन्हाई की है, आयेगी मंजिल कैसे, जो मुझे राह दिखाए वही तारा ना रहा.....कोई हमदम ना रहा... में व्यक्त दर्द देखिये। झूमरु एवं छोटी बहन दोनों फिल्मों के इन गीतों की लय लगभग समान है। झूमरु का संगीत स्वयं किशोर कुमार ने दिया था। 

इसी राग पर आधारित एक और गीत १९७४ में प्रदर्शित एन एन सिप्पी की अशोक रॉय निर्देशित फिल्म चोर मचाए शोर में है। उस गीत के शब्द  घुंघरु की तरह बजता ही रहा हूं मैं है। ये गीत छह मात्रा के दादरा ताल में स्वरबद्ध किया गया था। 

गुजरात समाचार की अजित पोपट द्वारा लिखित कॉलम सिने मैजिक में ता.१०-१२-२०१० के दिन प्रकाशित लेख का आंशिक अनुवाद

अनुवादक - कुमार अहमदाबादी 


रविवार, अगस्त 18

दिल जो पखेरु होते (सिने मैजिक) पार्ट - 02

दिल जो पखेरु होता पिंजरे में मैं रख लेता

सिने मैजिक

भाग - ०२


 पुकारता चला हूं मैं गीत में गिटार और मेन्डोलीन का लचीला उपयोग हुआ है।

राग किरवाणी पर वापस लौटते हैं। १९७१ में किशोर कुमार ने आत्मकथा सरीखी दूर का राही नाम की मूवी बनाई थी। उस में एक गीत सुलक्षणा पंडित और किशोर कुमार की आवाजों में था। उस गीत के बोल *बेकरार दिल तू गाये जा, खुशियों से भरे वो तराने, जिन्हें सुन के दुनिया झूम उठे.....*इस गीत के शब्द प्रत्यक्ष तो आनंद व्यक्त करने का कह रहे थे। लेकिन तर्ज में गमगीनी थी। एसा ही एक प्रयोग राज कपूर की मूवी राम तेरी गंगा मैली के लिये गीतकार संगीतकार रविन्द्र जैन ने किया था। इस राधा मीरा, दोनों ने श्याम को चाहा, अंतर क्या दोनों की चाह में बोलो, इस प्रेम दीवानी इक दरश दीवानी... गीत में उपर के स्तर पर भक्ति का भाव नजर आता है। लेकिन गहरे उतरने पर विरह का भाव नजर आता है। 

छोटा सा एक एक अन्य मुद्दा

शास्त्रीय संगीत के उपासक इस राग को ज्यादा गाते नहीं है। इसे वाद्य संगीत के लिये ज्यादा उपयुक्त मानते हैं। इस में भी एक अपवाद है। पंडित रविशंकर द्वारा रचित एक बंदिश *नटनागरा सुंदरा....* को ठुमरी गायिका श्रीमती लक्ष्मी शंकर गाती हैं।

ता.०३-१२-२०२४ के दिन गुजरात समाचार में अजित पोपट द्वारा लिखित कॉलम सिने मैजिक में छपे लेख का आंशिक अनुवाद 

अनुवादक - कुमार अहमदाबादी 

दिल जो पखेरु होता (सिने मैजिक) पार्ट - 01

*दिल जो पखेरु होता पिंजरे में मैं रख लेता*

*सिने मैजिक*

भाग -०१

*ता.०३-१२-२०१० के दिन गुजरात समाचार में लेखक अजित पोपट द्वारा लिखित* *सिने मैजिक कॉलम का अंशानुवाद*

व्यक्ति जिसे भरपूर प्यार करता हो। उस की अन्यत्र कहीं शादी हो जाए। वो खुद डाक्टर बन जाए। उस के बाद जीवन में एसा मोड आए की वो बीमारी से घिरे अपने पति को लेकर चिकित्सा के लिये आ जाए। उस समय डॉक्टर गहन दुविधा में फंस जाता है। अगर वो रोगी को बचा ना सके तो भूतपूर्व प्रेमिका को ये लग सकता है कि बेवफाई का बदला लेने के लिये जान बूझकर मेरे सुहाग को नहीं बचाया। दूसरी तरफ बचाने के लिये असंभव को संभव कर के दिखाने का कार्य करने का बीडा उठाना होगा। 

इस पृष्ठभूमि में डाक्टर के मन की वेदना को गीत में व्यक्त करता है। वो यादगार गीत है *याद न जाए बीते दिनों की.... जाके न आए जो दिन, दिल क्युं बुलाए, उन्हें दिल क्युं बुलाए*  गीत के अंतरे में शब्द हैं  *दिल जो पखेरु होता पिंजरे में मैं रख लेता, पालता उस को जतन से मोती के दाने देता, सीने से रहता लगाए...*  संगीत के अभ्यासी इस गीत को राग किरवाणी का श्रेष्ठ उदाहरण मानते हैं।

  उपरोक्त गीत १९६३ में परदे पर आयी निर्देशक श्रीधर की मूवी दिल एक मंदिर 

का है। ये गीत राग किरवाणी में बनी उत्तम रचना है। सुरों के सम्राट मोहम्मद रफी द्वारा गाए गए एवं राजेन्द्र कुमार पर फिल्माए गए। मनोवेदना से भरपूर इस गीत को शंकर जयकिशन ने सुरों से सजाया था।

मैहर घराने के उस्ताद स्व. अली अकबर खां साहब इस राग को कर्णाटकी संगीत से लाये थे। व्यथित दिल की वेदना को व्यक्त करने वाला इसी एक और इसी राग पर आधारित गीत अनामिका मूवी में है। अनामिका के गीत *मेरी भीगी भीगी सी पलकों पे रह गये, जैसे मेरे सपने बिखर के..* को आर.डी. बर्मन ने स्वरबद्ध किया था। इस गीत के सरल शब्दों में वर्णित वेदना कलेजे को चीर देती है। 

राग किरवाणी पर आधारित कुछ अन्य गीत हैं.. १९५९ में प्रदर्शित देव आनंद और माला सिन्हा की मूवी लव मैरिज का चंचल गीत *कहे झूम झूम रात ये सुहानी* पंजाबी लयकारी के बादशाह ओ.पी.नैयर इस रागाधारित चंचलता और शोखी से भरपूर गीत दिये हैं। 

१९६२ में प्रदर्शित राज खोसला की एक मुसाफिर एक हसीना मूवी का *मैं प्यार का  राही हूं, तेरी जुल्फ के साए में सरीखे यादगार गीतों का सृजन किया है। एक अन्य *आंखों से जो उतरी है दिल में, तसवीर है इक अनजाने की, खुद ढूंढ रही है शम्मा जिसे क्या बात है उस परवाने की...* गीत भी कमाल का है। एसा हो नहीं सकता की ओ.पी.नैयर के संगीत की बात हो और घुडताल (घुडताल यानि घोडे के चाल वाली या टापों वाली ताल) का उल्लेख न हो। नसीर हुसैन की मूवी फिर वही दिल लाया हूं का शिर्षक गीत इस राग किरवाणी पर आधारित था। ओ.पी.नैयर साहब ने १९६५-६६ में प्रदर्शित विश्वजीत और मुमताज के अभिनय से सजी मेरे सनम मूवी में (जहां तक मुझे मालूम है। हिन्दी या उर्दू गुलबंकी छंद ( {मात्रा व्यवस्था लगा लगा लगा} ) में लिखे गये इस पुकारता चला हूं मैं, गली गली बहार की, बस एक(बसेक उच्चारण द्वारा छंद निभाया गया है) गीत को मोहम्मद रफी साहब ने पूरी मस्ती से गाया है। छंद, धुन वगैरह जितने बेमिसाल है। उतने ही बेमिसाल तरीके से रफी साहब ने गाया है।

१९६१ में किशोर कुमार ने दूर का राही मूवी बनाई थी। 

*अंशानुवाद जारी है*


शुक्रवार, अगस्त 16

कभी तिथि टूटती क्यों है और कभी दो क्यों होती है?

तिथियां कभी टूटती है और कभी दो होती है, क्यों?

 अनुवादक - महेश सोनी 


   आप को आश्चर्य होगा। एक ही दिन में दो तिथि कैसे होती है। अंग्रेजी कैलेंडर में तारीख व्यवस्था है। जब की भारतीय व्यवस्था पंचांग व्यवस्था है। तिथि व्यवस्था चंद्र की गति पर आधारित है। एकम से अमावस तक चंद्र पृथ्वी की एक प्रदक्षिणा (यानि एक चक्कर, एक राउंड) करता है। एक प्रदक्षिणा अर्थात ३६०(360) डिग्री का एक पूरा चक्कर होता है। चंद्र की प्रदक्षिणा के साथ पृथ्वी अपनी धुरी पर सूर्य की प्रदक्षिणा करती है; इसलिये चंद्र कभी कभी पृथ्वी गोलाकार के १२(12)अंशों से कुछ ही घंटों में गुजर जाती है। इसलिये महीने के ३०(30) दिनों का मेल बिठाने के लिये उस तिथि को रद कर दिया जाता है। जिसे ज्योतिष की भाषा में तिथि का क्षय होना कहा व आम बोलचाल की भाषा में तिथि का टूटना कहा जाता है। दूसरी ओर कभी कभी चंद्र को पृथ्वी के बारह अंशो से गुजरने में एक दिन से ज्यादा समय लगता है। एसे मामले में पंचांग में एक अतिरिक्त तिथि जोडी जाती है। जिस से कभी कभी कोई तिथि दो हो जाती है। इसी तरह वर्ष के ३६५(365) दिनों का सामंजस्य करने के लिये अधिक मास जोडा जाता है। 

 ता.17-08-2024( १७-०८-२०२४, शनिवार) के गुजरात समाचार की जगमग पूर्ति मध्य पृष्ठ (4-5) पर छपे लेख का अनुवाद (लेखक का नाम छपा नहीं है)


समाज की वाडी झूम रही है


मैं समाज की वाडी हूं। आज मेरी खुशी का ठिकाना नहीं है या फिर यूं कहें कि आज मैं खुशी से फूली नहीं समा रही हूं; और खुशी से झूम रही हूं।

बताती हूं कारण बताती हूं। जरा धीरज रखिए; कारण बताती हूं। 

आज मेरे बच्चे मेरे फूलों जैसे बच्चे मेरे आंगन में खेल कूद रहे हैं। 

आज मेरे आंगन में भारत का 78 वां स्वतंत्रता दिवस मनाया गया। हर साल की तरह इस वर्ष भी श्री बीकानेर ब्राह्मण स्वर्णकार समाज, अहमदाबाद की कार्यकारिणी द्वारा पारंपरिक 

 तरीके से यानि धूमधाम से मेरे आंगन में स्वतंत्रता दिवस मनाया जा रहा है। 

हर वर्ष की तरह इस वर्ष सुबह ध्वजारोहण करने के बाद बच्चों के लिये खेल कूद की प्रतियोगिताएं शुरु हुयी। खेल कूद प्रतियोगिताएं पूरी होने के बाद शिक्षा के प्रति बच्चों की रुचि और गहरी करने के लिये उन्हें शाम को पुरस्कृत किया जाएगा। 

मैं लगभग दो तीन बजे के आसपास ये लिख रही हूं। कौन सी एसी मां होगी। जो अपने बच्चों को अपने घर के आंगन में खेलते कूदते देखकर खुश नहीं होगी। उसी खुशी को आप सब के साथ बांट रही हूं।

मैं अपनी कलम को इस आशा व विश्वास के साथ विराम देती हूं। इन्हीं बच्चों में से कल कोई बडा व्यापारी बनेगा तो कोई ऊंचे दरज्जे का कारीगर बनेगा। कोई वैज्ञानिक बनेगा तो कोई उद्योगपति बनेगा। कोई बड़े शो-रुम का मालिक बनेगा। कोई मेरी कल्पना के बाहर के क्षेत्र में नाम और दाम कमाएगा। 

मेरी भावनाएं तो अनंत है। सब को तो कलम लिख भी नहीं सकती। लेकिन कलम को तो अब विराम देना पड़ेगा।

तो, इस आशा के साथ कलम को विराम देती हूं कि मेरे सारे बच्चे सफलता के नये शिखर छुएंगे व अपनी इस वाडी को एक मां की गोद को कभी नहीं भूलेंगे। जिस गोद में वे खेले हैं।

कुमार अहमदाबादी

मंगलवार, अगस्त 13

मतवाली से रिश्ता (रुबाई)


चंदा जैसा मुखड़ा है साली का 

औ’ पूनम जैसा है घरवाली का

दोनों कविता को प्रेरित करती हैं

रिश्ता है दोनों से मतवाली का

कुमार अहमदाबादी

सोमवार, अगस्त 12

सूर्योदय हो या संध्या की बेला(रुबाई)

सूर्योदय हो या संध्या की बेला

मन कहता है चल अकेला चल अकेला

जीवनपथ पर चलना ही जीवन है

चलता रह तू मिल जाएगा मेला

कुमार अहमदाबादी

शुक्रवार, अगस्त 9

मेरी जोरू(रुबाई)

 

दोनों को जानती है दुनिया सारी 

जोरू से है मेरी गहरी यारी 

बिन फेरे हो गये हैं इक दूजे के 

मय है मेरी जोरू प्यारी प्यारी 

कुमार अहमदाबादी 

शनिवार, अगस्त 3

मस्ती में है मन बंजारा (रुबाई)


रहता है मस्ती में मन बंजारा

साथी है मन का प्यारा इकतारा

इक दूजे में गुम रहते हैं दोनों

औ’ गाते हैं तारा रारा रारा

कुमार अहमदाबादी  

शुक्रवार, अगस्त 2

अर्थी पर दो बूंद चढा के यारों (रुबाई)


इक महफ़िल मित्रों की सजा के यारों 

प्याला पीना पास चिता के यारों 

पूरी करना अंतिम इच्छा मेरी 

अर्थी पर दो बूंद चढा के यारों

कुमार अहमदाबादी  

बुधवार, जुलाई 31

नखरा करती हो नखरे से (रुबाई)


करती हो तुम नखरा भी नखरे से 

बालों को सजाती हो सनम गजरे से

आंखों को धारदार करती हो तुम

दीपक की लौ से निर्मित कजरे से

कुमार अहमदाबादी 

शुक्रवार, जुलाई 26

यार खाली मत रखा कर (गज़ल)


यार खाली मत रखा कर

जाम को पूरा भरा कर


ये बताने के लिये की

ये है कैसी तू चखा कर


दोस्तों का मान रख यूं

दोस्तों को मत मना कर


जाम पूरा खत्म करना

यार रखना मत बचा कर


भाग्य की देवी स्वयं ये

जाम लायी है सजा कर


जाम अच्छे से बना यार

दोस्तों से मत दगा कर

गुरुवार, जुलाई 25

ये जडतर (रुबाई)


कुंदन का श्रेष्ठ कर्म है ये जडतर 

जडिये का प्यार धर्म है ये जडतर 

ये मामूली कला नहीं है प्यारे 

अत्यंत ही सूक्ष्म कर्म है ये जडतर 

कुमार अहमदाबादी


बुधवार, जुलाई 24

साधना करो जीवन भर(रुबाई)

साधक हो साधना करो जीवन भर

प्रार्थी हो प्रार्थना करो जीवन भर 

याचक बनकर आए हो मंदिर में 

मनचाही याचना करो जीवन भर 

कुमार अहमदाबादी

शनिवार, जुलाई 20

बांधती है याराने से(रुबाई)


मेरे जैसे ही इस दीवाने से

बातें करता हूँ मैं पैमाने से

बातें तो फ़ालतू की होती है पर

दोनों को बांधती है याराने से

कुमार अहमदाबादी

शुक्रवार, जुलाई 19

सांसें हो जाए रंगीन (रुबाई)


दो बोतल जाम और थोडी नमकीन

साथी हों चंद सोमरस के शौक़ीन 

मस्ती का दौर फिर चले एसे की

सांसें भी अंत तक हो जाए रंगीन

कुमार अहमदाबादी

बुधवार, जुलाई 17

भारतीय संस्कृति में गुरु की महिमा


*भारतीय संस्कृति में गुरु की महिमा*

 अनुवादक व लेखक - महेश सोनी 


*प्रस्तुत लेख का ज्यादातर हिस्सा अनुवादित है। जो* *आज(18-07-2024)के गुजरात समाचार की धर्मलोक आवृत्ति पृष्ठ नं.4* *पर छपे लेख का है; थोडा बहुत मैंने लिखा है।*


२१ जुलाई आषाढ़ सुद विक्रम संवत २०८१ के दिन यानि दो दिन बाद गुरु पूर्णिमा है। सनातन  भारतीय संस्कृति में इस दिन का सांस्कृतिक व एतिहासिक महत्व है। 


महर्षि वेद व्यास ने ज्ञान के प्रकाश को दसों दिशाओं में फैलाने का कार्य किया था। उन्होंने लोगों के मन में बसे अज्ञान रुपी अंधेरे को सदज्ञान का प्रकाश फैलाकर दूर किया था। 


गुरु के सानिध्य से जीवन की दशा और दिशा दोनों बदल जाते हैं। गुरु की कृपा और शिष्य का समर्पण दोनो का समन्वय हो जाए तो शिष्य का संपूर्ण जीवन रुपांतरित हो जाता है। सद्गुरु शिष्य को प्रेम सीखाता है; अहंकार को दूर कर के निराकार परमात्मा के मार्ग पर ले जाता है। सद्गुरु परमात्मा को प्राप्त करने का एक द्वार है। सनातन संस्कृति मे गुरु शिष्य के संबंध को दिव्य माना गया है।

गुरु का सानिध्य पत्थर दिल और जड़ शिष्य को भी पारस बना देता है।  हमारे समाज की बात करें तो हमारे समाज में गुरु का आशिर्वाद शिष्य को कुशल, उत्कृष्ट कलाकार( मेरा मानना है कि हम यानि सुनार कलाकार हैं, कारीगर नहीं) बनाता है। 

गुरु प्रकाश का वो स्तंभ है। जिस से दूर दूर तक रोशनी फैलती है। गुरु की महिमा अनंत है। गुरु की महिमा को संत कबीर ने लाजवाब शब्दों 


*तीरथ नहाये एक फल, संत मिले फल चार*

*सद्गुरु मिले फल अनंत, कहते कबीर विचार*


में पेश किया है। 


शास्त्रों में माता पिता को प्रथम गुरु रहा गया है। उन के बाद शिक्षक को महत्व दिया गया है। जो शिष्य को आर्थिक, भौतिक प्रगति का मार्ग दिखाता है। उन के बाद का स्थान आध्यात्मिक गुरु को प्राप्त हैं। जो शिष्य को जीवन मृत्यु के बंधन से मुक्त कर परमानंद द्वारा इश्वर को प्राप्त करने मार्ग बताता है। सद्गुरु मोक्ष प्राप्त करने के मार्ग को दिखाता है।


प्रस्तुत लेख का ज्यादातर हिस्सा अनुवादित है। जो आज (18-07-2024) के गुजरात समाचार की धर्मलोक आवृत्ति पृष्ठ नं.4 पर छपे लेख का है। कुछ मैंने लिखा है। 


शराब से नहलाना(रुबाई)

 

कहता है मन की आरज़ू मस्ताना

पूरी करनी है आप को ए जाना

मरने के बाद देह को पानी नहीं

मेरी प्यारी शराब से नहलाना

कुमार अहमदाबादी

मंगलवार, जुलाई 16

मय ला मेरी मनमानी (रुबाई)


मेरी प्यारी मय लेकर आ रानी

पर लाना मत पानी ए दीवानी 

नखरों को घोल कर तू धीरे धीरे 

मुझ को पीला मय मेरी मनमानी

कुमार अहमदाबादी


दैवी ताकत(रुबाई)

  जन्मो जन्मों की अभिलाषा हो तुम सतरंगी जीवन की आशा हो तुम  थोडा पाती हो ज्यादा देती हो दैवी ताकत की परिभाषा हो तुम  कुमार अहमदाबादी