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शनिवार, जुलाई 15

गरबा और गरबी(अनूदित)


(अनुवादक – कुमार अहमदाबादी)

जानकारी स्त्रोत – फेसबुक मित्र (सरला सुतरिया)


महत्वपूर्ण जानकारी

गरबा और गरबी (ये ख्याल रहे दोनों शब्द अलग हैं। इन के अर्थ भी अलग हैं) कैसे शुरू हुए? रास क्या है?


जिस के गर्भ(भीतर)दीपक है। उस घड़े को संस्कृत में दीपगर्भो घट कहा जाता है। समय के साथ ये भ्रंस होकर गरभो और बाद में गरबो बना।

उस घड़े को मस्तक पर रखकर या उसे बीच में रखकर उस के आसपास वर्तुलाकार में जो नृत्य किया जाता है। उसे भी समय के साथ गरबा कहा जाने लगा। सौम्य नृत्य लालित्य को लास्य कहा जाता है। इस नृत्य लालित्य की लय पर गरबा खेला जाता है।


सदियों पहले लिखे गए ग्रंथ ‘हरी कृष्ण’ में कृष्ण को रासेश्वर कहा गया है। स्त्री और पुरुष दोनों हाथो में डांडिया लेकर खेले वो *‘रास’, मात्र स्त्रियां तालियां बजाकर जिसे खेले वो गरबा और पुरुष खेले उसे गरबी कहा जाता है। 


पुरुष और स्त्री दोनों हाथों से तालियां बजाकर गरबा खेलें। उसे ‘हींच’ कहा जाता है। जब की मात्र स्त्रियां पैर का पंजा धरती के साथ टकराकर गरबा खेलें तो उसे ‘हमची खूंदनी’ कहा जाता है।


हवेली संगीत के गीतों व रास लिखनेवाले कवि वल्लभ मेवाड़ा जब श्रीनाथजी के दर्शन करने के लिए गए। तब पूजारी ने येnकहकर उन्हें वापस भेज दिया की ‘दर्शन बंद हो गए हैं’। तब उन के टूटे हुए दिल ने सोचा कि "जो पिता(कृष्ण) अपने संतानों(भक्तों) को दर्शन नहीं देता। उस की स्तुति लिखने से अच्छा है। मैं सदा सुलभ(जब चाहे उस के दर्शन कर सकता हूं) ममतामयी माता मां अंबिका के स्तवन क्यों ना लिखूं?

और,

दयाराम के पुरोगमी के रुप में उन्होंने एसे गरबों सृजन किया। जो आज भी लोकप्रिय हैं व गाए जा रहे हैं। आज नवरात्रि अंतराष्ट्रीय महोत्सव का रुप ले चुकी है। उन के द्वारा रचित गरबा आज भी नवरात्रि में बजते हैं। महाड़, काफी, पिलु, धनाश्री, कालिंगडो, सारंग आदि राग और खेमटा, कहरवा, के दीपचंदी ताल में गाए जानेवाले गरबा आज लेसर सिंथेसाइजर (ऑर्गन) के ड्रम की बीट्स (ताल) पर फ्यूजन म्यूजिक में बदल चुका है। 


‘भावप्रकाश’ नाम के अति प्राचीन ग्रंथ में तीन प्रकार के रास का वर्णन मिलता है। ‘तालरासक’ अर्थात ताली–रास, दंड–रासक यानि डांडिया–रास और लता–रासक, इस में स्त्री पुरुष लता की तरह परस्पर एक दूजे में समरस होकर जो रास खेलते हैं। 


रोज गरबा खेलनेवाले गरबा प्रेमियों से विनम्र विनंती है। *भाणदास रचित ‘गगन मंडल गुण गरबी रे’* गरबे को कभी चंद्र की चांदनी में पढ़िएगा व सुनिएगा कि....जिस में पृथ्वी एक दिया है, समुद्र तेल है, पर्वत बाती है और सूर्य दीपक है, शेषनाग इंढोणी है। उस में एसी एसी मधुर कल्पनाएं हैं। 

इस आशा के साथ कलम को विराम देता हूं। इस जानकारी से आप की नवरात्रि के रसानंद में निश्चित रूप से वृद्धि हुई होगी।


*1 — दयाराम, गुजरात के कवि थे। जो इ.स. 1777 में जन्मे थे। उन का स्वर्गवास इ.स. 1853 में हुआ था। उन का लिखा साहित्य विख्यात है। उन की लिखी गरबीयां विशेष रुप से आज भी बहुत प्रचलित है।*


जानकारी स्त्रोत – फेसबुक मित्र (सरला सुतरिया)

अंत में

आप सब धूमधाम से नवरात्रि मनाएं। माता पार्वती आप सब के जीवन को सदा सुखी,निरोगी एवम समृद्धि से भरपूर रखे।

( अनुवादक – कुमार अहमदाबादी)

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