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सोमवार, जुलाई 17

चांद को जब मुस्कुराना आ गया(ग़ज़ल)

चाँद को जब मुस्कुराना आ गया

प्यास को भी खिलखिलाना आ गया


चाँदनी को पुष्परस में घोलकर

पान करना लड़खड़ाना आ गया


गूँथकर माला में तारेँ, रूपसी

रात को दुल्हन बनाना आ गया


क्या जरूरत बोतलों की है भला

होश को जब गडबडाना आ गया


आसमाँ की जगमगाहट देखकर

स्वप्न को भी जगमगाना आ गया


सोलवें में चाँद के सिंगार को

देख दरपन को लजाना आ गया


चाँदनी को छेड़ने की सोच से

पास मेरे खुद बहाना आ गया


रात बोली पूर्णिमा की ए 'कुमार'

चाँदनी का अब जमाना आ गया


चाँदनी के एक पल के संग से

बादलों को चमचमाना आ गया

कुमार अहमदाबादी 

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