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रविवार, जुलाई 30

रामबाण (उपन्यास के बारे में)

 आखिरी उपन्यास ये पढ़ा है. इस की कहानी और राकेश रोशन की आखिरी एक दो मूवी में से एक मूवी की कहानी का मूल विचार एक ही है. 

रामबाण एसे व्यक्ति की कहानी है. जिसने भविष्य देखा है. संक्षेप में इस की कहानी लिखता हूं. उस से पहले इस के एक दृश्य के बारे में लिखता हूं. जिस से आप को कुछ अंदाजा हो जाएगा. 


राजीव(नायक) की नींद से आंख खुलती है. उस की नजर सामने पड़े ड्रेसिंग टेबल पर मौजूद दर्पण पर पड़ते ही वो चौंक जाता है. उस की चीख निकल जाती है. उस के मुंह से शब्द निकलते हैं "हे भगवान एसा कैसे हो सकता है." वो कूदकर दर्पण के पास पहुंचता है. दर्पण में दिख रहे अपने अक्स को नजदीक से देखता है. देखते देखते सोचता है.

"कैसे...कैसे रात ही रात में मेरे बाल इतने लंबे कैसे हो गए? मूर्खों की मानिंद बड़बड़ाकर मानो उसने खुद से ही पूछा "ये दाढ़ी, ये मूंछ, ये सिर के इतने लंबे बाल ! भला एक ही रात में ये कहां से आ गए? नहीं...ये मेरे नहीं हो सकते."

कहने के साथ उसने अपने चेहरे पर मौजूद दाढ़ी मूंछों को नोचने की कोशिश की तो हलक से एक और चीख निकल गई.

जबरदस्त पीड़ा का एहसास हुआ था उसे. 

बाल असली थे.

यह महसूस करते ही उसका आश्चर्य सभी सीमाएं लांघ गया. 

बौखलाकर कमरे में इधर उधर देखा.

कमरा उसी का था.

बेड उसी का था.

सबकुछ उसी का था. 

यहां तक कि चेहरा भी उसी का था. 

अगर नहीं थे तो केवल वे बाल उसके नहीं थे. जो उसके चेहरे और सिर पर उगे हुए थे.... यह बात उसकी समझ में नहीं आ रही थी कि रात ही रात में वे बाल कहां से आ गए?

उसे अच्छी तरह याद था. रात के समय वह अच्छा भला अपने बिस्तर पर सोया था. 

कल ही दाढ़ी बनाई थी उसने.

जबकि बाल इतने बढे हुए थे जैसे सालों से दाढ़ी ना की गई हो.

सिर के बालों की हालत भी वैसी ही थी. 

पागलों वाली  हालत हो गई उसकी. 

अपने आप से ही डरने लगा.

हलक फाड़कर चिल्लाया "किशनलाल....किशनलाल"

..................

ब्रेड पर मक्खन लगाते किशनलाल के हाथ से छुरी छूट गई.

एसा लगा था जैसे मालिक ने पुकारा हो.

मगर कहां?

भला मालिक कहां से पुकारेंगे?

उन का तो चार साल से पता ही नहीं है. जाने कहां चले गए?

आवाज उसे अपने कानों का भ्रम लगी.

सो, छुरी वापस उठाने के लिए हाथ बढ़ाया. 

हाथ बढ़ाया ही था कि आवाज पुनः सुनाई दी "किशनलाल...किशनलाल..अरे कहां मर गया तू?"

आवाज थी और ...उसके मालिक की ही थी. 

कंगारू की तरह कुलांचे मारता वह किचन से बाहर निकला. 

ड्राइंग रूम में पहुंचा.

दो कमरों का छोटा सा फ्लैट था वह. 

उसे पुकारते मालिक की आवाजें बैडरूम से आ रही थी. 

दरवाजा बंद था उसका. 

केवल बंद ही ही नहीं था बल्कि ड्राइंग रूम की तरफ से ताला भी लटका हुआ था. ताला खुद किशनलाल ने लगाया था. 

किशनलाल हैरान परेशान!

बात समझ में नहीं आ रही थी कि एसा कैसे हो रहा है.

चार साल बाद अचानक कहां से लौट आए मालिक?

और कैसे सीधे अपने कमरे में पहुंच गए जिसे हर रोज की तरह उसने कल साफ करके उसने ही ताला लगाया था. 

हकबकाया सा वो बोला "हां मालिक, मैं यहीं हूं. 

अंदर से जोर से आवाज आई "अबे बाहर से क्यों बंद कर दिया इसे?

"अभी खोलता हूं मालिक"

टेबल पर रखी चाबी लेकर दरवाजे की तरफ लपका. दिमाग में ख्याल उभरा "ये क्या कर रहा मैं?चार साल से गायब मालिक भला इस कमरे में कैसे बंद हो सकते हैं? कहीं कोई भूत वूत का चक्कर तो नहीं है ?

उसे जवाब सूझे उस से पहले एक बार फिर दरवाजा तोड़ डालने वाले अंदाज में बजाकर उसे पुकारा गया. 

अब.... किशनलाल ने न सिर्फ सोचे समझे बगैर चाबी ताले में डालकर घुमा दी बल्कि डंडाला(स्टॉपर) सरकाकर दरवाजा भी खोल दिया. 

यहां प्रथम दृश्य पूरा होता है

महेश सोनी

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