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सोमवार, जुलाई 31

उपन्यासों का जमाना

 https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.263516

मैंने कुछ दिन पहले उपन्यासों की बात की थी. आज सोचा इन दिनों नेट पर लगभग सबकुछ मिल जाता है; तो देखूं, पुराने उपन्यास भी उपलब्ध है क्या? खोज के दौरान 60, 70 व 80 के दशक के एक और लोकप्रिय उपन्यासकार गुलशन नंदा के एक दो उपन्यास मिले. 

आज की जेनरेशन शायद ही माने की उस 60 से 80-85 तक के समय में गुलशन नंदा के उपन्यास पढ़ना भी एक रुतबे का काम था. जैसे ही ए  को मालूम होता की बी गुलशन नंदा के उपन्यास पढ़ता है. ए

 की नजर में बी का रुतबा बढ़ जाता था. हालांकि हमारे समाज में छुप छुपकर उपन्यास पढ़े जाते थे. लेकिन अन्य शहरी वर्गों में उपन्यास पढ़ना प्रगतिशील व्यक्ति होने की निशानी थी. उस में भी गुलशन नंदा के उपन्यास पढ़ना रुतबे को और भी बढ़ा देता था. 

गुलशन नंदा ने बहुत ज्यादा उपन्यास नहीं लिखे हैं. मेरे दो पसंदीदा लेखक गुलशन नंदा और वेद प्रकाश शर्मा थे. वेद प्रकाश शर्मा ने गुलशन नंदा के मुकाबले कहीं ज्यादा उपन्यास लिखे हैं. शर्मा ने डेढ सौ से ज्यादा उपन्यास लिखे हैं. जब की गुलशन नंदा ने मुश्किल से साठ पैंसठ उपन्यास लिखे होंगे. हो सकता है इतने भी ना हों. लेकिन उन की लेखनी भाषा शैली धारा प्रवाह, रोचक और रसीली थी. एक बार जो उन का उपन्यास पढ़ लेता था. वो अपने आप उन के दूसरे उपन्यास पढ़ने के लिए लालायित हो जाता था. 

उन के कुछ उपन्यासों पर मुंबई के फिल्मोद्योग ने फिल्में भी बनाई हैं. उन्होंने कुछ फिल्मों की स्क्रिप्ट भी लिखी है. लेकिन कुल मिलाकर कवि नीरज की तरह उन्हें भी माया नगरी रास ना आयी. उन के उपन्यासों पर बनी कुछ फिल्में  खिलौना काजल, सावन की घटा, दाग, कटी पतंग, पत्थर के सनम वगैरह हैं.

कुमार अहमदाबादी 

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