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शनिवार, जुलाई 29

वो उपन्यास वो दृश्य(अनुसंधान)

केशव पंडित बीमा कंपनी का बेहद चालाक काइयां डिटेक्टिटिव यानि जासूस था. उस के बारे में मशहूर था कि जिस केस की जांच केशव पंडित खुद अपने हाथ में लेता है. उस केस में बीमा कंपनी को क्लेम नहीं देना पड़ता. एसा उस का करियर था. इधर छोटी बहू के घरवाले केस को लेकर निश्चिंत थे. क्योंकि तब तक जांच जिस तरह से हुई थी. उन्हें लग रहा था. उनका षडयंत्र सफल हो रहा है. बस कुछ ही दिनों की बात है. फिर छोटी बहू के बीमे का चेक उन के हाथ में आने ही वाला है. 

लेकिन.......जैसे ही उन्हें मालूम हुआ कि केशव पंडित ने खुद अपनी मर्जी से केस की जांच अपने हाथ में ली है. उन सब पर जैसे बिजली टूट पड़ी. सारे पुरुष जानते थे कि केशव पंडित किस व्यक्तित्व का नाम है. वो कैसे किसी केस की बाल की खाल निकलता है. वे सतर्क हो गए. अपने आप को केशव पंडित के सवालों का जवाब देने के लिए तैयार करने लगे. सोचने लगे कि वो क्या क्या पूछ सकता है. हमारी योजना में उसे कहां कौन सा छेद नजर आ सकता है. उस के कौन से सवाल से हम घर सकते हैं या शंका के घेरे में आ सकते हैं.सब के सब अपने आप को केशव पंडित का सामना करने के लिए तैयारी में लग गए. एसा केशव पंडित का खौफ था. अब किसी भी दिन केशव पंडित से उन का सामना हो सकता था. लेकिन दो दिन सामना नहीं हुआ. केशव पंडित नहीं आया. ये दो दिन उन के लिए बहुत लम्बे बीते. 


अब वो दृश्य शुरू होता है

आखिर कार तीसरे दिन वे सब ड्राइंग रुम में बैठे थे तब डोरबेल बजी. 

जैसे ही नौकर ने पूछा "कौन है" दरवाजे के बाहर से आवाज़ आई "मैं हूं केशव पंडित"

सुनते ही कमरे में मौन छा गया. सब एक दूसरे को आंखों से दरवाजा खोलने के लिए कहने लगे. किसी की हिम्मत नहीं हुई की वो स्वयं अपने आप जाकर दरवाजा खोल दे. 

आखिरकार ससुर ने नौकर को दरवाजा खोलने के लिए कहा. नौकर बेचारा मालिक का हुक्म कैसे टालता. वो उठकर दरवाजा खोलने के लिए गया. इधर बाकी सब एसे एलर्ट होकर बैठ गए. जैसे किसी तूफान का सामना करना है. 

नौकर ने दरवाजा खोला. सामने केशव पंडित खड़ा था. उस के चेहरे पर मुजरिम के कलेजे को चीर के रख देने वाली मुस्कान थी. दरवाजा खोलकर नौकर ड्राइंग रूम में जाकर बैठ गया. पीछे पीछे केशव पंडित भी गया. कुर्सी पर बैठ कर केशव पंडित ने सब को बारी बारी से देखा. सब ऐसे बैठे थे. जैसे रेड अलर्ट पर हों. 

केशव पंडित फिर पिता की आंख में आंख डालकर चंद पल मुस्कुराता रहा. फिर बहुत ही कातिल मुस्कान के साथ बोला *आप सब तो मेरे सवालों का जवाब देने के लिए एसे तैयार बैठे हैं. जैसे बच्चा शिक्षक के सामने मौखिक परीक्षा देने के लिए तैयार होकर बैठा हो. लगता है आपने मेरे बारे में बहुत कुछ सुन रखा है* सुनते ही पिता के छक्के छूट गए. उन्हें लगा ये कमबख्त कितना घाघ है. ये समझ गया कि हम सवालों का सामना करने के लिए तैयार होकर बैठे हैं. वे हड़बड़ाए और एकदम से शरीर को ढीला छोड़कर बोले "नहीं नहीं, एसी कोई बात नहीं है." ये सुनकर केशव पंडित फिर मुस्कुराया. उसने दूसरा गोला फेंका. वो बोला *आप पस्त भी बहुत जल्दी हो जाते हैं* ये सुनकर पिता ये सोचकर और ज्यादा घबरा गए की इस की आंखें हैं या एक्स रे मशीन. कमबख्त न समझ गया कि मैं पस्त हो गया हूं बल्कि मुझे बता भी दिया. यहां से उन की सारी प्लानिंग धरी की धरी रह गई. केशव पंडित ने उन्हें मानसिक चक्रव्यूह में एसा उलझाया की उस के सवालों के बावलों की तरह उत्तर देते रहे. बहुत कुछ एसा बोल गए जो वे बताना नहीं चाहते थे. 


ये सारा दृश्य मैंने आनंद जी को सुनाया था. जिसे सुनकर आनंद जी वो बात कही थी. जो मैंने इस से पहले की पोस्ट में लिखी है. 

ये थी मेरी और आनंद जी की पहली यादगार मुलाकात, जो मुझे आज भी ज्यों की त्यों याद है. क्यों? क्यों कि आनंद जी ने मेरी मुलाकात मुझ ही से करवाई थी. 

महेश सोनी

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